सोमवार, 27 फ़रवरी 2012



एक थी कलावती



एक थी कलावती . थी इसलिए क्योंकि उसका वर्तमान में होना भी थी 


के ही बराबर है . नाम पर जाया जाय तो वह कलावती थी . कलाओं 


वाली थी . कला की धनी थी . लेकिन नाम से वो कलावती थी काम से 


किसान . यह कृषि प्रधान देश है इसलिए किसान होना सम्मान का 


प्रतीक हो सकता है . वह भी कृषक ही थी . लेकिन उसका अथक 


परिश्रम भी उसके नाम को सार्थक नहीं कर सका था . गरीबी उसके 


भाग्य की परछाही थी जो हमेशा उसे साथ ही रहा करती थी . सर पर 


बमुश्किल एक छत घासफूस की . तन पर कपडे के नाम पर कुछ 


चीथड़े और रसोई में खाने के नाम पर मोटा अनाज और बमुश्किल दो 


समय का खाना . रात को गुदड़ियों में सो जाती और सुबह गुदड़ियों से 


ही उठ जाती . वैसे तो हमारे देश में कई गुदड़ी के लाल हैं जिनका 


गुदड़ी से कोई सम्बन्ध नहीं है. वे दीखते गुदड़ी के लाल हैं लेकिन 


उनका जीवन गुदड़ी वाला  नहीं. वे जब किसी राज्यके मुखिया  रहे 


तब जरूर बाकी प्रदेशवासियों को उन्होंने गुदड़ी वाला बना दिया था 


लेकिन वे खुद गुदड़ी वाले नहीं हैं . बल्कि हर ऐशो आराम से ओत प्रोत 


हैं . वे कहने को गुदड़ी के लाल हैं और हकीक़त में मैनेजमेंट गुरु भी रह 


चुके हैं .


लेकिन हम बात कर रहे थे कलावती की . वह गुदड़ी पर आश्रित थी . 


उसने कोई सपना कदाचित ही कभी देखा हो . या देख भी होगा तो 


टूटते सपनों के बाद कदाचित ही कभी दोबारा सपने देखने की कोशिश 


की होगी. उसने कभी नहीं सोचा होगा की भी कोई राजा या युवराज 


उसके घर या जीवन में आएगा और उसके दिन बहुरने की उम्मीदों पर 


पानी डाले जाने की चर्चा होगी.




लेकिन एक दिन अचानक . एक युवराज . एक लम्बी गाडी में . अपनी 


गाडी से उतरा . वह युवराज था . उसे चेहरे पर युवराजों की मुस्कान 


थी . ऐसा उसके मातहत कहते थे या कह सकते हैं कि उसके आसपास 


घूमने वालों को उसमे उनका युवराज नज़र आता था . वह कलावती 


की झोपडी में आया . बैठा . उसके हालचाल पूछे उसके चूल्हे की बनी 


रोटी खाई  . उससे पूछा कि वह कैसे अपना जीवन यापन करती है ? 


युवराज को बड़ी चिंता हुई कि देश में ऐसे भी लोग हैं  जो दो  समय का 


भोजन भी नहीं पा पाते . लेकिन मुझे इस बात की ख़ुशी है कि उस 


युवराज ने फ्रांस की कभी उस एक राजकुमारी की तरह यह नहीं कहा 


कि यदि कलावती के पास रोटी नहीं है तो वह केक पिज्जा बर्गर आदि 


से काम क्यों नहीं चला लेती ? युवराज परेशान था कलावती की हालत 


पर और वह कलावती को उम्मीदों का पिटारा थमाकर चला गया.




कलावती हक्का बक्का थी . कोई आया था उसके दिन फेरने . उसके 


पीछे लाव लश्कर था . कैमरे थे . फ्लैश थी . वह घबरा गई थी . इतनी 


उम्मीद तो उसने कभी नहीं की थी . वह बेसुध सी थी . ऐसा भी होता 


है क्या ? ऐसा तो सपनों में हुआ करता है . वह भी उन तरुण युवतियों 


के सपनों में जो अपने अपने राजकुमारों की प्रतीक्षा में दिन काटती हैं 


कि कोई आएगा उनके दिन फेरने . यहाँ पर स्थिति थोड़ी भिन्न थी . 


