गुरुवार, 20 अगस्त 2020
बुधवार, 12 अगस्त 2020
शनिवार, 8 अगस्त 2020
दर्द तो हुआ होगा। जब मरहम लगा होगा किसी के घावों पर। अजीब है न ? किसी के घावों पर मरहम लगे तो दूसरे को दर्द कैसा ? और दर्द हो भी क्यों ? पर यही तो कमाल है। जब दर्द खुद का दिया हो तो घाव हरा ही रहने में सुकून मिलता है। उसे कोई मरहम लगाकर ठीक करे तो दर्द तो होगा ही। और वह दर्द रह रहकर जुबान के रास्ते आह के रूप में नहीं बल्कि धमकियों के रूप में सामने आता है। क्यों ? और हैरान होना गैरजरूरी नहीं कि दर्द किसी और का दिया हो और उसकी गलतियों को शौक से अपने काँधे पर ढोये पाँच सौ साल से एक घाव को हरा ही रखने की कोशिश थी तुम्हारी। तुमने गर्व किया उस पर। शर्म नहीं की कि उसने तुम्हारे पुरखों पर भी वही कहर ढाया था जो तुम पर ढहाया और तुम बदल गए और पूरी तरह बदल गए पर लाखों करोड़ों अपनी अस्मिता को बचाये आज भी लड़ रहे हैं और बेर की झाड़ियों से तुमसे अपने कपडे बचाकर चलते चले जा रहे हैं राम नामी दुपट्टा ओढ़े। तुम्हारी उम्मीदों पर पानी फिर ही तो गया ।
दर्द तो हुआ होगा। पर एक बात तो बताओ ? शर्म नहीं आयी तुम्हें उसके साथ खड़े होते। गंगा जमुनी तहजीब की बातें करते। मगर कभी बाबर के साथ खड़े होते तो कभी औरंगजेब के लिए लड़ते। इतनी मक्कारी। जब थोड़े हो तो गंगा जमुनी तहजीब और जब ज्यादा तब ? न किसी को जमीन देने को तैयार , न आकाश ,न पानी। किस्मत इतना कुछ कब किसके लिए लाती है कि जो खैरात में एक मुल्क पा जाये और दूसरे को बोनस की तरह पा ले और जमाई बनकर जिया चला जाये। जब चाहे धमकी दे दे कि तोड़ देंगे उस नयी इमारत को जिसे न्याय के देवता ने किसी को सौंप दिया। यह तुम्हीं कर सकते हो और देखो आसानी से कोई उस देवता पर की गयी टिप्पणियों के खिलाफ सड़क पर भी नहीं उतरता। मोहम्मद साद तो याद होगा। किसी को पता भी है ? कहाँ है। कोई पूछता भी नहीं है।
दर्द तो हुआ होगा पर तुम कमाल करते हो। कमाल। यहां तो हालात ये हैं कि किसी की दो लाइन को पसंद करने से पहले चार बार सोचना पड़ता है कि कहीं लाइन गैर सेक्युलर तो नहीं। और एक तुम हो तुम सब , एक लाइन में एक साथ , एक सुर में सुर मिलाते , उसके सुर में सुर मिलाते जो कहता है - 15 मिनट ---- और फिर एक हल्ला होता है और कोई आलोचना नहीं। जो कोई आलोचक हो जाये वह एक दल विशेष का।
पर तुम कौन ? जिसने थोड़ा भी दिमाग नहीं लगाया कि तुम्हारे पुरखे भी तो कभी हमसे ही थे। औरंगजेब और बाबर ने तो हिसाब बराबर ही किया था न। तुमने खुद को बाबर से क्यों जोड़ लिया। हमने तो कभी खुद को न रावण से जोड़ा न कंस से और न दुर्योधन से। फिर तुम्हें क्यों नहीं सूझा कि जिसके साथ साथ तुम यह गंगा जमुनी तहजीब का मंच सजाये बैठे हो उसका बाबर से कोई लेना देना नहीं। तो क्या तुम्हारा लेना देना है ? और अगर तुम्हारा लेना देना है तो तुम मेरे कैसे हुए और अगर तुम उसके साथ खड़े हो जिसने हमें क्रूरता से मारा तो क्या उसके किये पापों का जिम्मेदार मैं तुम्हें मान लूँ ? अगर तुम्हें जिम्मेदार मान लूँ तो फिर यह गंगा जमुनी तहजीब का सो कॉल्ड नाटक क्यों ? और अगर तुम जिम्मेदार नहीं तो फिर तुम्हारा उस मस्जिद के ढहने पर यह रोना धोना क्यों ? कहीं और बनाये जाने पर हाय हल्ला क्यों ? और सुनो , क्या तुम फिर से उसका नाम बाबरी मस्जिद रखने वाले हो ताकि हमें याद दिलाते रहो कि बाबर ने हमारे पूर्वजों के साथ क्या किया था। पर चलो इससे हमें यह तो याद रहेगा कि जिसे तुम अपना कहते हो उसने हमारे पुरखों के साथ क्या किया था। तलवार के दम पर तुम्हारे राज ने हमें तो इतना कमजोर कर दिया था कि जहां तुम्हारी संख्या बढ़ने लगती हम भागने की सोचने लगते। मकान बेचने की सोचने लगते। खौफ तो रहा है तुम्हारा। तुम्हें कभी इस बात की जरूरत महसूस नहीं हुई होगी कि सोचो , ऐसा क्यों होता है ?
पर ध्यान रखो , जितना तुम बाबर से खुद को जोड़ोगे उतना हमसे रामारामी में दूर ही होओगे। जितना बाबर से दूर होओगे हमें अपने नजदीक पाओगे। मगर तुम करोगे कैसे ? तुम्हें यह करने भी कौन देगा ? तुम्हारे अपने ? वो तो फतवा निकालने में देर नहीं लगाएंगे या टैग लगा देंगे कि तुम हमारे साथ मिल गए हो। मिलना ही तो है। फिर मिलोगे कैसे ? सोचो ,
पर इतना मुझे पता है कि दर्द तो हुआ होगा न ? धारा ३७० का दर्द देखा है मैंने तुम्हारे छोटे छोटे बच्चों तक में जिन्हें तीन तलाक़ से मुक्ति पा चुकी तुम्हारी पत्नियां भी महसूस करती हैं। छोटे छोटे बच्चे कश्मीर के लिए रोते फिरते हैं। उत्सवों पर गीत गाते हैं कि किसी तरह पुराना कश्मीर वापस आ जाए और हिंद्स्तान की छाती पर मूंग डालता रहे। देश का गृहमंत्री कोरोना हॉस्पिटल गया और तुमने ट्विटर पर गालियों और बद्दुआओं की बरसात कर दी।
दर्द तो हुआ होगा पर दर्द तो उन्हें भी हुआ था जिनका घाव हरा था और अब जब भरा है तो तुम बैचैन हो गए। क्यों ?
रविवार, 2 अगस्त 2020
शुक्रवार, 17 जुलाई 2020
पर एक बात कहूँ तकलीफ तो तब भी होगी ही जब अगर वो गाय वाला भी कुर्सी पर बैठ गया और उसने भी अंग्रेजी बोलनी शुरू कर दी। पर तब तक तो तुम्हें ये वाली अंग्रेजी की आदत पड़ ही चुकी होगी होगी। क्यों ? फिर भी दर्द तकलीफ तो देता ही है। पर जब आदत पड़ जाती है तब दर्द कम होता है। है न।
बुधवार, 24 जून 2020
शनिवार, 20 जून 2020
सोमवार, 15 जून 2020
शुक्रवार, 12 जून 2020
मंगलवार, 9 जून 2020
रविवार, 7 जून 2020
कथा। सत्य नारायण की कथा कई बार सुनी है। आज कल इस कथा के सुनने वालों का क्या हाल है ? कलावती। सत्यनारायण कथा की एक पात्र। आज कल जब कथा होती है हालात देखे हैं आपने ? निचले फ्लोर पर कथा हो रही है और ऊपरी फ्लोर पर पार्टी। साथ साथ चलते हैं। यह हमारी आध्यात्मिक हालत है जिसे ये हालात दर्शाते हैं। बुरा न मानें अगर सत्य कहा हो ? अब कथाएं प्रभु केंद्रित नहीं बल्कि भक्त केंद्रित हो गयी हैं। अपने यहां। एक धर्म आज भी है जिसमे आध्यात्मिकता पूरे चरम पर है आज भी। कट्टरता की हद तक। वही 72 हूरों वाला धर्म। बुराई करूँ क्या ? यदि उनकी भी बुराई करूंगा तो फिर अपने वाले की बुराई क्यों ? किसी एक की ही तो बुराई होगी। या तो उसकी या फिर इसकी।
वीरभोग्या वसुंधरा। धरती के बारें में कहा गया है कि धरती वीरों के द्वारा भोगी जाती है। जो कायर हैं वे धरती को भोगने के अधिकारी नहीं। वे तो मर जाते हैं मार दिए जाते हैं। सुना हैं न। जो डर गया समझो मर गया। और जीत ? वो भी तो डर के आगे ही होती है। डर के आगे जीत है।
एक बात और कही है - सुवर्णपुष्पितां पृथिवीं विचिन्वन्ति नरास्त्रयः। शूरश्च कृतविद्यश्चः यश्च जानाति सवितुम।। यानि सोने से भरी धरती को तीन ही लोग भोगते हैं। शूर यानि पराक्रमी , कृतविद्य यानि जिसने ज्ञान प्राप्त किया हो या जो सेवा करना जानता हो। सेवा मतलब। आज के सन्दर्भ में चमचागिरी। आपको तो पता है - चमचे आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं।
ये सब लिखने की जरूरत क्या है ?
