शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

प्रिय रवीश ! कैसे हो।  आशा है , ठीक होगे। वैसे तो तुम मेरे घर के उस डिब्बे में रोज आते हो रात नौ बजे।  पर मैंने उस डिब्बे में तुम्हारे घर की तरफ झांकना बंद कर दिया था। तुम्हारा घर अक्सर मुझे तब तो विशेषकर बंद गली का आखिरी मकान लगता है जब तुम अपनी मुर्दा आँखों के साथ उस पर अपना घृणा पुराण बांचते रहते हो।  एक दिन एक फेस बुक पोस्ट पढ़ी थी तुम्हारे बारे में जिसे मैंने शेयर भी किया तो सोचा लिखूं। आज एक और  फेसबुक पोस्ट पढ़ी जिसमे मजाक किया गया था कि  जिन लोगों ने तुम्हारी बातों में आकर जन धन खाता नहीं खुलवाया था वे आज रो रहे हैं। पर फेसबुक तो सोशल  मीडिया है उस पर क्या यकीन करना। जब तुम्हारी ख़बरों पर यकीन करने की आदत छूट रही है तो सोशल मीडिया की क्या औकात। खैर , मैं  उनमें से नहीं जो तुम्हें रेबीज कुमार कहें। मेरे लिए तो तुम रवीश  ही हो। रेबीज तो कुत्ते को होता है।  तुम मेरी नजर में इंसान हो।
असल में तुम्हें देखकर दीवार फिल्म का एक सीन याद आता है जिसमें रवि विजय से कहता है कि भैया अब लौट आओ। विजय की यह लाइन तुम पर बिलकुल सही बैठती है कि " भाई अब मैं इतनी दूर चला आया हूँ कि  वापस जाना मुमकिन नहीं है। " यह तो फिल्म का सीन है लेकिन यहां पर रवि तुम हो और विजय के तथाकथित अहसास में लिपटे हुए जो मेरे जैसों के लिए तुम्हारी एक खास समाज और सरकार के प्रति नफरत और उसकी पराजय का एक खुला दस्तावेज है  जिसमे तुम नफरत करते करते इतनी दूर निकल आये हो कि  अब यदि तुम लौटना भी चाहो तो मुमकिन नहीं होगा तुम्हारे लिए।  क्योंकि अगर तुम अब लौट गए तो तुम्हारे लिए यह यकीन करना मुश्किल हो जाएगा कि तुम आज तक गलत थे।इसलिए तुमने जो पथ चुना है तुम्हारे व्यक्तित्व के साथ वही सूट करता है।  अपने उस कलेवर से बाहर निकल मत जाना।  क्योंकि जब तुम वहां से बाहर निकलोगे तो तुम्हारी स्थिति ज्यादा खराब होगी।
तुम तब मेरे लिए हैरानी का विषय बन जाते हो जब तुमने दिल्ली दंगों की रिपोर्टिंग करते हुए कहा था कि " फुरकान मारा गया , अंकित शर्मा की मृत्यु हो गई "। तुमको बैठे बैठे ही पता चल गया था कि  फुरकान मारा गया था। यानि उसकी हत्या की गयी थी। और इसी तरह तुम्हें पता चल गया था कि अंकित शर्मा की मृत्यु हो गयी थी।  कैसे हुई यह तुम्हें  पता नहीं चला पर तुम्हारी बात से पता चलता था कि उसकी मृत्यु ही हुए है न कि हत्या , जैसे कोई डेंगू या हैज़ा आदि से मर जाता है या फिर किसी एक्सीडेंट में जिसमें क्लेम करने लायक कुछ नहीं होता।
दिल्ली  दंगों में पुलिस पर रिवाल्वर तानने वाले का अनुराग नाम भी तुम तुरंत खोज लाये थे जैसे उसका आधार कार्ड तुम्ही ने बनाया होगा। पर वह तो अनुराग नहीं था। तुम्हारी चहेता रहा होगा सो तुम उसका नाम छिपाते फिर रहे थे । हैरानी होती है।