युवराज आया था . एक पुत्र की तरह अपनी माँ के दिन फेरने . उसे तो 


ऐसा ही लगा होगा . उसे आँखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था . दिन 


फिरने की ऐसी उम्मीद तो उसने कभी नहीं लगाईं थी . वह थोडा सा 


होश में तब आई जब युवराज चला गया . कैमरे चले गए . लाव लश्कर 


चला गया . और रह गया वही टूटा फूटा सा झोपडी नुमा घर . झोपड़ 


पट्टी . शरीर पर कतरे . वही सूखी रोटी और पुनर्जीवित होने की 


उम्मीद में उम्मीदें जिनके पूरा होने की हैरत भरी उम्मीद अब 


कलावती को भी थी . 
अगले दिन अखबारों में खबर छपी . युवराज कलावती के घर गया था .
 उसके हाल चाल पूछे . कलावती को तो 


पढना भी नहीं आता था . कैसे जान पाती . कदाचित ही किसी ने  उसे 


बताया हो . लेकिन पृष्ठ में वह अब इतनी अभागी नहीं थी जितने देश 


के अन्य करोड़ों लोग जो सूरज की तपिश झेलते सूख सूखकर जल 


जाते हैं. युवराज देश की सर्वोच्च संस्था में गया था . वहां बोला वह - 


कलावती .....कलावती.........कलावती.................कलावती वहाँ 


रहती हैं . चीथड़ों में रहती है . ये खाती है . उसने भी वही खाया . 


उसकी हालत खराब है. उसके पास पैसे नहीं हैं. वह उसके बारे में 


चिंतित है. देश में ऐसी कितनी ही कलावतियाँ हैं. उनके लिए हमें 


कुछ करना है. .................




ख़बरों से पता चला , कलावती सबकी जुबान पर है. वह अब इतनी 


अभागी नहीं है.वह देश के सुप्रीमो की जुबान पर है. अब उसका कुछ 


होगा . उसका जीवन बदल जाएगा.


समय बीतता गया और सब कुछ चूकता गया. वर्षों बीतते  गए . कई 


बरसातें चली गयीं . ठण्ड , गर्मी , वर्षा . दिन माह वर्ष . शिशिर वसंत 


ग्रीष्म वर्षा शरद हेमंत सब ऋतुएं अपनें अपने कालचक्र के साथ 


पुनरावृत्त होती गयीं . अगर कुछ नहीं बदल रहा था तो वह था 


कलावती का अपना घर और हालात . नयी घटनाओं व घटनाक्रमों के 


झंझावातों के बीच कलावती नाम का पत्ता कहीं उड़ या खो सा गया था 


. फिर मैंने कभी सुना नहीं . 




अचानक एक दिन अखबार में पढ़ा -




कलावती के किसान दामाद ने कर्ज में दबे होने , कर्ज न चूका पाने 


के कारण भुखमरी से तंग आकर आत्महत्या कर ली है.


यह दूसरी बार था जब कलावती का नाम अखबार में आया था . मुझे 


हैरत नहीं हुई . हैरत मुझे तब भी नहीं हुई थी जब पहली बार कलावती 


का नाम सुर्ख़ियों में आया था . हैरत न होने की मुझे आदत पड़ चुकी है 


. जो होना है या जो कुछ हमारे नीति निर्धारकों ने तय कर रखा है उसे 


कोई टाल सकता है क्या ?




कुछ दिन और बीते और एक दिन अचानक फिर से कलावती का नाम 


अखबार के एक छोटे से कालम पर . नजर पड़ी . देखा . पढ़ा . 


उत्सुकता से . खबर थी -




कलावती की कुछ दिन पूर्व विधवा हो गयी बेटी ने कर्ज से तंग आकर 


आत्महत्या कर ली .




यह कलावती की वही बेटी थी जिसके पति ने कुछ दिन पूर्व ही इसी 


कर्ज की समस्या के चलते अपनी पत्नी को वैधव्य प्रदान कर दिया था . 




यह तीसरी बार था जब मैं कलावती का नाम अखबार में पढ़ रहा था . 


