रविवार, 31 मई 2020

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी उसकी जिसने उनका हक़ मारा होगा। कौन चाहता है अपने बच्चों को भूखा मारना। अपने बच्चों को पैदल , नंगे पैर घसीटवाना। कौन पिता या माँ चाहेगी कि उसकी संतानें फटे मैले कुचैले गंदले कपड़ों में अपनी जिंदगी यातना शिविर में रहने की तरह बिता दे। कौन चाहता है कि पटरी पर सोकर किसी ट्रेन के  नीचे आकर अपनी जिंदगी उस व्यवस्था को दे दे जो उसे न तो पहुंचा पायी और न सही से रोक ही पायी। रेलवे स्टेशन पर मरी अपनी माँ को जिन्दा समझ उसको सँभालते नन्हों को क्या पता कि वे जो उम्मीदें पाले  है वो उसी व्यवस्था की भेंट चढ़ चुकी हैं जो उन्हें या तो रहने देती है और न चलने देती है और जब उन्हें ले जाती हैं तो कहीं का कहीं पंहुचा देती है। 
मगर दोष उनका कैसे हो जिन्होंने उसकी यह हालत बनायी। उनके भी तो अपने बच्चे हैं। क्या वे अपने बच्चों की चिंता करना छोड़ देते। आखिर कैसे कोई माँ बाप अपने बच्चों की चिंता करना छोड़ दे। हमारे यहां माँ बाप का जो लगाव अपने बच्चों के साथ होता है वह कोई किसी से छिपा है क्या ? तो सब अपने अपने बच्चों का भविष्य ही तो संवार रहे हैं। सेवा करनी होती तो राजनीति  में क्यों आते ?

शनिवार, 30 मई 2020

यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा - सबसे बड़ा सुख क्या है ? धर्मराज का जवाब था - संतोष। आज लगता है सही ही था। जब चाइना के वुहान में कोरोना था तो संतोष था कि चलो हम तो बच ही गए। चाइना में है। मज़ाक भी बनाया  गया चीन और चीनियों का। फिर इटली में कोरोना ,स्पेन में कोरोना आया और एक दिन एक केस अपने यहां भी। फिर भी संतोष कि एक ही है। ज्यादा तो नहीं है। फिर  केस बढे और मास्क का शुरूआती दौर शुरू हुआ और फिर दस बीस तीस पचास सौ और फिर घंटी घंटे शंख तालियां। बजाते समय संतोष  था कि उन बीमारों में हम तो नहीं हैं। जनता कर्फ्यू। संतोष हुआ कि देश में कोई तो है जिसकी एक आवाज पर देश में कर्फ्यू लग गया। फिर लॉक  डाउन। और लगा कि अब तो हमने मैदान मार लिया। 21 साल पीछे जाने से बच जाएंगे। फिर थोड़ी घबराहट और गुस्से में तब्लीगी जमात का प्रकरण। संतोष हुआ कि  पकडे तो गए।  और फिर दो सौ , पांच सौ और हज़ार।