है। जिन्होंने तलवार के दम पर विजय पायी उनका खौफ बरक़रार रहना स्वाभाविक है। जिसके घर में रोज या हर तीसरे दिन किसी निरीह प्राणी की गर्दन कटती हो उसका खौफ बना रहना स्वाभाविक है। अब वो आपके मोहल्ले में ज्यादा हो जाएँ तो ? छोड़ दो धरती या वह जगह। पलायन कर जाओ। कायर की भांति या शरीफ की भांति। क्योंकि शरीफ बनने में थोड़ा योगदान कायरता का भी तो होता होगा। वरना यह शौक दूसरों को भी होता। वे भी शरीफ बन जाते। अजीत डोभाल जी की एक स्पीच सुनी था। यूट्यूब पर उपलब्ध है। कहते हैं - मैं नहीं कहता कि आप मेरी बात से सहमत होंगे। लेकिन उस पर गौर जरूर करियेगा। इतिहास में इसका महत्व ज्यादा नहीं है कि कौन सही था शरीफ था बल्कि इस बात का महत्व ज्यादा है कि जीत किसकी हुई। किस तरह से हुई इसका भी ज्यादा महत्व नहीं है। यदि सही और शरीफ का महत्व होता तो दिल्ली में बाबर रोड न होती , वहाँ राणासांगा रोड होती। क्योंकि राणासांगा सही थे और बाबर गलत। पर ऐसा है नहीं। इतिहास ने हमेशा उन लोगों का साथ दिया है जिन्होंने विजय पायी है। और यह विजय ताकत से ही हासिल हुई है। आप सहमत हों या न हों। पर इस एक बात पर विचार चिंतन जरूर करें। मानें या न मानें।
अजीत डोभाल साहब की यह बात काबिले गौर है।
इतनी लम्बी भूमिका ?
आजकल मुरारी बापू की चर्चा है। राम कथा में हुसैन गायन करते हैं। पहले से करते आ रहे हैं। एक बार ब्रह्म ज्ञान दे रहे थे। ईश्वर और जीव के ज्ञान में कहा - तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ , तू मुझमे है मैं तुझमे हूँ। यानि ईश्वर भक्त से कहता है - हे भक्त ! तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ। हम दोनों एक दूसरे में हैं। तब कोई हल्ला नहीं हुआ था। आज माहौल दूसरा है। वरना हुस्न और इश्क़ पर बवाल बनना स्वाभाविक है। बनाने वाले तैयार बैठे हैं। हुसैन गायन करते करते बापू बहुत कुछ लम्बा चौड़ा रहमाने रहीम वगैरह करते हैं। चैनल पर देखा। उसके बाद यूट्यूब पर दूसरा वही वीडियो देखा तो पता चला कि बापू के बाद के शब्द थे - लो मैंने गा दिया रहमाने रहीम। अब तुम गाओ रघुपति राघव राजा राम। स्वाभाविक है , कोई बुराई नहीं हैं। वे तो चुनौती दे रहे थे। चैनल वाले ने आधा ही दिखाया। चैनल भी गुजरती था। बापू भी गुजरती। पी एम भी गुजराती। एच एम भी गुजराती। नोटों पर छाया हुआ भी गुजराती। आर बी आई वाला भी गुजराती। डांट पड़ी होगी। चैनल वाला चुप हो गया है तब से। हालाँकि एक दूसरे युवा संत से चिन्मयानन्द जी से खुद अदालत बनकर माफ़ी तो मंगवा ही ली उसने। वहाँ भी करोड़पति भक्त रहे होंगे। डांट पड़ी होगी। एक दूसरी साध्वी अल्लाह जाप कर रही थीं। ॐ की जगह अल्लाह ने ले ली थी।और भी कुछ अन्य हैं। कुछ राजनैतिक भी हैं। उनकी तो बात और ही है वरना मोदी जी के भाषण के दौरान नमाज पर उनकी तीन मिनट की चुप्पी पर उन्हें भी जवाब देना पड़ जाए पर वहाँ मामला राजनीति का है।
अब समस्या यह है कि यह सब क्यों है ? इसलिए है कि कोई कब तक हिंदुस्तानी अनार खाये। इसलिए तो अफगानी अनार मंगवाते हैं। कई अन्य देशों से खजूर भी आता है। इस पर कोई बवाल तो नहीं हो सकता। तभी होगा जब कोई कोरोना यहां से आएगा। तो ज्ञान तो वैसा ही है जैसे लौकी। बेस्वाद। और बार बार वही कथा। सुनाने वाला भी वही। श्रोता अलग अलग पर टीवी पर तो वही। तो सुनाने वाले को अगर लगे कि लोग उबासी ले रहे हैं या बोर हो रहे हैं तो क्या करे। तो फिर होता हैं न। खाने में स्वाद न हो तो ? थोड़ा एक्स्ट्रा मसाला। मक्खन। ताकि स्वाद आ जाये। तो फिर भोजन की तो बात अलग है। हर देश का भोजन हर देश में लोकप्रिय हो सकता है। पर आध्यात्मिकता में मखना कैसे कैसे लगाया जाये ? कथा को भक्त केंद्रित करना पड़ेगा। मार्किट की डिमांड के हिसाब से। यह नहीं चलेगा कि जो मेरे पास है वह ले लो। जो भक्त को चाहिए वह देना पड़ेगा। अब भक्त को क्या चाहिए ? व्हाट्सप्प या फेसबुक। इंस्टाग्राम या यूट्यूब। या फिर कुछ और। आजकल नेटफ्लिक्स भी आया हैं। भारतीय संस्कृति की पूर्व प्रचारक ' क्योंकि सास भी कभी बहू थी ' से संयुक्त परिवार को तरजीह देने वाली मगर असल जिंदगी में सिंगल फॅमिली पसंद करने वाली। और अब पथभ्रष्ट होकर वेब सीरीज के जरिये भक्तों की मांग पूरी करने को आतुर। ये सब भी भक्त ही हैं न। एकता कपूर के। मगर बापू के भक्त तो अच्छे लोग हैं। चुटकुलों और शेरो शायरी से ही काम चला लेते हैं। सही ब्रह्म ज्ञान यदि दिया जाने लगे तो खोपड़ी के दो हो जाएंगे। सच्चा ज्ञान देने वाले कृपालु जी महाराज तो अब रहे नहीं। तो बापू भी भक्त की मांग के हिसाब से चल पड़े। भक्त किस बात पर हंसेगा। कैसे उसका टाइम पास होगा। अच्छे से। मुझे समझ नहीं आता कि कैसे ऐसे बापू अपनी कथा नौ दिन में पूरा कर लेते होंगे। हर वक्त भक्त के हिसाब से चलना। पर बात आगे की है।
बापू के दूसरे वीडियो भी मिले। बापू वहां भी हुसैन गायन। कव्वाली , अल्लाह आदि करते मिले। तो जब उन्हें एक बार में चुनौती पसंद नहीं आयी तो फिर आप काहे हुसैन गायन करने लगे हैं। बार बार। क्या यह वही रोग है जो इस देश में लगा है। सेक्युलर जमात वाला रोग। सिख , पारसी , बौद्ध , जैन , ईसाई। इनका पाठ तो कभी नहीं होता। इन्हें देश में खतरा भी नहीं है। शिकायत भी नहीं है। तो सफाई सिर्फ एक को क्यों ? क्या इसलिए कि बाकियों ने आप पर कभी शासन नहीं किया ? शासन ईसाइयों ने किया तो देश ईसाई तो हुआ ही पड़ा है शिक्षा परिवेश के हिसाब से। पर वे आज यहाँ नहीं हैं और तलवार के दम वाले नहीं बल्कि दिमाग से शासन करने वाले हैं। तो तलवार का भय आज भी है क्या ? जो राजा की तरह राज करते हैं और विक्टिम की तरह खुद को सामने रखते हैं। 70 साल से विक्टिम बने हुए हैं। 6 साल से तो बहुत ज्यादा।
गुरुवार, 4 जून 2020
बुधवार, 3 जून 2020
- तो ? करीब दो साल पहले sprinter हिमा दास ने जब iiaf world u20 championship में गोल्ड जीता था तब यह उम्मीद कतई किसी को नहीं थी कि वह स्वर्ण जीत लेगी। लेकिन यह ख़ुशी कई दिन तक बरकरार रही।
- वह रेस अद्भुत थी और एक झटके में बहुत कुछ बदल गया था।कई फ़िल्में भी बनीं हैं जो रेस 1 , रेस 2 और रेस 3 के टाइटल से आयीं और रियल लाइफ नहीं बल्कि रील लाइफ का हिस्सा बनीं।
- तो ? रियल लाइफ की रेस क्या है ? वह जो जिंदगी में हम पैसा या मान प्रतिष्ठा कमाने के लिए करते हैं या कुछ और। यदि पैसा और मान सम्मान ही रेस है तो फिर आजकल यह क्या है ? जिंदगी बचाने की रेस ?