मुझे पता नहीं , कलावती का कोई बेटा था या नही , हाँ , उसका नाम 


जरूर इतिहास के पन्नों में कुछ दिनों के लिए और समाचार पत्र में 


हमेशा के लिए अंकित हो गया था.




अब , एक बार फिर , वही युवराज , निकल पड़ा है देश की 


कलावातियों की दुर्दशा पर रोने और उस दशा को सुधारने के लिए . 


वह अपने वातानुकूलित रथ पर अपने दल बल के साथ उत्तराखंड और 


पंजाब के बाद अब उत्तर प्रदेश की सड़कों पर चल पड़ा है कलावतियों के 


उद्धार के लिए और बाकि भिखारियों के दिन बहुराने को . हाँ , उसे 


लगता है कि इस उत्तर प्रदेश के बहुत से लोग भिखारियों की तरह दर 


दर ठोकर खाते और जगहों पर भूखे प्यासे पेट काम के मारे घुमते हैं 


और जगह जगह मार खाते हैं . वह भूल जाता है कि जहां इस प्रदेश के 


ये लोग मार खाते हैं वहाँ पर उसके भी लोग और सरकार है जो उनकी 


रक्षा भी नहीं कर पाती है. वो कहता है कि इनकी हालत सुधारनी है . 


वह कृषि प्रधान से कुर्षी प्रधान हो चुके इस देश के इस सबसे बड़े राज्य 


के गली मुहल्लों में सपने दिखाने के लिए अवतार की मानिंद चल पडा 


है की अगर उसके दल व मन पसंद को जनता ने स्वीकार कर लिया 


तो वह उन सबकी रातों को दिन में बदल देगा . वह बाहर घूमकर 


आया है . वह सेवाराम और बाबुरामों की तकदीर बदल देगा . बस कोई 


उसे लगाम थमा दे . देश की सबसे बड़ी कुर्सी तो उसके लिए आरक्षित 


है  लेकिन उसे सारी कुर्सियां चाहियें ताकि वह सबकी दशा सुधार सके 


. २२ सालों से इस प्रदेश को और लोग निगल गए हैं . वह सुधारेगा . 


वह भ्रष्टाचार   की शिकायत करता है पर वह टूजी पर मौन है . वह 


कहता है कि फलाना पैसा खाता है पर वह विदेशों में लाखों करोड़ 


डिपोजिट पर मौन है क्योंकि उसकी प्रिय आरक्षित कुर्सी पर बैठा 


उसकी प्रतीक्षा कर रहा उसका अपना भी मन से मौन है . वह अब 


कलावती पर भी मौन है क्योंकि अब उसके सामने एक नहीं लाखों 


कलावातियाँ हैं . उसे सबके दिन बहुराने हैं . मुझे पता नहीं 


कलावतियों के दिन बहुरेंगे या नहीं पर शायद उसके अपने दिन बहुर 


जाएँ .