अचानक हमने पाकिस्तान को देखना शुरू किया तो संतोष हुआ कि हमारे यहां उनके यहां से ज्यादा बेहतर व्यवस्थाएं हैं। वहाँ तो एकांतवास में मरीजों के साथ बहुत बुरा हो रहा था। वहाँ का बुरा हाल देखकर संतोष हुआ। फिर हम देखते रहे अपने यहाँ की बढ़ती संख्या और देखते रहे अन्य देशो की तरफ और हे भगवान , हे भगवन कहकर संतोष करते रहे। अमेरिका को देखकर तो बेहद संतोष होता रहा कि देखो , दुनियां का सबसे ताकतवर देश किस तरह लंगड़ा गया है। कराह रहा है। हमारे यहाँ तो संभला हुआ है। अन्य विकसित देशों में अब तक इंग्लैंड , जर्मनी , जापान , फ्रांस सभी शामिल होते गए हमारे लिए संतोष की बात रही कि इतनी विकसित व्यवस्थाओं वाले देश कितनी बुरी हालत में हैं। हमें यह भी संतोष रहा कि हमारे पास संतोष के लिए मोदी जी हैं , संभाल लेंगे। मोदी है तो मुमकिन है। हम आदतन हो गए हैं यह सुनने और कहने के।
संतोष बहुत बड़ी चीज है। अन्य राज्यों में बढ़ते केस और अपने उत्तराखंड में कम  केस। संतोष रहा। फिर अन्य देशों में जिस तरह से केस बढे वह संतोष देता रहा कि हम पीछे हैं केस में। बीच बीच में हमको पाकिस्तान ने बड़ा संतोष दिया।
हमें संतोष रहा कि हमारे यहां रिकवरी रेट बढ़िया है। मृत्यु दर कम है। हमारी तो आबादी बहुत ज्यादा है। केस कम  हैं। टेस्टिंग कम थी संतोष हो गया कि टेस्टिंग ज्यादा हो गयी  है। हमने कई बार संतोष से खुद को मनाया है।
फिर हम दस हज़ार से आगे बढ़ गए। बीस तीस पचास हज़ार और फिर एक लाख। और अब दो लाख के करीब। हमारे यहां भी उत्तराखंड में अब केस बढे। संतोष है कि अभी हज़ार नहीं हुए।
क्या हम स्पेन , इटली वगैरह से भी आगे निकलेंगे ? तब ? हमारे पास संतोष का एक कारण होगा कि अमेरिका तो हमसे आगे है। और ईश्वर ने करे यदि हम अमेरिका से भी आगे निकल गए तो ? हमें संतोष होगा कि अमेरिका की तो आबादी बहुत है और वहाँ बढ़िया ट्रीटमेंट के बावजूद बुरा हाल है। हम तो एक सौ पैंतीस करोड़ हैं।
तो संतोष के बहाने तलाशिये। और सुखी रहिये वरना  हालात  तो नींद उड़ाने वाले हैं। अपनी चिंता है तो खुद को खुद सम्भालिये और सोशल डिस्टन्सिंग बनाइये और साधारण जीवन बिताइए।  कुछ दिन अनावश्यक खर्च खरीददारी से बचिए। वरना  फिर संतोष से ही काम चलाना पड़ेगा। क्या चाहिए ?
संतोषमेव पुरुषस्य परं निधानं ।
क्या चाहिए - संतोष या सावधानी ? 

शुक्रवार, 29 मई 2020

तो केस तो बढ़  रहें हैं। बढ़ते न तो क्या होता ? होता क्या ? सब ठीक हो जाता।  कैसे ? यदि मोदी जी ने पहले ही लोगों को उनके घर पहुंचा दिया होता। इतना इन्तजार न किया होता। राज्यों को भी भेजने की परमिशन दी होती। लोग घरों में होते। धारावी जैसी जगहों पर इतनी भीड़ न लगती। दिल्ली में कश्मीरी गेट पर इतना जमावड़ा न लगता। कोरोना न फैलता। सिर्फ उतना ही फैलता जितना तब्लीगी फैलाते। डिस्टेंस क्योर के जरिये हम सफल हो जाते। क्या अब  डिस्टेंस क्योर हो रहा है ? 