- कई दिनों से देख रहा हूँ और नोट कर रहा हूँ एक एक रिकॉर्ड उन दो धावकों का जिनमें एक जिंदगी लील जाने को आतुर है और दूसरा जिंदगी बचाने को आतुर। योद्धा तो कितनों को कह दो। क्या फर्क पड़ता है। बच्चों को मन बहलाने के लिए कह देना कि तू तो सबसे बड़ा शेर है। असली आदमखोर शेर तो कोरोना ही है न। और उससे लड़ने को और उसे उसकी ही मौत मारने के लिए तैयार डॉक्टर और नर्सेज।
- आज तो इन्हीं दोनों के बीच रेस है। एक लील जाना चाहता है और दूसरा दिन रात लगा है उन्हें बचाने को जिन पर कोरोना की निगाह है। और जानते हैं कौन जीत के करीब है ? बचाने वाला। पचास प्रतिशत पर पहुँच जाता अगर 48 घंटे में थोड़ा गड़बड़ न हुई होती तो। सैंतालीस के पार तो अभी हैं ही। और इन्तजार है कि 47 से ज्यादा की रिकवरी देने वाले हमारे कोरोना योद्धा डॉक्टर , नर्सेज और स्वास्थ्यकर्मी और पुलिस , उस लाइन के पास खड़े हैं जिस पचास प्रतिशत के पार निकलते ही हमारी जीत तय है। जैसे ही हमारा रिकवरी रेट 50 प्रतिशत पर पहुंचेगा और इसे पार करेगा , समझ लें कि जीत की शुरुआत हो गयी है। रियल लाइफ की जीत। हमारे डॉक्टर्स की जीत जो कोरोना योद्धा से भी बड़ा दर्जा पहले ही पा चुके हैं वह भी भगवान् का। भले ही शैतान ने उन पर पत्थर बोतल बम लाठी कुछ भी फेंके पर वह डटे रहे और शैतान का इलाज करने से भी उन्होंने कोई गुरेज नहीं किया। और अब बीच की इस लकीर के एक तरफ कबड्डी की उस नंबर दिलाने वाली लकीर को छूने की तरह बिलकुल पास खड़े होकर हम जीत का जश्न मना सकते हैं जब हमारे रिकवरी रेट को हम 50 प्रतिशत से ज्यादा होता देखें और मान कर चलें कि हम जीत जाएंगे। उनको प्रोत्साहित करने के लिए किये गए प्रयासों को , उनके लिए बजायी गई ताली थाली शंख , जलाये गए दिये , मोमबत्ती और बरसाए गए फूल भले ही आपको खटके हों पर इससे उनकी हिम्मत तो बंधी होगी वरना बिना प्रोत्साहन के हारने वाले , बीच में ही काम छोड़ देने वाले कितने ही लोग थक भी तो जाते हैं। पर हमारे डॉक्टर्स को रिकवरी में 50 प्रतिशत पर पहुँचते देख और इस लाइन को पार करने की प्रतीक्षा ख़ुशी दे रही है और यह इंतजार सुखद है और यह संतोष नहीं हक़ीकत में बदलता एक स्वप्न है जिसे हम जल्दी फलता देखेंगे। थोड़ा दुःख है तो यह कि वे छह हज़ार भी हमारे बीच होते जो आज नहीं हैं। उनके लिए विनम्र श्रद्धांजलि।
सोमवार, 1 जून 2020
माँ कहा करती थी - उस पीपल के पेड़ के पास रात को मत जाना। वहां भूत रहता है। कभी जाने की हिम्मत ही नहीं हुई। फिर गलती से एक दिन उस भूत से मुलाकात हो गयी। बस फिर क्या था। भय ख़त्म हो गया।
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यह भी कहा गया है - तावत् भयान्न भेतव्यं यावत् भयम् अनागतम्। मतलब - भय से तब तक मत डरो जब तक वह सामने न आ जाए।
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जब तक कोरोना का भूत दो चार की संख्या में घूम रहा था तब तक डर ही डर था। अब तो भूतों की संख्या बढ़ती जा रही है तो ? पहले भूत हमारे बीच था। अब लगता है कहीं हम भूतों के बीच न रहने लगें। हम तो डरते रहे। बचते रहे। अब काहे को रोना। और अब भय ख़त्म हो गया है। जब बहुत सारे अंदर हो जाएंगे तब क्या ? कहा है न - मन के हारे हार है मन के जीते जीत। तो अब तो भूत आ ही गया है। सारा मंत्रिमंडल अंदर जाने को तैयार बैठा है। महाराज जी से जो लोग यह आशीर्वाद लेने जाते रहे होंगे कि उस कोरोना के भूत से भी बच जायेंगे वे भी कहीं न कहीं अपने कुल देवता के आगे माथा टेक रहे होंगे। भय का भूत ही तो है। वरना उससे भी पुराना भूत तो हर साल आता है। तैयारी कर रहा है आने की। डेंगू का भूत। नए आगंतुक के चक्कर में पुराने वाले को भूल गए। उसके टोने टोटके की भी तैयारी करके रखें। पपीते के पत्ते, गिलोय वगैरह। दवा तो उसकी भी ऐसे ही चलनी है। ध्यान रहे कि दो भूत एक साथ न लग जाएँ। मुश्किल ज्यादा होगी। पानी ज्यादा जमा न होने दें। social gathering के साथ साथ अब water gathering से बचने का भी वक़्त आ चला है। एक आदमी तो दिखाई भी देता है जिससे कोरोना फैलता है। पर वह मरी सी टांगों वाला मच्छर जो कहीं पर भी साफ पानी में चुपचाप जन्म प्राप्त करके किसी को भी काट ले। उससे डर भूल गए ? भूल भी गए तो यह तो याद रखें कि कुल मिलाकर दूरी बनाये रखें। जिन्दा रहे तो नजदीक आ लेंगे।
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हम से अलग एक और भूत हवा में घूम रहा है। टिड्डियों का भूत। अन्नदाता की नींद उड़ाने वाला भूत। उससे तो हमें कभी डर नहीं लगा। अपने घर तक न आये तब तक भूत भी कैसा और डर भी कैसा। जब तक पडोसी के यहां संकट है तब तक क्या दिक्कत है। अम्लान तूफ़ान आया। डर लाया। हम तो सुरक्षित रहे। डरे भी नहीं। अब गुजरात में चक्रवात है। तैयारी हो रही है। वह डर हमें नहीं। दो दिन पहले भूकंप आया। क्या भूकंप के भूत से हम नहीं डरते। क्यों डरें। कहा तो है - तावत् भयान्न...................... और क्या। जब तक डर सामने न हो तो डर कैसा। रात को भूकंप आ जाए आठ या नौ स्केल पर तो ? कुछ पता है ? पर डर जब हलाल के अंदाज में आता है तो डर ज्यादा लगता है। झटके में डर कैसा ? एकदम। सब ख़त्म।