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012



एक थी कलावती

एक थी कलावती . थी इसलिए क्योंकि उसका वर्तमान में होना भी थी के ही बराबर है . नाम पर जाया जाय तो वह कलावती थी . कलाओं वाली थी . कला की धनी थी . लेकिन नाम से वो कलावती थी काम से किसान . यह कृषि प्रधान देश है इसलिए  किसान होना सम्मान का प्रतीक हो सकता है . वह भी कृषक ही थी . लेकिन उसका अथक परिश्रम भी उसके नाम को सार्थक नहीं कर सका था . गरीबी उसके भाग्य की परछाही थी जो हमेशा उसे साथ ही रहा करती थी . सर पर बमुश्किल एक छत घासफूस की . तन पर कपडे के नाम पर कुछ चीथड़े और रसोई में खाने के नाम पर मोटा अनाज और बमुश्किल दो समय का खाना . रात को गुदड़ियों में सो जाती और सुबह गुदड़ियों से ही उठ जाती . वैसे तो हमारे देश में कई गुदड़ी के लाल हैं जिनका गुदड़ी से कोई सम्बन्ध नहीं है. वे दीखते गुदड़ी के लाल हैं लेकिन उनका जीवन गुदड़ी वाला  नहीं. वे जब किसी राज्य के मुखिया  रहे तब जरूर बाकी प्रदेशवासियों को उन्होंने गुदड़ी वाला बना दिया था लेकिन वे खुद गुदड़ी वाले नहीं हैं . बल्कि हर ऐशो आराम से ओत प्रोत हैं . वे कहने को गुदड़ी के लाल हैं और हकीक़त में मैनेजमेंट गुरु भी रह चुके हैं .
लेकिन हम बात कर रहे थे कलावती की . वह गुदड़ी पर आश्रित थी . उसने कोई सपना कदाचित ही कभी देखा हो . या देखा भी होगा तो टूटते सपनों के बाद कदाचित ही कभी दोबारा सपने देखने की कोशिश की होगी. उसने कभी नहीं सोचा होगा कि कभी कोई राजा या युवराज उसके घर या जीवन में आएगा और उसके दिन बहुरने की उम्मीदों पर पानी डाले जाने की चर्चा होगी.
लेकिन एक दिन अचानक . एक युवराज . एक लम्बी गाडी में . अपनी गाडी से उतरा . वह युवराज था . उसे चेहरे पर युवराजों की मुस्कान थी . ऐसा उसके मातहत कहते थे या कह सकते हैं कि उसके आसपास घूमने वालों को उसमे उनका युवराज नज़र आता था . वह कलावती की झोपडी में आया . बैठा . उसके हालचाल पूछे उसके चूल्हे की बनी रोटी खाई  . उससे पूछा कि वह कैसे अपना जीवन यापन करती है ? युवराज को बड़ी चिंता हुई कि देश में ऐसे भी लोग हैं  जो दो  समय का भोजन भी नहीं पा पाते . लेकिन मुझे इस बात की ख़ुशी है कि उस युवराज ने फ्रांस की कभी उस एक राजकुमारी की तरह यह नहीं कहा कि यदि कलावती के पास रोटी नहीं है तो वह केक पिज्जा बर्गर आदि से काम क्यों नहीं चला लेती ? युवराज परेशान था कलावती की हालत पर और वह कलावती को उम्मीदों का पिटारा थमाकर चला गया.
कलावती हक्का बक्का थी . कोई आया था उसके दिन फेरने . उसके पीछे लाव लश्कर था . कैमरे थे . फ्लैश थी . वह घबरा गई थी . इतनी उम्मीद तो उसने कभी नहीं की थी . वह बेसुध सी थी . ऐसा भी होता है क्या ? ऐसा तो सपनों में हुआ करता है . वह भी उन तरुण युवतियों के सपनों में जो अपने अपने राजकुमारों की प्रतीक्षा में दिन काटती हैं कि कोई आएगा उनके दिन फेरने . यहाँ पर स्थिति थोड़ी भिन्न थी . युवराज आया था . एक पुत्र की तरह अपनी माँ के दिन फेरने . उसे तो ऐसा ही लगा होगा . उसे आँखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था . दिन फिरने की ऐसी उम्मीद तो उसने कभी नहीं लगाईं थी . वह थोडा सा होश में तब आई जब युवराज चला गया . कैमरे चले गए . लाव लश्कर चला गया . और रह गया वही टूटा फूटा सा झोपडी नुमा घर . झोपड़ पट्टी . शरीर पर कतरे . वही सूखी रोटी और पुनर्जीवित होने की उम्मीद में उम्मीदें जिनके पूरा होने की हैरत भरी उम्मीद अब कलावती को भी थी . अगले दिन अखबारों में खबर छपी . युवराज कलावती के घर गया था . उसके हाल चाल पूछे . कलावती को तो पढना भी नहीं आता था . कैसे जान पाती . कदाचित ही किसी ने  उसे बताया हो . लेकिन पृष्ठ में वह अब इतनी अभागी नहीं थी जितने देश के अन्य करोड़ों लोग जो सूरज की तपिश झेलते सूख सूखकर जल जाते हैं. युवराज देश की सर्वोच्च संस्था में गया था . वहां बोला वह - कलावती .....कलावती.........कलावती.................कलावती वहाँ रहती हैं . चीथड़ों में रहती है . ये खाती है . उसने भी वाही खाया . उसकी हालत खराब है. उसके पास पैसे नहीं हैं. वह उसके बारे में चिंतित है. देश में ऐसी कितनी ही कलावातियाँ हैं. उनके लिए हमें कुछ करना है. .................