राज्यों से पूछ लिया। राज्य भी डरे हुए थे।  क्या करते। जैसा सरकार ने कहा उसी पर चलते रहे। कोई कैसे खिलाफ जाता। कोरोना मौत की तरह सामने था। चुनाव कौन हारना चाहता है भला। तो किसी एक के कहे पर चल लो। अच्छा रहेगा। तो वही किया और आज सोशल डिस्टन्सिंग की धज्जियाँ उड़ रही हैं। खैर। अब लोग आ रहे हैं और कोरोना फैला रहे हैं। वैसे ये जहां भी होते। कोरोना तो फैलाते ही। राष्ट्रीय स्तर पर गिनती तो बढ़ती ही। डराती तो यह तब भी।  पर अब हम सबके राज्य में भी बढ़ा रही है। 
क्या होता यदि  शुरू में ही सबको उनके घर पहुंचा दिया होता और कोरोना फैलने से रुक गया होता। लोग क्या कहते ? यही न कि अरे लॉक डाउन किया था तो वहीँ रोकना था। बेकार में सबको परेशां कर दिया। इतना खर्च करवाया। अनुभवहीनता। कुछ दिन लोग जहाँ थे वहीँ रुक जाते। 
क्या होता यदि लोगों को उनके घर पहुंचा दिया होता और तब कोरोना फ़ैल जाता। लोग क्या कहते ? यही न कि  अरे अगर लोगों को लॉक डाउन में वही रोक दिया होता तब यह इतना थोड़े ही फैलता। अनुभवहीनता है। सारे में फैला दिया। सरकार से जवाब नहीं बनता। सरकार को जवाब देना भारी पड़  जाता साहब। 
तो , सरकार ने साफ़ सुथरा काम किया। लॉक डाउन की विश्वनीति पर सरकार चली। विपक्ष इसी में उलझा रहा। लॉक डाउन होना चाहिए। गलत हुआ। क्यों नहीं हुआ। देर से हुआ। जल्दी हुआ। 
पर सरकार ने जो हो सकता था किया। यही एक उपाय था। यदि लोगों ने दूरी  नहीं बनायी तो उन्हें सोचना चाहिए।  सरकार खुद हाथ पकड़कर लोगों को एक दूसरे  तो नहीं करेगी। आँख कान बुद्धि आदि इसी लिए तो दिए हैं। दर्द सिर्फ एक है , सरकार के पास कुल आंकड़े नहीं थे कि कितने लोग कहाँ से कहाँ जाने हैं। जिस देश में लोक सभा इलेक्शन युद्ध स्तर पर होता है वहाँ इन्हें भी युद्ध स्तर पर घर पहुंचाने की नीति बन जानी चाहिए थी और तंत्र एक सुव्यवस्थित तरीके से इस काम को अंजाम दे पाता। मगर राजनीति  ने यह भी नहीं करने दिया। राज्य सरकारों की राजनीति। अपने अपने स्वार्थ आड़े आ गए।  ममता दीदी से लेकर उद्धव ठाकरे साहब। जिनके शेर की लगाम कांग्रेस के हाथों है और पूंछ सीढ़ी करने का प्रयास कर रहे हैं शरद पवार साहब। कार्टून तो यही बता रहे हैं। 
तो अब क्या होगा  ? जब लोग गाँव पहुँच जाएंगे।  ये कोरोना फैलाएंगे ? मन कहता है वहाँ से तो कम फैलाएंगे जितना वहाँ फैला देते जहाँ एक एक कमरे के मकान में बंद थे और दस दस बीस बीस रह रहे थे।  अभी तो ये ला रहे हैं। स्वाभाविक है , अब गाँव में रहेंगे। अपने घर के पास रहेंगे। भले ही अभी संख्या बढ़ रही है। नए प्रभावित क्षेत्रों  की संख्या बढ़ रही है। पर सोशल डिस्टन्सिंग गाँव में भी तो स्वाभाविक हो सकती है। क्यों नहीं। गाँव में स्थान ज्यादा होता है। उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार की और हम सबकी मुसीबत कुछ दिन और बढ़ने के बाद शायद कुछ कम होगी। 

बुधवार, 27 मई 2020