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तो सरकार ने भी डर से मुकाबला करने की ठान ही ली। सब खोलना शुरू कर दिया । देखते हैं , क्या होता है। जिसे डर होगा बैठा रहेगा घर के अंदर। निडर होगा तो जायेगा बाहर। करेगा खरीददारी। खायेगा होटल में। रेस्टॉरेंट में। जिम में। सिनेमा हॉल। शॉपिंग मॉल। डरपोक होगा तो डरा रहेगा। डर के आगे जीत है। किस डर के आगे। लापरवाही से भुला दिए गए डर के आगे या सावधानी से अपनाये गए डर के आगे। तय करना पड़ेगा।
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जब पहले पहल कोरोना ड्यूटी आयी चिंता हुई। थोड़ा डर लगा। पीपल के पेड़ के भूत की मानिंद चार दिन में डर खत्म। मगर डर के साथ ही डर खत्म होता है। डर कर तो रहेंगे न तभी सावधानी बरती जाएगी और डर खत्म होगा। वरना सुना है - सावधानी हटी दुर्घटना घटी। इसलिये कभी नहीं से देर भली। हर एक खुद में एक दुनियां है। शूट आउट वाला मामला होता तो सुलट लेते। मगर यहां तो गोली मारें किसे। दिखाई नहीं देता। उसे मारने में गोली कामयाब नहीं और खुद को बचाने के लिए गोली ही नहीं। तो भय से अनावश्यक भीत न हों मगर थोड़ा भयभीत तो रहें ताकि सावधान रह सकें। गोलगप्पे टिक्कियां खत्म नहीं हो रहीं। खतरा खाने वालों पर है।
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सूक्तियां और मुहावरे अलग अलग कालखंड में बनते बिगडते खत्म होते जाते हैं और गलत साबित होने पर इन पर केस तो नहीं चला सकते। इसलिये जिंदगी में कोई सूक्ति सूक्त कहानी, किंवदन्ती या मुहावरा कितना भी डराये या भड़काए। भड़कने या डरने से पहले सोच लें कि अकल और जिंदगी अपनी है और अक्ल सबसे ऊपर के हिस्से में है। दिल से भी ऊपर। और जिंदगी की प्राथमिकता सर्वोपरि। अक्ल न हो तब भी जिंदगी तो जिंदगी है पता नहीं फिर कब मिले? 🤔
रविवार, 31 मई 2020
मगर दोष उनका कैसे हो जिन्होंने उसकी यह हालत बनायी। उनके भी तो अपने बच्चे हैं। क्या वे अपने बच्चों की चिंता करना छोड़ देते। आखिर कैसे कोई माँ बाप अपने बच्चों की चिंता करना छोड़ दे। हमारे यहां माँ बाप का जो लगाव अपने बच्चों के साथ होता है वह कोई किसी से छिपा है क्या ? तो सब अपने अपने बच्चों का भविष्य ही तो संवार रहे हैं। सेवा करनी होती तो राजनीति में क्यों आते ?
शनिवार, 30 मई 2020
अचानक हमने पाकिस्तान को देखना शुरू किया तो संतोष हुआ कि हमारे यहां उनके यहां से ज्यादा बेहतर व्यवस्थाएं हैं। वहाँ तो एकांतवास में मरीजों के साथ बहुत बुरा हो रहा था। वहाँ का बुरा हाल देखकर संतोष हुआ। फिर हम देखते रहे अपने यहाँ की बढ़ती संख्या और देखते रहे अन्य देशो की तरफ और हे भगवान , हे भगवन कहकर संतोष करते रहे। अमेरिका को देखकर तो बेहद संतोष होता रहा कि देखो , दुनियां का सबसे ताकतवर देश किस तरह लंगड़ा गया है। कराह रहा है। हमारे यहाँ तो संभला हुआ है। अन्य विकसित देशों में अब तक इंग्लैंड , जर्मनी , जापान , फ्रांस सभी शामिल होते गए हमारे लिए संतोष की बात रही कि इतनी विकसित व्यवस्थाओं वाले देश कितनी बुरी हालत में हैं। हमें यह भी संतोष रहा कि हमारे पास संतोष के लिए मोदी जी हैं , संभाल लेंगे। मोदी है तो मुमकिन है। हम आदतन हो गए हैं यह सुनने और कहने के।
संतोष बहुत बड़ी चीज है। अन्य राज्यों में बढ़ते केस और अपने उत्तराखंड में कम केस। संतोष रहा। फिर अन्य देशों में जिस तरह से केस बढे वह संतोष देता रहा कि हम पीछे हैं केस में। बीच बीच में हमको पाकिस्तान ने बड़ा संतोष दिया।
हमें संतोष रहा कि हमारे यहां रिकवरी रेट बढ़िया है। मृत्यु दर कम है। हमारी तो आबादी बहुत ज्यादा है। केस कम हैं। टेस्टिंग कम थी संतोष हो गया कि टेस्टिंग ज्यादा हो गयी है। हमने कई बार संतोष से खुद को मनाया है।
फिर हम दस हज़ार से आगे बढ़ गए। बीस तीस पचास हज़ार और फिर एक लाख। और अब दो लाख के करीब। हमारे यहां भी उत्तराखंड में अब केस बढे। संतोष है कि अभी हज़ार नहीं हुए।
क्या हम स्पेन , इटली वगैरह से भी आगे निकलेंगे ? तब ? हमारे पास संतोष का एक कारण होगा कि अमेरिका तो हमसे आगे है। और ईश्वर ने करे यदि हम अमेरिका से भी आगे निकल गए तो ? हमें संतोष होगा कि अमेरिका की तो आबादी बहुत है और वहाँ बढ़िया ट्रीटमेंट के बावजूद बुरा हाल है। हम तो एक सौ पैंतीस करोड़ हैं।
तो संतोष के बहाने तलाशिये। और सुखी रहिये वरना हालात तो नींद उड़ाने वाले हैं। अपनी चिंता है तो खुद को खुद सम्भालिये और सोशल डिस्टन्सिंग बनाइये और साधारण जीवन बिताइए। कुछ दिन अनावश्यक खर्च खरीददारी से बचिए। वरना फिर संतोष से ही काम चलाना पड़ेगा। क्या चाहिए ?
संतोषमेव पुरुषस्य परं निधानं ।
क्या चाहिए - संतोष या सावधानी ?
