कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी उसकी जिसने उनका हक़ मारा होगा। कौन चाहता है अपने बच्चों को भूखा मारना। अपने बच्चों को पैदल , नंगे पैर घसीटवाना। कौन पिता या माँ चाहेगी कि उसकी संतानें फटे मैले कुचैले गंदले कपड़ों में अपनी जिंदगी यातना शिविर में रहने की तरह बिता दे। कौन चाहता है कि पटरी पर सोकर किसी ट्रेन के नीचे आकर अपनी जिंदगी उस व्यवस्था को दे दे जो उसे न तो पहुंचा पायी और न सही से रोक ही पायी। रेलवे स्टेशन पर मरी अपनी माँ को जिन्दा समझ उसको सँभालते नन्हों को क्या पता कि वे जो उम्मीदें पाले है वो उसी व्यवस्था की भेंट चढ़ चुकी हैं जो उन्हें या तो रहने देती है और न चलने देती है और जब उन्हें ले जाती हैं तो कहीं का कहीं पंहुचा देती है।
मगर दोष उनका कैसे हो जिन्होंने उसकी यह हालत बनायी। उनके भी तो अपने बच्चे हैं। क्या वे अपने बच्चों की चिंता करना छोड़ देते। आखिर कैसे कोई माँ बाप अपने बच्चों की चिंता करना छोड़ दे। हमारे यहां माँ बाप का जो लगाव अपने बच्चों के साथ होता है वह कोई किसी से छिपा है क्या ? तो सब अपने अपने बच्चों का भविष्य ही तो संवार रहे हैं। सेवा करनी होती तो राजनीति में क्यों आते ?
मगर दोष उनका कैसे हो जिन्होंने उसकी यह हालत बनायी। उनके भी तो अपने बच्चे हैं। क्या वे अपने बच्चों की चिंता करना छोड़ देते। आखिर कैसे कोई माँ बाप अपने बच्चों की चिंता करना छोड़ दे। हमारे यहां माँ बाप का जो लगाव अपने बच्चों के साथ होता है वह कोई किसी से छिपा है क्या ? तो सब अपने अपने बच्चों का भविष्य ही तो संवार रहे हैं। सेवा करनी होती तो राजनीति में क्यों आते ?
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