गरीब की जोरू सबकी घरवाली। सुना है न। तो एक गरीब की जोरू उत्तराखंड में भी है। जब से ब्याही है तब से ही लोगों की डांट खा रही है। असल में जब यह गरीब जोरू ब्याही थी और ससुराल आयी  थी तब पडोसी के यहां भी एक जोरू ब्याही थी । पडोसी की जोरू दबंग थी। जो कहती सब पीछे लग लेते। कोई चूं तक न करता। लगता कि कोई आयी है। अब दिक्कत उतनी गरीब की जोरू से नहीं थी जितनी उस पड़ोस की जोरू की दबंगई और हुनर हिम्मत से थी क्योंकि यहाँ से तुलनात्मक शास्त्र काम आने लगा। दोनों की तुलना होने लगी। असल में गरीब की जोरू के पीछे पड़ गए सास ससुर देवर ननद ननदोई देवरानी। सब पीछू  ही पड़  गए। पीछू पड़े हैं मेरे पीछू पड़े हैं। मन मन में गुनगुनाती तो थी पर कुछ कह नहीं पाती  थी। असल में उस गरीब की जोरू को तो इस घर में आने की उम्मीद भी नहीं थी। वह तो इसे भी अपना भाग्य मानती थी। और बहुत सी लड़कियां थी जो इस घर की चाबी संभल सकती थी। मगर बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद भी तो मायने रखता है सो आ गयी इस घर में। पड़ोस के यहां जो जोरू आयी थी उसे तो बड़े बुजुर्ग भी नहीं चाह रहे थे। समझते थे कि वह बहुत तेज है। तेज तो वह थी ही।  पर जब उन बुजुर्गों ने पड़ोस की जोरू के बारे में ना नुकर की थी तो दोनों बुजुर्ग जिस स्कूल से पढ़े थे वहाँ के हेड मास्टर जी ने अड़ंगा लगा दिया था। कहा था बहू आएगी तो यही। धमकी सी  हो गयी थी। दोनों बुजुर्ग सकपका गए थे। चुपचाप हामी भर ली। आखिर स्कूल के हेड मास्टर जी ने ही तो दोनों को डिग्रियां दी थी। बात कैसे न मानते। खैर।
अब जब भी पड़ोस की जोरू कुछ अच्छा करती तो गरीब की जोरू के ससुराली पडोसी सब कहने लगते - देखा , ऐसे होता है काम। ऐसे करते हैं काम। उस पड़ोसन को देखो। पड़ोस की जोरू को। कैसे धड़ाधड़ काम किये जा रही है। कोई खौफ नहीं। और एक यह है। गाय चरा  रही होती कहीं। बन गयी जोरू। अब गरीब जोरू क्या करे। कुछ न बोल पाती।  कुछ खा कर मोटी  हुई तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया - खा खा कर मोटा रही है।  करती तो कुछ हैं नहीं।  तीन साल हो गए।  एक बच्चा न जना  गया इससे।  सोचती है जिन्होनें ब्याहा है वही बच्चा भी जनेंगे। कुछ तो खुद कर ले। उन्हीं  के भरोसे बैठी रहती है। अब गरीब जोरू कहे भी तो क्या कहे।  ऐसा नहीं है कि गरीब जोरू कुछ करती नहीं थी। करती थी। झाड़ू पोंछा बर्तन भांडे सब करती थी। पर जब पड़ोस की जोरू बहुत बढ़िया कर रही हो तो अपनी जैसा भी करे खराब ही लगता है। बेचारी सुन सुन कर इतना परेशां हो गयी कि उसकी गरीबी की छाया ने उसका पीछा ही नहीं छोड़ा। वह जब भी बोलती ऐसा लगता बकवास कर रही है। गरीब तो गरीब होता है। कोरोना काल में  गरीब क्या होता है इसकी बानगी हर तरफ है।
एक बार एक आपदा आयी। सब तरफ हाहाकार मचा था। गरीब की जोरू की किस्मत चमकती सी लग रही थी। उसके घर में बीमार काम पड़  रहे थे। सो वह खुश थी। फिर भी पड़ोसियों और ससुरालियों को चैन न था।  क्योंकि पड़ोस की जोरू के यहां भी बीमार हुए और बहुत ज्यादा बीमार हुए।  वह उसी दबंग अंदाज से उनका इलाज करा रही थी। पर गरीब की जोरू के परिवार में तो लोग ही बहुत कम  थे। थे भी तो सीधे साधे। बीमार कम  थे तब भी लोग कहते - पड़ोस की जोरू को देखो , उसके यहां कितने बीमार पड़  गए पर हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। कैसे सबको निपटा रही है। सबका इलाज करवा रही है। मान गए भाई। अरे अगर इसको इतनी बीमारी झेलनी पड़ती तो पता चल जाता। किस्मत अच्छी है। बेचारी गरीब जोरू सुनती रहती।