ख़बरों से पता चला की कलावती सबकी जुबान पर है. वह अब इतनी अभागी नहीं है.वह देश के सुप्रीमो की जुबान पर है. अब उसका कुछ होगा . उसका जीवन बदल जाएगा.
समय बीतता गया और सब कुछ चूकता गया. वर्षों बीतते  गए . कई बरसातें चली गयीं . ठण्ड , गर्मी , वर्षा . दिन माह वर्ष . शिशिर वसंत ग्रीष्म वर्षा शरद हेमंत सब ऋतुएं अपनें अपने कालचक्र के साथ पुनरावृत्त होती गयीं . अगर कुछ नहीं बदल रहा था तो वह था कलावती का अपना घर और हालात . नयी घटनाओं व घटनाक्रमों के झंझावातों के बीच कलावती नाम का पत्ता कहीं उड़ या खो सा गया था . फिर मैंने कभी सुना नहीं . 
अचानक एक दिन अखबार में पढ़ा -
कलावती के किसान दामाद ने कर्ज में दबे होने , कर्ज न चूका पाने के कारण भुखमरी से तंग आकर आत्महत्या कर ली है.
यह दूसरी बार था जब कलावती का नाम अखबार में आया था . मुझे हैरत नहीं हुई . हैरत मुझे तब भी नहीं हुई थी जब पहली बार कलावती का नाम सुर्ख़ियों में आया था . हैरत न होने की मुझे आदत पड़ चुकी है . जो होना है या जो कुछ हमारे नीति निर्धारकों ने तय कर रखा है उसे कोई टाल सकता है क्या ?
कुछ दिन और बीते और एक दिन अचानक फिर से कलावती का नाम अखबार के एक छोटे से कालम पर . नजर पड़ी . देखा . पढ़ा . उत्सुकता से . खबर थी -
कलावती की कुछ दिन पूर्व विधवा हो गयी बेटी ने कर्ज से तंग आकर आत्महत्या कर ली .
यह कलावती की वही बेटी थी जिसके पति ने कुछ दिन पूर्व ही इसी कर्ज की समस्या के चलते अपनी पत्नी को वैधव्य प्रदान कर दिया था . 
यह तीसरी बार था जब मैं कलावती का नाम अखबार में पढ़ रहा था . मुझे पता नहीं , कलावती का कोई बेटा था या नही , हाँ , उसका नाम जरूर इतिहास के पन्नों में कुछ दिनों के लिए और समाचार पत्र में हमेशा के लिए अंकित हो गया था.
अब , एक बार फिर , वही युवराज , निकल पड़ा है देश की कलावातियों की दुर्दशा पर रोने और उस दशा को सुधारने के लिए . वह अपने वातानुकूलित रथ पर अपने दल बल के साथ उत्तराखंड और पंजाब के बाद अब उत्तर प्रदेश की सड़कों पर चल पड़ा है कलावतियों के उद्धार के लिए और बाकि भिखारियों के दिन बहुराने को . हाँ , उसे लगता है कि इस उत्तर प्रदेश के बहुत से लोग भिखारियों की तरह दर दर ठोकर खाते और जगहों पर भूखे प्यासे पेट काम के मारे घुमते हैं और जगह जगह मार खाते हैं . वह भूल जाता है कि जहां इस प्रदेश के ये लोग मार खाते हैं वहाँ पर उसके भी लोग और सरकार है जो उनकी रक्षा भी नहीं कर पाती है. वो कहता है कि इनकी हालत सुधारनी है . वह कृषि प्रधान से कुर्षी प्रधान हो चुके इस देश के इस सबसे बड़े राज्य के गली मुहल्लों में सपने दिखाने के लिए अवतार की मानिंद चल पडा है की अगर उसके दल व मन पसंद को जनता ने स्वीकार कर लिया तो वह उन सबकी रातों को दिन में बदल देगा . वह बाहर घूमकर आया है . वह सेवाराम और बाबुरामों की तकदीर बदल देगा . बस कोई उसे लगाम थमा दे . देश की सबसे बड़ी कुर्सी तो उसके लिए आरक्षित है  लेकिन उसे सारी कुर्सियां चाहियें ताकि वह सबकी दशा सुधार सके . २२ सालों से इस प्रदेश को और लोग निगल गए हैं . वह सुधारेगा . वह भ्रष्टाचार   की शिकायत करता है पर वह टूजी पर मौन है . वह कहता है कि फलाना पैसा खाता है पर वह विदेशों में लाखों करोड़ डिपोजिट पर मौन है क्योंकि उसकी प्रिय आरक्षित कुर्सी पर बैठा उसकी प्रतीक्षा कर रहा उसका अपना भी मन से मौन है . वह अब कलावती पर भी मौन है क्योंकि अब उसके सामने एक नहीं लाखों कलावातियाँ हैं . उसे सबके दिन बहुराने हैं . मुझे पता नहीं कलावतियों के दिन बहुरेंगे या नहीं पर शायद उसके अपने दिन बहुर जाएँ .