एक बात सुनो। जो पत्रकारिता तुमने की होगी उसके पाठ्यक्रम में तटस्थता निष्पक्षता जैसे शब्द जरूर गढ़े  गए होंगे पत्रकारों के लिए और समझाया भी गया होगा कि पीत पत्रकारिता से क्या क्या नुकसान  होते हैं। पर तुम जो पत्रकारिता करते हो उसके लिए तो कोई शब्द उस समय नहीं रचा गया होगा। लेकिन अब पत्रकारिता संस्थानों की जरूरत बन गए से लगते हो तुम। तुम्हारी पत्रकारिता को एक अलग दर्जा दिया जाना चाहिए और इस पर एक अलग चैप्टर लिखा जाना चाहिए और पढ़ाया जाना चाहिए। तुम्हारी पत्रकारिता के कुछ पहलुओं के कारण तुम एक ऐसी विषय वस्तु  बन गए हो जो अध्ययन का विषय बन गयी है। उस वजह से तुम भी एक समस्यात्मक बालक की तरह हो गए हो जिसके अध्ययन की जरूरत होती है। तुम्हारे अध्ययन से यह  चलेगा कि  किस प्रकार से कोई व्यक्ति पत्रकारिता के वांग्मय से बाहर निकलकर पत्रकारिता की एक नयी परिभाषा लिख गढ़ देता है। हालाँकि तुम्हारी यह पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ तुम जैसे लोगों तक ही सीमित हो गयी है। मुझे पता है कि  कितने ही चैनल हैं जो खबर दिखाते नहीं हैं बल्कि बनाते हैं और दिखाते हैं। उनके शो देखकर लगता है कि  किसी धारावाहिक दिखाने वाले चैनल के सामने बैठे हैं। वो गलत हैं और इससे किसी को क्यों कर ऐतराज होगा कि  वे गलत हैं। पर तुम और तुम्हारा क्या ?
खैर , पी एम  के बाइस तारीख़  के घंटी थाल पर तुम क्या बोले मुझे पता है। जब इटली वाले यही घंटी और थाल बजा रहे थे तो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं थी। पर जब तुम्हारी धृणा के पात्र एक व्यक्ति ने एक समाज के हौसले को बढ़ाने के लिए यही कह दिया तो तुम्हारी समस्या बढ़ गयी। मुझे पता है कि तुम क्यों परेशां थे। तुम सोच रहे थे कि कैसे तुम्हारी घृणा के पात्र की बात पर देश ध्यान दे रहा है। तुम्हारा क्या होगा ? पांच अप्रैल की रात तो तुम गायब ही हो गए थे। उस रात जब तमाम चैनल आठ बजे से नौ बजे तक लोगों को दीपक जलाने के लिए प्रेरित कर रहे थे तब एक तुम्हारा यह हिंदी चैनल तुम्हारे अन्नदाता प्रणव राय  के साथ इंग्लिश debat  में व्यस्त था।  हिंदी चैनल पर मैंने शायद ही पहले कोई debat  इंग्लिश में देखी  हो मुझे याद नहीं। क्यों किया तुम्हारे चैनल ने ऐसा ? यह बताने की जरूरत है क्या ? यह वह भाव है जो तुम्हारे लुटियंस गैंग के लोगों के मन में कूट कूट कर भरा है जिसमें  वे इस सरकारी स्कूल से पढ़े लिखे और फर्राटेदार इंग्लिश से दूर पी एम को फूटी आँख भी बर्दास्त करने के मूड में नहीं हैं।  वही उस पांच तारीख की रात को अंग्रेज बनकर तुम्हारे प्रणव राय  साहब ने यही दिखाने की कोशिश की कि वे ज्यादा सोशल और हाइब्रिड श्रेणी के लोग हैं। खैर , फिर मजबूरन तुम्हारे चैनल ने वह दिए की खबर दिखाई। 