गरीब की जोरू के बहुत से रिश्तेदार उसकी गरीबी देखकर बहुत पहले ही उससे दूर चले गए थे। जहां जहां वे गए थे वहाँ भी आपदा आयी थी। ज्यादा आयी थी। उन्हें पता चला कि गरीब की जोरू के यहां तो बहुत कम  बीमार हैं।  चलो वापस चलते हैं। उन्होंने आना शुरू किया। दोनों बुजुर्गों ने सलाह मश्विरा करके भेज दिया था।और जैसे जैसे वे आते गए। गरीब की जोरू के यहां भी लाइन लगती चली गयी बीमारों की। अब ससुरालियों ने हुड़दंग मचा दिया। फिर कहना शुरू किया - देखो , बुला लिया। लुटवा दिया। अक्ल तो है नहीं। बीमारियां फैला रही है। लोग तो पडोसी जोरू के यहाँ भी आ रहे थे। पर उसके जलवे ही कुछ और थे।
इन दोनों जोरुओं से दूर भी एक जोरू थी कहीं। समुद्र के किनारे उसका आशियाना था। उसकी दो सौतन भी थीं और उसके यहां आपदा ने अपना रुतबा बढ़िया ढंग से बरकरार रखा था। सौतनों ने नाक में दम  कर रखा था। इस समंदर किनारे वाली जोरू के पास पैसा बहुत था। पर बांटना पड़  रहा था सौतनों को। उनके नखरे अलग। उसको देखकर दया आती थी। वह भी जब भी बोलती थी उस पर मंडराता उसकी सौतनों का साया स्पष्ट रूप से दिखाई  देता था। पर गरीब जोरू तो घर  में पूरा समर्थन होने पर भी ऐसी लगती जैसे उसका संसार लुट गया हो।  फिर सोचा। ऐसा क्यों।  काम तो कर ही रही है। तो इस पर फिर जब भी मैं अन्य जोरुओं को देखता तो सोचता  - समरथ को नहीं दोष गोसाईं। जो समर्थ है उसके दोष नहीं देखे जाते। तुलसी जी कह गए थे। तुलसी जी। वही तुलसी जी जो अपनी जोरू से मिलने सांप को रस्सी समझकर खिड़की चढ़ गए थे।
बेचारी गरीब जोरू। अब ओखली में सर दिया तो मूसल  से क्या डरना।

बुधवार, 20 मई 2020

टीवी देखना भारी सा हो गया है।  वह तोड़ती पत्थर।  मैंने देखा उसे इलाहबाद के पथ पर। वह तोड़ती पत्थर।  ये पंक्तियाँ आज भी उसी तरह से सार्थक होती है जैसी तब जब एक लम्हा बीते ये मेरे पढ़ने में आयी थीं। वह तोड़ती पत्थर। आज कवि  होते।  क्या क्या लिखते ? वह खींचता रिक्शा। धक्का लगाता रिक्शा। धूप के ताप में तपता रिक्शा। उसका परिवार।  बच्चे। वह धक्का लगाती। कहीं रिक्शे पर पीछे बैठी। धूप से बचने को। सर पर पल्लू डाले। मीडिया वालों से बतियाती। बच्चों को सीने से लगाए। ऐसे में कोई क्या लिखे।
1947 नहीं देखा। कैसा रहा होगा वह पलायन। विभाजन का डर। खौफ में पलायन करते लोग। बैलगाड़ी में।  पैदल। भीड़ की भीड़। खुशवंत सिंह का train to pakistan  पढा। कैसे ट्रैन लाशों से भरी आतीं थीं। राजनीति तब भी हुई थी। आज जैसी नहीं। वह राजनीति कहने को एक समाधान दे गयी थी। मगर आज जो है वह राजनीति के तालाब का सड़ा  हुआ पानी है।
