बुधवार, 27 मई 2020

गरीब की जोरू सबकी घरवाली। सुना है न। तो एक गरीब की जोरू उत्तराखंड में भी है। जब से ब्याही है तब से ही लोगों की डांट खा रही है। असल में जब यह गरीब जोरू ब्याही थी और ससुराल आयी  थी तब पडोसी के यहां भी एक जोरू ब्याही थी । पडोसी की जोरू दबंग थी। जो कहती सब पीछे लग लेते। कोई चूं तक न करता। लगता कि कोई आयी है। अब दिक्कत उतनी गरीब की जोरू से नहीं थी जितनी उस पड़ोस की जोरू की दबंगई और हुनर हिम्मत से थी क्योंकि यहाँ से तुलनात्मक शास्त्र काम आने लगा। दोनों की तुलना होने लगी। असल में गरीब की जोरू के पीछे पड़ गए सास ससुर देवर ननद ननदोई देवरानी। सब पीछू  ही पड़  गए। पीछू पड़े हैं मेरे पीछू पड़े हैं। मन मन में गुनगुनाती तो थी पर कुछ कह नहीं पाती  थी। असल में उस गरीब की जोरू को तो इस घर में आने की उम्मीद भी नहीं थी। वह तो इसे भी अपना भाग्य मानती थी। और बहुत सी लड़कियां थी जो इस घर की चाबी संभल सकती थी। मगर बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद भी तो मायने रखता है सो आ गयी इस घर में। पड़ोस के यहां जो जोरू आयी थी उसे तो बड़े बुजुर्ग भी नहीं चाह रहे थे। समझते थे कि वह बहुत तेज है। तेज तो वह थी ही।  पर जब उन बुजुर्गों ने पड़ोस की जोरू के बारे में ना नुकर की थी तो दोनों बुजुर्ग जिस स्कूल से पढ़े थे वहाँ के हेड मास्टर जी ने अड़ंगा लगा दिया था। कहा था बहू आएगी तो यही। धमकी सी  हो गयी थी। दोनों बुजुर्ग सकपका गए थे। चुपचाप हामी भर ली। आखिर स्कूल के हेड मास्टर जी ने ही तो दोनों को डिग्रियां दी थी। बात कैसे न मानते। खैर।
अब जब भी पड़ोस की जोरू कुछ अच्छा करती तो गरीब की जोरू के ससुराली पडोसी सब कहने लगते - देखा , ऐसे होता है काम। ऐसे करते हैं काम। उस पड़ोसन को देखो। पड़ोस की जोरू को। कैसे धड़ाधड़ काम किये जा रही है। कोई खौफ नहीं। और एक यह है। गाय चरा  रही होती कहीं। बन गयी जोरू। अब गरीब जोरू क्या करे। कुछ न बोल पाती।  कुछ खा कर मोटी  हुई तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया - खा खा कर मोटा रही है।  करती तो कुछ हैं नहीं।  तीन साल हो गए।  एक बच्चा न जना  गया इससे।  सोचती है जिन्होनें ब्याहा है वही बच्चा भी जनेंगे। कुछ तो खुद कर ले। उन्हीं  के भरोसे बैठी रहती है। अब गरीब जोरू कहे भी तो क्या कहे।  ऐसा नहीं है कि गरीब जोरू कुछ करती नहीं थी। करती थी। झाड़ू पोंछा बर्तन भांडे सब करती थी। पर जब पड़ोस की जोरू बहुत बढ़िया कर रही हो तो अपनी जैसा भी करे खराब ही लगता है। बेचारी सुन सुन कर इतना परेशां हो गयी कि उसकी गरीबी की छाया ने उसका पीछा ही नहीं छोड़ा। वह जब भी बोलती ऐसा लगता बकवास कर रही है। गरीब तो गरीब होता है। कोरोना काल में  गरीब क्या होता है इसकी बानगी हर तरफ है।
एक बार एक आपदा आयी। सब तरफ हाहाकार मचा था। गरीब की जोरू की किस्मत चमकती सी लग रही थी। उसके घर में बीमार काम पड़  रहे थे। सो वह खुश थी। फिर भी पड़ोसियों और ससुरालियों को चैन न था।  क्योंकि पड़ोस की जोरू के यहां भी बीमार हुए और बहुत ज्यादा बीमार हुए।  वह उसी दबंग अंदाज से उनका इलाज करा रही थी। पर गरीब की जोरू के परिवार में तो लोग ही बहुत कम  थे। थे भी तो सीधे साधे। बीमार कम  थे तब भी लोग कहते - पड़ोस की जोरू को देखो , उसके यहां कितने बीमार पड़  गए पर हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। कैसे सबको निपटा रही है। सबका इलाज करवा रही है। मान गए भाई। अरे अगर इसको इतनी बीमारी झेलनी पड़ती तो पता चल जाता। किस्मत अच्छी है। बेचारी गरीब जोरू सुनती रहती।
गरीब की जोरू के बहुत से रिश्तेदार उसकी गरीबी देखकर बहुत पहले ही उससे दूर चले गए थे। जहां जहां वे गए थे वहाँ भी आपदा आयी थी। ज्यादा आयी थी। उन्हें पता चला कि गरीब की जोरू के यहां तो बहुत कम  बीमार हैं।  चलो वापस चलते हैं। उन्होंने आना शुरू किया। दोनों बुजुर्गों ने सलाह मश्विरा करके भेज दिया था।और जैसे जैसे वे आते गए। गरीब की जोरू के यहां भी लाइन लगती चली गयी बीमारों की। अब ससुरालियों ने हुड़दंग मचा दिया। फिर कहना शुरू किया - देखो , बुला लिया। लुटवा दिया। अक्ल तो है नहीं। बीमारियां फैला रही है। लोग तो पडोसी जोरू के यहाँ भी आ रहे थे। पर उसके जलवे ही कुछ और थे।
इन दोनों जोरुओं से दूर भी एक जोरू थी कहीं। समुद्र के किनारे उसका आशियाना था। उसकी दो सौतन भी थीं और उसके यहां आपदा ने अपना रुतबा बढ़िया ढंग से बरकरार रखा था। सौतनों ने नाक में दम  कर रखा था। इस समंदर किनारे वाली जोरू के पास पैसा बहुत था। पर बांटना पड़  रहा था सौतनों को। उनके नखरे अलग। उसको देखकर दया आती थी। वह भी जब भी बोलती थी उस पर मंडराता उसकी सौतनों का साया स्पष्ट रूप से दिखाई  देता था। पर गरीब जोरू तो घर  में पूरा समर्थन होने पर भी ऐसी लगती जैसे उसका संसार लुट गया हो।  फिर सोचा। ऐसा क्यों।  काम तो कर ही रही है। तो इस पर फिर जब भी मैं अन्य जोरुओं को देखता तो सोचता  - समरथ को नहीं दोष गोसाईं। जो समर्थ है उसके दोष नहीं देखे जाते। तुलसी जी कह गए थे। तुलसी जी। वही तुलसी जी जो अपनी जोरू से मिलने सांप को रस्सी समझकर खिड़की चढ़ गए थे।
बेचारी गरीब जोरू। अब ओखली में सर दिया तो मूसल  से क्या डरना।

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