शुक्रवार, 29 मई 2020
बुधवार, 27 मई 2020
अब जब भी पड़ोस की जोरू कुछ अच्छा करती तो गरीब की जोरू के ससुराली पडोसी सब कहने लगते - देखा , ऐसे होता है काम। ऐसे करते हैं काम। उस पड़ोसन को देखो। पड़ोस की जोरू को। कैसे धड़ाधड़ काम किये जा रही है। कोई खौफ नहीं। और एक यह है। गाय चरा रही होती कहीं। बन गयी जोरू। अब गरीब जोरू क्या करे। कुछ न बोल पाती। कुछ खा कर मोटी हुई तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया - खा खा कर मोटा रही है। करती तो कुछ हैं नहीं। तीन साल हो गए। एक बच्चा न जना गया इससे। सोचती है जिन्होनें ब्याहा है वही बच्चा भी जनेंगे। कुछ तो खुद कर ले। उन्हीं के भरोसे बैठी रहती है। अब गरीब जोरू कहे भी तो क्या कहे। ऐसा नहीं है कि गरीब जोरू कुछ करती नहीं थी। करती थी। झाड़ू पोंछा बर्तन भांडे सब करती थी। पर जब पड़ोस की जोरू बहुत बढ़िया कर रही हो तो अपनी जैसा भी करे खराब ही लगता है। बेचारी सुन सुन कर इतना परेशां हो गयी कि उसकी गरीबी की छाया ने उसका पीछा ही नहीं छोड़ा। वह जब भी बोलती ऐसा लगता बकवास कर रही है। गरीब तो गरीब होता है। कोरोना काल में गरीब क्या होता है इसकी बानगी हर तरफ है।
एक बार एक आपदा आयी। सब तरफ हाहाकार मचा था। गरीब की जोरू की किस्मत चमकती सी लग रही थी। उसके घर में बीमार काम पड़ रहे थे। सो वह खुश थी। फिर भी पड़ोसियों और ससुरालियों को चैन न था। क्योंकि पड़ोस की जोरू के यहां भी बीमार हुए और बहुत ज्यादा बीमार हुए। वह उसी दबंग अंदाज से उनका इलाज करा रही थी। पर गरीब की जोरू के परिवार में तो लोग ही बहुत कम थे। थे भी तो सीधे साधे। बीमार कम थे तब भी लोग कहते - पड़ोस की जोरू को देखो , उसके यहां कितने बीमार पड़ गए पर हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। कैसे सबको निपटा रही है। सबका इलाज करवा रही है। मान गए भाई। अरे अगर इसको इतनी बीमारी झेलनी पड़ती तो पता चल जाता। किस्मत अच्छी है। बेचारी गरीब जोरू सुनती रहती।
गरीब की जोरू के बहुत से रिश्तेदार उसकी गरीबी देखकर बहुत पहले ही उससे दूर चले गए थे। जहां जहां वे गए थे वहाँ भी आपदा आयी थी। ज्यादा आयी थी। उन्हें पता चला कि गरीब की जोरू के यहां तो बहुत कम बीमार हैं। चलो वापस चलते हैं। उन्होंने आना शुरू किया। दोनों बुजुर्गों ने सलाह मश्विरा करके भेज दिया था।और जैसे जैसे वे आते गए। गरीब की जोरू के यहां भी लाइन लगती चली गयी बीमारों की। अब ससुरालियों ने हुड़दंग मचा दिया। फिर कहना शुरू किया - देखो , बुला लिया। लुटवा दिया। अक्ल तो है नहीं। बीमारियां फैला रही है। लोग तो पडोसी जोरू के यहाँ भी आ रहे थे। पर उसके जलवे ही कुछ और थे।
इन दोनों जोरुओं से दूर भी एक जोरू थी कहीं। समुद्र के किनारे उसका आशियाना था। उसकी दो सौतन भी थीं और उसके यहां आपदा ने अपना रुतबा बढ़िया ढंग से बरकरार रखा था। सौतनों ने नाक में दम कर रखा था। इस समंदर किनारे वाली जोरू के पास पैसा बहुत था। पर बांटना पड़ रहा था सौतनों को। उनके नखरे अलग। उसको देखकर दया आती थी। वह भी जब भी बोलती थी उस पर मंडराता उसकी सौतनों का साया स्पष्ट रूप से दिखाई देता था। पर गरीब जोरू तो घर में पूरा समर्थन होने पर भी ऐसी लगती जैसे उसका संसार लुट गया हो। फिर सोचा। ऐसा क्यों। काम तो कर ही रही है। तो इस पर फिर जब भी मैं अन्य जोरुओं को देखता तो सोचता - समरथ को नहीं दोष गोसाईं। जो समर्थ है उसके दोष नहीं देखे जाते। तुलसी जी कह गए थे। तुलसी जी। वही तुलसी जी जो अपनी जोरू से मिलने सांप को रस्सी समझकर खिड़की चढ़ गए थे।
बेचारी गरीब जोरू। अब ओखली में सर दिया तो मूसल से क्या डरना।
बुधवार, 20 मई 2020
1947 नहीं देखा। कैसा रहा होगा वह पलायन। विभाजन का डर। खौफ में पलायन करते लोग। बैलगाड़ी में। पैदल। भीड़ की भीड़। खुशवंत सिंह का train to pakistan पढा। कैसे ट्रैन लाशों से भरी आतीं थीं। राजनीति तब भी हुई थी। आज जैसी नहीं। वह राजनीति कहने को एक समाधान दे गयी थी। मगर आज जो है वह राजनीति के तालाब का सड़ा हुआ पानी है।
वह देश का निर्माता है। कहते तो यही हैं सब। बिन चप्पल। नंगे पैर। पटरी पर सो जाता और रोटियां पटरियों पर छोड़ जाता। कहीं गाड़ी के पलट जाने से समूह का हिस्सा बन निपट जाता। जब आम दिनों में रोज मरने वाले 408 लोगों का यह क्रम लॉक डाउन में रुका तो इसको लॉक डाउन में भी जारी रखने में भी उसने ही सबसे पहले भूमिका निभाई। सबसे पहले उसके ही चले जाने की ख़बरों ने सुर्खियां बटोरीं। कहने को वह नींव का पत्थर है। महल , हवेलियां बनाता है मगर सिर्फ बनाता है खुद यही धक्के खाने के लिए। इतना बड़ा देश। इतनी सशक्त सरकारें। दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र। मगर सड़क पर चलते ये मजदूर इस भ्रम को दूर कर देते हैं कि हम कोई ताकतवर देश हैं। लाइन के आखिर में खड़ा आदमी आज भी वहीँ है। आखिर में। कहने को अंत्योदय योजना चला लो। गाँधी के आखिरी आदमी के विकास से जुड़े सिद्धांत को नाटक बनाकर आजमा लो मगर वह वहीँ है जहां हमारी राजनीति उसे रखना चाहती है। सूटकेस पर लटका बच्चा। फूले हुए पाँव। फटी पड़ी बिवाइयां। हो सकता है , कहीं कहीं फोटो फेसबुक के तिलिस्मी झूठ से हमारा शिकार कर रही हों मगर सब झूठ तो नहीं होता। कहने को दुनियां का सबसे बड़ा नेटवर्क। मगर जो आपदा में काम न आया वह किस काम का ? ऐसा नहीं है कि लोग रेल से आ नहीं रहे हैं। पर करोड़ों शरीरों वाले इस देश में चल अकेला चल अकेला की तर्ज पर चलते ये मजदूर डराते हैं कि आराम पसंदगी के शिकार कभी हम जैसों की यह नौबत आ गयी तो ? वे तो तपते लोग हैं चलते जा रहे हैं और हम ? जीवन भर उस ताप से खुद को बचाने की जद्दोजहद में लगे। कभी सामना करना पड़ जाए तो ? दो चार किलोमीटर तो व्हाट्सप्प या फेसबुक देखते देखते निकल जाएंगे मगर जब पैरों का पेअर थकने लगेगा तब ? तब भी। थोड़ी देर। whatsapp या फेसबुक या यूट्यूब से गुजारा करना पड़ेगा। मगर नेटवर्क नहीं रहा तो ? और पैकेज ख़त्म तो ?
वह भूख से मर गया था। चार दिन से चल रहा था। यकीं नहीं होता कि किसी ने उसे खाना नहीं दिया होगा या उसने माँगा नहीं होगा या उसे भरोसा नहीं हुआ कि कोई खाना देगा भी या नहीं। जीवन के अनुभव से उसने कुछ तो सीखा होगा। ऐसा कैसे हुआ होगा कि चार दिन से कोई गाँव ही उसके रास्ते में नहीं आया होगा या वह किसी गांव से गुजरा नहीं होगा। भारत तो गांवों का देश है। ऐसा कैसे हुआ होगा कि सब गाँव के लोग ऐसे ही रहे होंगे। बीमार न हो जाएँ , इस डर ने क्या लोगों को उसके करीब नहीं आने दिया होगा। क्या वह पटरियों से गया होगा। बस्तियां तो हर तरफ हैं। हाईवे पर , पटरियों के किनारे। फिर भी वह भूखा मर गया। शहर में भूखा मरा होता तो समझ आता। याद है। किसने ये कहा था। सांप , तुम तो शहर में बड़े नहीं हुए , तुमने तो शहर नहीं देखा फिर यह बताओ ,तुमने डसना कहाँ से सीखा ? मगर क्या गांव भी शहर हो गए थे ? एक समय का भोजन छोड़ देने से जिस देश में पैसठ करोड़ थाली बच जाएँ वहाँ कोई यूँ भूख से मर जाए तो कोई क्या कहे ?