वह देश का निर्माता है। कहते तो यही हैं सब। बिन चप्पल। नंगे पैर। पटरी पर सो जाता और रोटियां पटरियों पर छोड़ जाता। कहीं गाड़ी के पलट जाने से समूह का हिस्सा बन निपट जाता। जब आम दिनों में  रोज मरने वाले 408 लोगों का यह क्रम लॉक डाउन में रुका तो इसको लॉक डाउन में भी जारी रखने में भी उसने ही सबसे पहले भूमिका निभाई। सबसे पहले उसके ही चले जाने की ख़बरों ने सुर्खियां बटोरीं। कहने को वह नींव का पत्थर है। महल , हवेलियां बनाता है मगर सिर्फ बनाता है खुद यही धक्के खाने के लिए। इतना बड़ा देश।  इतनी सशक्त सरकारें।  दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र।  मगर सड़क पर चलते ये मजदूर इस भ्रम को दूर कर देते हैं कि हम कोई ताकतवर देश हैं। लाइन के आखिर में खड़ा आदमी आज भी वहीँ है। आखिर में। कहने को अंत्योदय योजना चला लो। गाँधी के आखिरी आदमी के  विकास से जुड़े सिद्धांत को नाटक बनाकर आजमा लो मगर वह वहीँ है जहां हमारी राजनीति  उसे रखना चाहती है। सूटकेस पर लटका बच्चा। फूले हुए पाँव। फटी पड़ी बिवाइयां। हो सकता है , कहीं कहीं फोटो फेसबुक के तिलिस्मी झूठ से हमारा शिकार कर रही हों मगर सब झूठ तो नहीं होता। कहने को दुनियां का सबसे बड़ा नेटवर्क। मगर जो आपदा में काम न आया वह किस काम का ? ऐसा नहीं है कि  लोग रेल से आ नहीं रहे हैं। पर करोड़ों शरीरों वाले इस देश में चल अकेला चल अकेला की तर्ज पर चलते ये मजदूर डराते हैं कि आराम पसंदगी के शिकार कभी हम जैसों की यह नौबत आ गयी तो ? वे तो  तपते लोग हैं चलते जा रहे हैं और हम ? जीवन भर उस ताप से खुद को बचाने की जद्दोजहद में लगे। कभी सामना करना पड़  जाए तो ? दो चार किलोमीटर तो व्हाट्सप्प या फेसबुक देखते देखते निकल जाएंगे मगर जब पैरों का पेअर थकने लगेगा तब ? तब भी।  थोड़ी देर।  whatsapp  या फेसबुक या यूट्यूब से  गुजारा करना पड़ेगा।  मगर नेटवर्क नहीं रहा तो ? और पैकेज ख़त्म तो ?
वह भूख से मर गया था। चार दिन से चल रहा था।  यकीं नहीं होता कि  किसी ने उसे खाना नहीं दिया होगा या उसने माँगा नहीं होगा या उसे भरोसा नहीं हुआ कि कोई खाना देगा भी या नहीं। जीवन के अनुभव से उसने कुछ तो सीखा होगा। ऐसा कैसे हुआ होगा कि चार दिन से कोई गाँव ही उसके रास्ते में नहीं आया होगा या वह किसी गांव से गुजरा नहीं होगा।  भारत तो गांवों का देश है।  ऐसा कैसे हुआ होगा कि  सब गाँव के लोग ऐसे ही रहे होंगे। बीमार न हो जाएँ , इस डर ने क्या लोगों को उसके करीब नहीं आने दिया होगा। क्या वह पटरियों से गया होगा।  बस्तियां तो हर तरफ हैं। हाईवे पर , पटरियों के किनारे।  फिर भी वह भूखा मर गया। शहर में भूखा मरा होता तो समझ आता। याद है। किसने ये कहा था। सांप , तुम तो शहर में बड़े नहीं हुए , तुमने तो शहर नहीं देखा फिर यह बताओ ,तुमने डसना कहाँ से सीखा ? मगर क्या गांव भी शहर हो गए थे ? एक समय का भोजन छोड़ देने से जिस देश में पैसठ करोड़ थाली बच जाएँ वहाँ कोई यूँ भूख से मर जाए तो कोई क्या कहे ?
जब वुहान  को देखा था नहीं सोचा था कि अपने यहां यह होगा। पत्थर तोड़ने वाली  वह साईकिल पर , रिक्शे पर , ऑटो पर या बैलगाड़ी पर या फिर एक तरफ बैल और दूसरी तरफ बैल न होने से खुद लगकर गाड़ी ढोहता या ढोहती । समझ नहीं आ रहा क्या लिखूं और क्या न लिखूं। रुकता हूँ। यह कीपैड चलने से मना कर रहा है। उनके चलने में और इसके चलने में कितना फर्क है। यह चार पांच अँगुलियों का दबाव झेलता और वह जिंदगी का दबाव ढोकर  चलते। अलविदा। फिर कभी। वह तोड़ती पत्थर।