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012


एक थी कलावती
एक थी कलावती . थी इसलिए क्योंकि उसका वर्तमान में होना भी थी के ही बराबर है . नाम पर जाया जाय तो वह कलावती थी . कलाओं वाली थी . कला की धनी थी . लेकिन नाम से वो कलावती थी काम से किसान . यह कृषि प्रधान देश है इसकिये किसान होना सम्मान का प्रतीक हो सकता है . वह भी कृषक ही थी . लेकिन उसका अथक परिश्रम भी उसके नाम को सार्थक नहीं कर सका था . गरीबी उसके भाग्य की परछाही थी जो हमेशा उसे साथ ही रहा करती थी . सर पर बमुश्किल एक छत घासफूस की . तन पर कपडे के नाम पर कुछ चीथड़े और रसोई में खाने के नाम पर मोटा अनाज और बमुश्किल दो समय का खाना . रात को गुदड़ियों में सो जाती और सुबह गुदड़ियों से ही उठ जाती . वैसे तो हमारे देश में कई गुदड़ी के लाल हैं जिनका गुदड़ी से कोई सम्बन्ध नहीं है. वे दीखते गुदड़ी के लाल हैं लेकिन उनका जीवन गुदड़ी वाला  नहीं. वे जब किसी राज्यके मुखिया  रहे तब जरूर बाकी प्रदेशवासियों को उन्होंने गुदड़ी वाला बना दिया था लेकिन वे खुद गुदड़ी वाले नहीं हैं . बल्कि हर ऐशो आराम से ओत प्रोत हैं . वे कहने को गुदड़ी के लाल हैं और हकीक़त में मैनेजमेंट गुरु भी रह चुके हैं .
लेकिन हम बात कर रहे थे कलावती की . वह गुदड़ी पर आश्रित थी . उसने कोई सपना कदाचित ही कभी देखा हो . या देख भी होगा तो टूटते सपनों के बाद कदाचित ही कभी दोबारा सपने देखने की कोशिश की होगी. उसने कभी नहीं सोचा होगा की कभी कोई राजा या युवराज उसके घर या जीवन में आएगा और उसके दिन बहुरने की उम्मीदों पर पानी डाले जाने की चर्चा होगी.
लेकिन एक दिन अचानक . एक युवराज . एक लम्बी गाडी में . अपनी गाडी से उतरा . वह युवराज था . उसे चेहरे पर युवराजों की मुस्कान थी . ऐसा उसके मातहत कहते थे या कह सकते हैं कि उसके आसपास घूमने वालों को उसमे उनका युवराज नज़र आता था . वह कलावती की झोपडी में आया . बैठा . उसके हालचाल पूछे उसके चूल्हे कि बनी रोटी खाई  . उससे पूछा कि वह कैसे अपना जीवन यापन करती है ? युवराज को बड़ी चिंता हुई कि देश में ऐसे भी लोग हैं  जो दो  समय का भोजन भी नहीं पा पाते . लेकिन मुझे इस बात की ख़ुशी है कि उस युवराज ने फ्रांस की कभी उस एक राजकुमारी की तरह यह नहीं कहा कि यदि कलावती के पास रोटी नहीं है तो वह केक पिज्जा बर्गर आदि से काम क्यों नहीं चला लेती ? युवराज परेशान था कलावती की हालत पर और वह कलावती को उम्मीदों का पिटारा थमाकर चला गया.
कलावती हक्का बक्का थी . कोई आया था उसके दिन फेरने . उसके पीछे लाव लश्कर था . कैमरे थे . फ्लैश थी . वह घबरा गई थी . इतनी उम्मीद तो उसने कभी नहीं की थी . वह बेसुध सी थी . ऐसा भी होता है क्या ? ऐसा तो सपनों में हुआ करता है . वह भी उन तरुण युवतियों के सपनों में जो अपने अपने राजकुमारों की प्रतीक्षा में दिन काटती हैं कि कोई आएगा उनके दिन फेरने . यहाँ पर स्थिति थोड़ी भिन्न थी . युवराज आया था . एक पुत्र की तरह अपनी माँ के दिन फेरने . उसे तो ऐसा ही लगा होगा . उसे आँखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था . दिन फिरने की ऐसी उम्मीद तो उसने कभी नहीं लगाईं थी . वह थोडा सा होश में तब आई जब युवराज चला गया . कैमरे चले गए . लाव लश्कर चला गया . और रह गया वही टूटा फूटा सा झोपडी नुमा घर . झोपड़ पट्टी . शरीर पर कतरे . वही सूखी रोटी और पुनर्जीवित होने की उम्मीद में उम्मीदें जिनके पूरा होने की हैरत भरी उम्मीद अब कलावती को भी