जब वुहान को देखा था नहीं सोचा था कि अपने यहां यह होगा। पत्थर तोड़ने वाली वह साईकिल पर , रिक्शे पर , ऑटो पर या बैलगाड़ी पर या फिर एक तरफ बैल और दूसरी तरफ बैल न होने से खुद लगकर गाड़ी ढोहता या ढोहती । समझ नहीं आ रहा क्या लिखूं और क्या न लिखूं। रुकता हूँ। यह कीपैड चलने से मना कर रहा है। उनके चलने में और इसके चलने में कितना फर्क है। यह चार पांच अँगुलियों का दबाव झेलता और वह जिंदगी का दबाव ढोकर चलते। अलविदा। फिर कभी। वह तोड़ती पत्थर।
सोमवार, 20 अप्रैल 2020
मेरे लोगों को कोरोना हो गया था। मेरा मुखिया मोहम्मद साद कहीं छुप गया है । ऐसा सरकार कहती है। मगर मुझे लगता है यह गलत है और इसलिए जब आप मेरे लोगों को ढूंढ रहे हैं तो वे उन पर पत्थर बरसा रहे हैं। क्योंकि मेरे सदस्यों को पता है कि उन्हें कोरोना नहीं हो सकता। और आप जब जबरन मेरे लोगों का इलाज करेंगे तो मैं कैसे मान लूँ कि मेरे लोगों को कोरोना हुआ है। आखिर मेरे समाज के जिन सदस्यों ने एक सरकार को हराने के लिए कोई विचारधारा तक नहीं अपनायी और कभी कांग्रेस , कभी सपा तो कभी बसपा की गोद में बैठते रहे। मेरा कोई चिंतन तक हिंदुस्तान में कभी पनपा ही नहीं और मेरे लोग सिर्फ एक नकारात्मक राजनीति के तहत सिर्फ इस सरकार को न आने देने के लिए या इसके सत्ता में होने पर इसको बाहर करने के लिए कोशिशें करते रहे तो ऐसे में वे कैसे मान लें कि यह सरकार उनका इलाज करेगी। नहीं। आज से पहले तमाम सरकारें हमारा नाम ले लेकर हमें पुचकारती थीं मगर यह सरकार जबसे आयी है तब से कभी भी इस सरकार ने हमें " मेरे मुसलमान भाइयों " कहकर पुकारा ही नहीं। हमें कोई अलग से सहूलियत दी ही नहीं। एक सौ तीस करोड़ भारतवासी। आखिर हम कहाँ ढूंढें खुद को इसमें। यदि हमारा अलग से नाम लिए हमें पुकारा होता तो हमें पता चलता कि हम कहीं तो हैं। गुड़ न देते पर गुड़ जैसा पुकार तो लेते। क्या हमें पहले किसी ने गुड़ दिया है? गुड़ दिया होता तो हमारे लिए बनी सच्चर कमिटी हमारे हालत को ऐसे कैसे बयां करती कि हम किस हालत में जी रहे हैं। हमें भले ही किसी ने कुछ न दिया हो पर हमें देश के संसाधनों पर हमारा पहला अधिकार का आश्वासन तो दिया है। क्या यह काम है ? पहले किसने भला यह कहने की हिम्मत की। जिस सरकार पर भरोसा करने की बात करते हो यह तो इस बात से ही चिढ जाती थी। अब कहती है - 130 करोड़। कहते हैं कि विश्वास कर लो।
देश में भले ही कितने दंगे हुए हों और भले ही अधिकांश दूसरी सरकारों के राज काज में हुए हों पर 2002 क्यों हुआ था ? यदि गोधरा में 59 लोग मार दिए गए। जिन्दा जला दिए गए। तो क्या हिंसा का जवाब हिंसा होता है ? हम तो गाँधी के देश में हैं। अहिंसा परमो धर्मः। गाँधी जी ने कहा था - कोई एक गाल पे थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो। क्या जिन्होंने प्रतिकारात्मक दंगा किया वे गाँधी को भूल गए थे ? गांधी का इतना अपमान कैसे किया गया ? हमारी बात करते हो ? हमने तो जिन्ना की बात पर पाकिस्तान के लिए वोट किया था। हम यहां हिंदुस्तान में बाई chance नहीं बल्कि बाई choice रुके। और यह देश तो वैसे भी अतिथिः देवो भव वाला रहा है। और हम तो अतिथि भी नहीं है। तुम तो जानते ही हो हम कौन हैं ? या तो हम औरंगजेब वगैरह से साथ आये थे या इस देश के धर्मान्तरित हिन्दू हैं। हमने यहां आठ सौ साल राज किया है। समझे ?
एक बात और सुन लो। हम थूकते हैं। गंद करते हैं। क्योंकि हम यहां हॉस्पिटल में अपने अल्लाह की मर्जी से नहीं लाये गए। काफिरों के द्वारा लाये गए हैं। इसलिए अपनी मर्जी से हटकर हम पर हुक्म नहीं चलाया जा सकता
और हम पर तुमने हाथ डाला ? क्या तुम्हें हमारी ताकत का पता नहीं कि मरकज भी हमने तब खाली करने का मन बनाया था जब तुम्हारे NSA अजित डोभाल आये थे। क्या तुम्हें इससे हमारी ताकत का अंदाजा नहीं लगा और तुम बेचारे उस थाना प्रभारी से उम्मीद लगाए थे कि वह हमारा मरकज खाली करवाए जो हमारे पिछवाड़े के पुलिस स्टेशन पर बैठता था। उसकी हमने सुनी जरूर पर की नहीं। क्योंकि हम अल्लाह के बन्दे हैं। भले ही हमारी कितनी ही बदनामी हो जाए। भले ही हमारे प्रति एक समाज में कितनी भी नकारात्मकता फैले पर हम अपनी राह से नहीं डिगने वाले। कभी आओ न। हमारी नमाज में। कितनी व्यवस्थित होती है हमारी नमाज। तुम्हारे मंदिरों में तो भक्तों को यही पता नहीं होता कि भगवान् के दर्शन करके जब वह बाहर आएगा तो उसे उसकी चप्पल भी मिलेंगी या नहीं। हमारा अनुशासन हमें बहुत कुछ सिखाता है। हमें जो इंजेक्शन शुक्रवार को लगाया जाता है वह हमारे DNA में है और हम आसानी से बदलने वाले नहीं।
आज कुछ लोग हमें अपनी कालोनियों में नहीं घुसने दे रहे। हमें शक की निगाह से देख रहे हैं हमारे आधार कार्ड चैक किये जा रहे हैं। हम पर फलों और सब्जियों पर थूकने के आरोप लगाए जा रहे हैं। हमें घृणा की नजर से देखा जा रहा है। मगर हमारा आका मोहम्मद साद कोई मैसेज हमारे बन्दों को देने को तैयार नहीं है। वह अमीर है और उसने कहा था कि हम अगर मस्जिद में रुके तो वहाँ की मौत बेहतर होगी। वह भी जरूर कहीं मस्जिद में ही होगा। वह नहीं चाहेगा कि अगर उसे कोरोना हुआ तो वह काफिरों के हाथों ठीक हो। हम अल्लाह के भरोसे हैं। हमारे बहुत से लोग छिपे बैठे हैं क्योंकि वे वैसा ही करने के लिए कहे गए हैं। हमारे प्रति तुम्हारी घृणा का क्या करना। कल सब ठीक हो जाएगा। बाल बनवाने तो हमारे ही पास आओगे न। सब्जी , दूध , फल , BIKE में पंक्चर , पोताई , मिस्त्री के काम , पेंट करना , कबाब खाना । ये सब किससे कराओगे ? कब तक हमसे घृणा करोगे ? कभी अपने अंदर के छेद देखे हैं तुमने ? छन्नी हो। किसी का शिव तो किसी का विष्णु तो किसी के राम ,किसी के कृष्ण। अपने मतभेद सुलझाओ तो हमें समझने आना। हाँ , हमें पता है , हमारे लोगों ने मरकत की गलती मानी होती , चुपचाप हॉस्पिटल में इलाज करवा लिया होता , जो जमाती छिपे बैठे हैं वे बाहर आकर इलाज करवा लेते , जो जमातियों को छिपाए बैठे है वे सूचना देकर बता देते कि जमाती यहाँ हैं और इनका इलाज कर दो। गलती हो गयी। बता देते कि कौन कौन कब कब कहाँ किससे मिला है। थूकते नहीं। फसाद नहीं करते तो क्यों होती यह नफरत। सब कुछ बहुत नार्मल होता। कही कुछ नहीं होने वाला था। पर हम लापरवाही के लिए माफ़ी किससे मांगे। और तुम कहोगे मत मांगो माफ़ी , पर इलाज भी क्यों कराएं। हमारे लोगों को कोरोना है भी या तुम्हारी साजिश है ? तुम्हें तो क्या यह डर लग रहा है कि कहीं कोरोना तुम्हारी सरकार न निगल ले। इसलिए तुम इतनी मेहनत कर रहे हो। करो। पर हम सहयोग नहीं करेंगे। सरकार गिर जाये तो हमारे लोग तो आएंगे सरकार में। जैसे दिल्ली में आये। तब देखेंगे। दिल्ली में हमने सरकार बनायी न ? हमारी पुरानी पार्टी कांग्रेस खुलकर हमारे साथ है। इसलिए सब ठीक होगा। हम माफ़ी उस सरकार से मांगे जिस पार्टी के हारने के लिए हमने आज तक अपनी कोई स्थायी सोच तक नहीं बनायीं ताकि हम किसी पार्टी से जुड़े रहते ? सॉरी , इस सरकार का तो कुछ भी बर्दास्त नहीं हमें। क्योंकि हमें सिखाया गया है इससे नफरत करना। मुरादाबाद , मेरठ , भागलपुर , बनारस , बम्बई , इमरजेंसी या 1947 के दंगों ने भले ही हमें कितने ही जख्म दिए हों। पर याद तो हमें 2002 ही है। क्योंकि वहां इस सरकार के राज काज में हमें प्रतिकारात्मक जवाब मिला था। इसलिए हम उसे नहीं भूल सकते। 2002 से पहले भले ही उस राज्य के लोगों ने साल के छह महीने CURFUE में गुजारे हों पर उसके बाद तो वहाँ शांति ही छा गयी थी।