अब जब हर कोई यह कह रहा है कि तुम्हारी घृणा का पात्र वह व्यक्ति पूरी तरह से इस कोरोना बीमारी से निपटने के लिए दिन रात एक कर रहा है तब तुमको सूझ नहीं रहा है कि  किस प्रकार से तुम प्रशंसा के दो शब्द कह सको। आजकल समाचार पढ़ते हुए तुम्हारे चेहरे पर छाई मुर्दनी देखने लायक है जो इस भाव  को प्रकट करती सी प्रतीत होती है कि  अरे , यह बीमारी तीसरी स्टेज से पीछे क्यों है।  मुझे पता है कि तुम्हारा गैंग सालों से इस आदमी को घेरने की कोशिश कर रहा है मगर हार रहा है। एक बात कहूँ , यह आदमी दबाव में ज्यादा बेहतर बैटिंग करता है। इसलिए इसकी शासन की बैटिंग में निरंतर निखार आ रहा है। तुम्हारे चेहरे के उड़े हुए तोते  मुझे इस साफ़ होते आसमान में साफ़ दिखाई देते हैं।  मैं नहीं कहता  कि  पत्रकार को पी एम या सरकार की प्रशंसा करनी चाहिए।  उसका काम समीक्षा करना होता है।  मगर समीक्षा में सरकार की  सकारात्मकता   को भी सामने रखा जाता है। मगर तुमसे यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हाँ , जहां वह गलत करेगा वहां तुम चुप रहोगे तो  सवाल उठेंगे मगर सबको पता हैं कि इस समय क्या हालात हैं ऐसे में तुम अगर बेरोजगारी का रोना रोओगे तो कोई भी हंसेगा।  स्वाभाविक है इस समय यदि तुम यह ढूढ़ते कि  कहाँ भोजन नहीं पहुँच रहा है कहाँ क्या अव्यवस्था है आदि तो कोई भी सहमत होता मगर अब तुम क्या चाहते हो कि  लॉक डाउन ख़त्म कर दें।  तो थोड़ा सोचना कि मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त करके कहीं तुम पर नकारात्मकता ज्यादा हावी तो नहीं हो गयी है ? क्योंकि तुम्हारी एक दूसरी बहन अरुंधति राय  जिसने खुद भी मैग्सेसे पुरस्कार पाया है और एन आर सी , एन  पी आर के दौरान लोगों को रंगा और बिल्ला का ज्ञान दे रही थी , इसी नकारात्मकता की शिकार है जिससे यह तो तय हो गया है कि  मैग्सेसे किस किस को मिल सकता है।  और हाँ , थोड़ा तब्लीग़ियों के बारे में बोल दो।  साद को कह दो कि  कह दे लोगों से कि  बाहर निकल आएं जहां जहां छिपे हैं।  उन पर दया करो।  जो थूक रहे हैं थोड़ा उनके पास भी चले जाओ और समझा आओ। तुम्हें तो ग्राऊंड पत्रकारिता का बहुत शौक है न। मेरी तो पसंद रहे हो तुम। मगर तुम्हारी नकारात्मकता बीमार कर देगी।  छोड़ चुका  था तुम पर सोचना कि  कहीं तुम को देखते देखते खुद बीमार न हो जाऊं पर चार दिन पहले एक फेसबुक पोस्ट पर तुम्हारे बारे में लिखे एक लेख ने फिर से उजाला भर दिया कि  तुम्हारे अँधेरे के बारे में लिखूं। बुढ़ापे तक तुम बीमार हो चुके होंगे चिंतन के स्तर  पर।  अभी तो ऐसा ही लगता है। अब फिर तुम पर सोचना होगा।  वह ईश्वर वह राम तुम्हारी रक्षा करे जिसकी रामायण के प्रसारण पर तुम कुछ दिन पहले बिलबिला गए थे बे।  

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