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

बटला हाउस प्रकरण पर सलमान खुर्शीद महोदय का ये बयान कि उस समय सोनिया गाँधी रोई थीं कई सवाल खड़े करता है . विचारणीय बात यह है कि हमारी राजनीति इतनी संवेदनहीन हो चुकी है कि हमें अब यह भी बताना पड़ता है कि कौन कितना रोया और कौन कितना . वोट के लिए आंसुओं को बेचते राजनेता क्या किसी के आंसू पोंछ भी पायेंगे . कदाचित ही ऐसा हो पाए . देखते  रहिये यदि हमें यह बताना पड़ रहा है कि हम रोये तो भला क्या रोये ? मुंह से बोले आंसू भला क्या औकात रखते हैं किसी के दर्द की . दर्द को समझने की . किसी को खुश करने के लिए उसको बताना कि हम रोये . हैरानी होती है. किसी के घर का चिराग उजाड़ना और किसी दुसरे के लिए आपका रोना . वाह सोनिया जी ! आपसे तो ये उम्मीद नहीं थी क्योंकि आप तो आंसू का मतलब जानती  हैं या क्या  इटली में आंसुओं की अभिव्यक्ति ऐसे ही होती है ?.

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

आदरणीय गुप्ता जी ! सादर नमस्कार , गुस्सा जितना जरूरी है उससे भी ज्यादा जरूरी है धैर्य , धैर्य यदि गुस्से को खा जाए तब तो ठीक और यदि गुस्सा धैर्य को खा जाए तो बहुत बुरा होता है.आपका गुस्सा धैर्य को खा रहा है . हमें भी गुस्सा आता है . गुस्सा जब सही शब्दावली के साथ प्रकट होता है तो प्रभावी होता है. आपके गुस्से को समझ रहा हूँ . सोचिये यदि एक १०० % इमानदार अन्ना के साथ सरकार इस तरह से पेश आ सकती है तो बात बात में धैर्य खोने वाले हम लोगों का क्या वजूद . इसलिए शब्द चुनकर गुस्से की अभिव्यक्ति बहुत जरूरी है. आपका रेप शब्द आपके गुस्से को तो अभिव्यक्त कर सकता है लेकिन आपके धैर्य को तोड़ता है . धैर्य बनाए रखें . रेप शब्द एक उचित शब्द बिलकुल नहीं है इस सन्दर्भ में . लोग चीरहरण जैसे शब्द भी प्रयोग करते हैं जो उन्हीं भावों को थोडा ज्यादा अच्छे शब्दों में प्रकट करता है. और इससे भी बेहतर शब्द अपमान हो सकता है . हो सकता है आपको लगता हो कि ये शब्द आपके गुस्से को सही रूप में प्रकट नहीं कर पायेगा . लेकिन कुछ गुस्सा मन में भी बनाए रखिये . क्रान्ति में ऐसा  मन में दबा गुस्सा ही काम आता है. गुस्सा प्रकट ही हो जाए तो वो कम हो जाता है. धन्यवाद.