तुम हमें समझते क्या हो ? जब हमने कश्मीर से लाखों पंडितो को निकाला था तो क्या कोई ख़ास हलचल हुई थी। नहीं न। ये ही हमारी स्वीकार्यता थी। तुम हमें जमाती कहते हो , क्यों ? क्या हमारे लोगों ने तुम्हें हमको जमाती कहने से नहीं रोका ? रोका होगा। और तुम रुक नहीं रहे हो। हमें जमाती मत कहो क्योंकि इससे हमारी बदनामी होती है। हमारे धर्म , सॉरी, हमारे मजहब की बदनामी होती है। इसलिए हमें सिर्फ covid 19 के मरीज समझो। हमें पता है कि हमारे आका साद यदि हमारे लोगों से कहें कि वे बाहर निकल आएं तो शायद वे बाहर निकल आएंगे पर वे नहीं कहेंगे। क्योंकि वे अपने इरादों के पक्के हैं। और वे खुद भी अभी बाहर नहीं आएंगे क्योंकि अभी बाहर आये तो उनकी भारी सुताई हो सकती है और लॉक डाउन के कारण हमारे लोग प्रदर्शन के लिए भी वहाँ पर नहीं आ पाएंगे। तो फिर जान छुड़ाना भारी पड़ जाएगा इसलिए अल्लाह के भरोसे वे बैठे हैं और जैसे ही सही वक्त आएगा वे भी आ जाएंगे। चिंता मत करें। तुम्हें मेरी ताकत का तो अंदाजा होगा कि जब जुनैद , अख़लाक़ और तबरेज मरे थे तब किस तरह से हमारे हजारों समर्थक अपने अपने बिलों से निकल आये थे और उन्होंने तुम्हारे लिए जवाब देना भारी कर दिया था। सारा देश हमारे लिए उमड़ पड़ा था। आज तुम्हारे तीन साधु मारे गए हैं। क्या कोई बोला तुम्हारे लिए। तुम्ही तो बोले। तुम्हारे बोलने से क्या होता है ? तुम इस देश की धर्म निरपेक्ष संस्कृति के प्रतिरूप तो नहीं हो। तुम कम्युनल हो। भगवा यदि सुबह के सूर्य में है तो क्या ? शिवाजी के ध्वज में था तो क्या ? तुम्हारी शिवसेना का प्रतीक है तो क्या ? हमारे ध्वज में है तो क्या ? तुम्हें समझना चाहिए कि यहाँ तो सब सावन के अंधे हैं और इन्हें सिर्फ हरा ही हरा दिखाई देता है। और वह हरा हमारे पास है। सिर्फ हमारे पास।
इसलिए फर्क करो हममें और तुममें। अगर हम बदल गए तो तुममें और हममें फर्क क्या रहेगा। फर्क से ही तो दुनियां चलती है। तुम हमारे लोगों को रोकोगे ? कब तक ? कल का कायर हिन्दू आज का मुसलमान है और आज का कायर हिन्दू कल का मुसलमान होगा ऐसी अफवाहें चलती रहती हैं। जानते हो न। अब पहचान गए मुझको। मैं खुद भी तो अफवाहों का ही शिकार हूँ पर तुम्हारी नहीं सुनूंगा। खैर , बहुत हो चुका। मिलेंगे कोरोना के बाद प्यार से। जैसे पहले मिले थे। बॉय।
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020
असल में तुम्हें देखकर दीवार फिल्म का एक सीन याद आता है जिसमें रवि विजय से कहता है कि भैया अब लौट आओ। विजय की यह लाइन तुम पर बिलकुल सही बैठती है कि " भाई अब मैं इतनी दूर चला आया हूँ कि वापस जाना मुमकिन नहीं है। " यह तो फिल्म का सीन है लेकिन यहां पर रवि तुम हो और विजय के तथाकथित अहसास में लिपटे हुए जो मेरे जैसों के लिए तुम्हारी एक खास समाज और सरकार के प्रति नफरत और उसकी पराजय का एक खुला दस्तावेज है जिसमे तुम नफरत करते करते इतनी दूर निकल आये हो कि अब यदि तुम लौटना भी चाहो तो मुमकिन नहीं होगा तुम्हारे लिए। क्योंकि अगर तुम अब लौट गए तो तुम्हारे लिए यह यकीन करना मुश्किल हो जाएगा कि तुम आज तक गलत थे।इसलिए तुमने जो पथ चुना है तुम्हारे व्यक्तित्व के साथ वही सूट करता है। अपने उस कलेवर से बाहर निकल मत जाना। क्योंकि जब तुम वहां से बाहर निकलोगे तो तुम्हारी स्थिति ज्यादा खराब होगी।
तुम तब मेरे लिए हैरानी का विषय बन जाते हो जब तुमने दिल्ली दंगों की रिपोर्टिंग करते हुए कहा था कि " फुरकान मारा गया , अंकित शर्मा की मृत्यु हो गई "। तुमको बैठे बैठे ही पता चल गया था कि फुरकान मारा गया था। यानि उसकी हत्या की गयी थी। और इसी तरह तुम्हें पता चल गया था कि अंकित शर्मा की मृत्यु हो गयी थी। कैसे हुई यह तुम्हें पता नहीं चला पर तुम्हारी बात से पता चलता था कि उसकी मृत्यु ही हुए है न कि हत्या , जैसे कोई डेंगू या हैज़ा आदि से मर जाता है या फिर किसी एक्सीडेंट में जिसमें क्लेम करने लायक कुछ नहीं होता।
दिल्ली दंगों में पुलिस पर रिवाल्वर तानने वाले का अनुराग नाम भी तुम तुरंत खोज लाये थे जैसे उसका आधार कार्ड तुम्ही ने बनाया होगा। पर वह तो अनुराग नहीं था। तुम्हारी चहेता रहा होगा सो तुम उसका नाम छिपाते फिर रहे थे । हैरानी होती है।
एक बात सुनो। जो पत्रकारिता तुमने की होगी उसके पाठ्यक्रम में तटस्थता निष्पक्षता जैसे शब्द जरूर गढ़े गए होंगे पत्रकारों के लिए और समझाया भी गया होगा कि पीत पत्रकारिता से क्या क्या नुकसान होते हैं। पर तुम जो पत्रकारिता करते हो उसके लिए तो कोई शब्द उस समय नहीं रचा गया होगा। लेकिन अब पत्रकारिता संस्थानों की जरूरत बन गए से लगते हो तुम। तुम्हारी पत्रकारिता को एक अलग दर्जा दिया जाना चाहिए और इस पर एक अलग चैप्टर लिखा जाना चाहिए और पढ़ाया जाना चाहिए। तुम्हारी पत्रकारिता के कुछ पहलुओं के कारण तुम एक ऐसी विषय वस्तु बन गए हो जो अध्ययन का विषय बन गयी है। उस वजह से तुम भी एक समस्यात्मक बालक की तरह हो गए हो जिसके अध्ययन की जरूरत होती है। तुम्हारे अध्ययन से यह चलेगा कि किस प्रकार से कोई व्यक्ति पत्रकारिता के वांग्मय से बाहर निकलकर पत्रकारिता की एक नयी परिभाषा लिख गढ़ देता है। हालाँकि तुम्हारी यह पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ तुम जैसे लोगों तक ही सीमित हो गयी है। मुझे पता है कि कितने ही चैनल हैं जो खबर दिखाते नहीं हैं बल्कि बनाते हैं और दिखाते हैं। उनके शो देखकर लगता है कि किसी धारावाहिक दिखाने वाले चैनल के सामने बैठे हैं। वो गलत हैं और इससे किसी को क्यों कर ऐतराज होगा कि वे गलत हैं। पर तुम और तुम्हारा क्या ?
खैर , पी एम के बाइस तारीख़ के घंटी थाल पर तुम क्या बोले मुझे पता है। जब इटली वाले यही घंटी और थाल बजा रहे थे तो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं थी। पर जब तुम्हारी धृणा के पात्र एक व्यक्ति ने एक समाज के हौसले को बढ़ाने के लिए यही कह दिया तो तुम्हारी समस्या बढ़ गयी। मुझे पता है कि तुम क्यों परेशां थे। तुम सोच रहे थे कि कैसे तुम्हारी घृणा के पात्र की बात पर देश ध्यान दे रहा है। तुम्हारा क्या होगा ? पांच अप्रैल की रात तो तुम गायब ही हो गए थे। उस रात जब तमाम चैनल आठ बजे से नौ बजे तक लोगों को दीपक जलाने के लिए प्रेरित कर रहे थे तब एक तुम्हारा यह हिंदी चैनल तुम्हारे अन्नदाता प्रणव राय के साथ इंग्लिश debat में व्यस्त था। हिंदी चैनल पर मैंने शायद ही पहले कोई debat इंग्लिश में देखी हो मुझे याद नहीं। क्यों किया तुम्हारे चैनल ने ऐसा ? यह बताने की जरूरत है क्या ? यह वह भाव है जो तुम्हारे लुटियंस गैंग के लोगों के मन में कूट कूट कर भरा है जिसमें वे इस सरकारी स्कूल से पढ़े लिखे और फर्राटेदार इंग्लिश से दूर पी एम को फूटी आँख भी बर्दास्त करने के मूड में नहीं हैं। वही उस पांच तारीख की रात को अंग्रेज बनकर तुम्हारे प्रणव राय साहब ने यही दिखाने की कोशिश की कि वे ज्यादा सोशल और हाइब्रिड श्रेणी के लोग हैं। खैर , फिर मजबूरन तुम्हारे चैनल ने वह दिए की खबर दिखाई।
अब जब हर कोई यह कह रहा है कि तुम्हारी घृणा का पात्र वह व्यक्ति पूरी तरह से इस कोरोना बीमारी से निपटने के लिए दिन रात एक कर रहा है तब तुमको सूझ नहीं रहा है कि किस प्रकार से तुम प्रशंसा के दो शब्द कह सको। आजकल समाचार पढ़ते हुए तुम्हारे चेहरे पर छाई मुर्दनी देखने लायक है जो इस भाव को प्रकट करती सी प्रतीत होती है कि अरे , यह बीमारी तीसरी स्टेज से पीछे क्यों है। मुझे पता है कि तुम्हारा गैंग सालों से इस आदमी को घेरने की कोशिश कर रहा है मगर हार रहा है। एक बात कहूँ , यह आदमी दबाव में ज्यादा बेहतर बैटिंग करता है। इसलिए इसकी शासन की बैटिंग में निरंतर निखार आ रहा है। तुम्हारे चेहरे के उड़े हुए तोते मुझे इस साफ़ होते आसमान में साफ़ दिखाई देते हैं। मैं नहीं कहता कि पत्रकार को पी एम या सरकार की प्रशंसा करनी चाहिए। उसका काम समीक्षा करना होता है। मगर समीक्षा में सरकार की सकारात्मकता को भी सामने रखा जाता है। मगर तुमसे यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हाँ , जहां वह गलत करेगा वहां तुम चुप रहोगे तो सवाल उठेंगे मगर सबको पता हैं कि इस समय क्या हालात हैं ऐसे में तुम अगर बेरोजगारी का रोना रोओगे तो कोई भी हंसेगा। स्वाभाविक है इस समय यदि तुम यह ढूढ़ते कि कहाँ भोजन नहीं पहुँच रहा है कहाँ क्या अव्यवस्था है आदि तो कोई भी सहमत होता मगर अब तुम क्या चाहते हो कि लॉक डाउन ख़त्म कर दें। तो थोड़ा सोचना कि मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त करके कहीं तुम पर नकारात्मकता ज्यादा हावी तो नहीं हो गयी है ? क्योंकि तुम्हारी एक दूसरी बहन अरुंधति राय जिसने खुद भी मैग्सेसे पुरस्कार पाया है और एन आर सी , एन पी आर के दौरान लोगों को रंगा और बिल्ला का ज्ञान दे रही थी , इसी नकारात्मकता की शिकार है जिससे यह तो तय हो गया है कि मैग्सेसे किस किस को मिल सकता है। और हाँ , थोड़ा तब्लीग़ियों के बारे में बोल दो। साद को कह दो कि कह दे लोगों से कि बाहर निकल आएं जहां जहां छिपे हैं। उन पर दया करो। जो थूक रहे हैं थोड़ा उनके पास भी चले जाओ और समझा आओ। तुम्हें तो ग्राऊंड पत्रकारिता का बहुत शौक है न। मेरी तो पसंद रहे हो तुम। मगर तुम्हारी नकारात्मकता बीमार कर देगी। छोड़ चुका था तुम पर सोचना कि कहीं तुम को देखते देखते खुद बीमार न हो जाऊं पर चार दिन पहले एक फेसबुक पोस्ट पर तुम्हारे बारे में लिखे एक लेख ने फिर से उजाला भर दिया कि तुम्हारे अँधेरे के बारे में लिखूं। बुढ़ापे तक तुम बीमार हो चुके होंगे चिंतन के स्तर पर। अभी तो ऐसा ही लगता है। अब फिर तुम पर सोचना होगा। वह ईश्वर वह राम तुम्हारी रक्षा करे जिसकी रामायण के प्रसारण पर तुम कुछ दिन पहले बिलबिला गए थे बे।
बुधवार, 25 मार्च 2020
बुधवार, 18 मार्च 2020
2019 आया और सरकार की पुनरावृति हुई। फिर कई बातें और हुईं। 370 , राम मंदिर और सी ए ए वगैरह। असम से शुरू हुआ आंदोलन up में तो दफ़न कर दिया गया और दिल्ली में भी जब लाठी चार्ज हुआ तो जिन्हें दर्द हुआ उन्होंने उनको ही आगे कर दिया जो उनके हिसाब से कम दिमाग थीं। मुझे कुछ दिन तक लगा वो दिल्ली चुनाव तक हैं मगर फिर याद आया pm का वह वाक्य जिसमे उन्होंने कहा था - शाहीन बाग़ एक प्रयोग है संयोग नहीं। अब समझ आ गया है। कोरोना फ़ैल रहा है और वो अल्लाह का सहारा लिए बैठी हैं। कुछ हो गया तो सरकार है गाली देने के लिए। दूसरी कहती है - हमारे आंदोलन को कुचलने के लिए अफवाह फैलाई जा रही है। तीसरी कहती है - मोदी विदेश घूम कर आये हैं और वहाँ से कोरोना लाये हैं। कोई कहता है - मोदी को कोरोना हो जाए। ईरान से लोग लाये जा रहे हैं और सभी एक ही वर्ग के है। धर्म से भी और मानसिकता से भी। कोई प्रधानमंत्री को धन्यवाद देने को तैयार नहीं। हाँ ,देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी एक ऐसी पोस्ट जारी करते हैं जिसमे ब्राज़ील के प्राइम मिनिस्टर मोदी जी से हाथ मिला रहे हैं और उसमे टिपण्णी की जाती है कि ब्राज़ील के प्राइम मिनिस्टर अपना कोरोना चेक करवाते हुए कि वे पॉजिटिव हैं। और फिर कुरैशी उस पर माफ़ी मांग लेते हैं। मुझे याद है देश के पूर्व राष्ट्रपति हामिद अंसारी जिन्होंने रिटायरमेंट के अगले दिन ही कह दिया था कि इस देश में मुसलमान सुरक्षित नहीं है। मगर यही लोग हैं जो सी ए ए पर इस जिद के साथ धरने पर हैं कि पाकिस्तान के मुस्लिम्स को भी लाया जाए। दिलचस्प है।
क्या ये कम दिमाग हैं। नहीं , ये चालबाज हैं , चालक हैं।