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

jaraa sochiye


ज़रा सोचिये -
आजकल की ताजातरीन खबर है कि भाजपा के तीन विधायक कर्नाटक विधानसभा में मोबाइल पर अश्लील फिल्म देखते पकडे गए हैं . मजेदार तथ्य यह है कि ऐसा करते हुए खबर बनने की आशंका  से बेखबर ये विधायक जब न्यूज़ चैनल पर चर्चा का विषय बने तो बेचारे अजीबोगरीब तर्क देने से बाज नहीं आये . बोले कि वो तो किसी विदेशी गेंग रेप का विडियो देख रहे थे क्योंकि यह उनके मोबाइल पर उपलब्ध कराया गया था . पार्टी प्रवक्ता का कहना है कि वे तो एस एम् एस देख रहे थे और अचानक उनके मोबाइल पर यह विडियो भेजा गया और वे उसे देखने लगे . अब ऐसा एस एम् एस आये और कोई सब कुछ भूलकर उसे देखने लग जाए तो इसमें उसका क्या दोष भला ? अब इससे क्या समझा जाए कि विधायक महोदय ने एक सर्विस सेंटर खोल रखा है जहां से ये सेवाए संचालित की जा रही हैं और कही भी कोई रेप होता है तो विधायक महोदय के फोन पर वह विडियो भेज दिया जाता है घटना चाहे विदेश की ही क्यों न हो ? वाह , क्या अच्छी तकनीक है . घटना हुई नहीं कि तुरंत सूचना प्रदत्त . वसुधैव कुटुम्बकम . वसुधा ही कुटुंब है . हमारी संस्कृति है यह . सारी धरती को हम अपना परिवार मानते हैं . सिर्फ अपने ही नहीं देश दुनिया के झगड़ों में हमारी दिलचस्पी है . रेप केश में तो ज्यादा ही . वैसे भी हमारे यहाँ ही मदेरणा , एन डी व अन्य बहुत से कारनामे करने वाले लोगों कि जमात है . वसुधा में कोई भी घटना कहीं भी हो तो हमारे विधायकों के पास बहुत या सबसे पहले पहुँच जाती है . धन्य है उस क्षेत्र की जनता जहां से ये विधायक महोदय आते हैं . क्योंकि इतने गुणी विधायक के चलते इनके अपने क्षेत्र में जब भी कोई बिजली पानी सड़क शिक्षा चिकित्सा या अन्य आपदा जैसी समस्याएं आती होंगी तो निश्चित तौर पर इनके मोबाइल पर तुरंत सूचना आ जाती होगी और समस्या निवारण के लिए फाइल चल पड़ती होगी . यह हम निश्चित तौर पर कह सकते हैं . आखिर भैया ! विडियो के प्रेषण में तो थोडा समय भी लग सकता है लेकिन एस एम् एस के जरिये  समस्या तो तुरंत ही पहुँच जाती होगी , ऐसा हमारा विश्वास है  और निश्चित तौर पर इससे हमारे विधायकों और सांसदों को सबक लेना चाहिए . एस एम् एस वैसे भी हमारी जिंदगी में वैसे ही शामिल हो गया है और बिन बुलाये मेहमानों की तरह ये एस एम् एस जब तब पहुंचते रहते हैं . अब आप समझ लें . उत्तर प्रदेश में चुनाव चल रहे हैं और ऐसे में कहीं और ज्यादा चुनावी पलीता न लग जाए इस चक्कर में कुशवाहा प्रकरण से बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाने वाली भाजपा ने चाहे अनचाहे मजबूरी में ही सही तीनों विधायकों का निलंबन कर दिया है . ये क्या बात हुई . अब विधान सभा में क्या चल रही बहस कितनी बोरिंग होती है इसका अंदाजा इस घटना से भी हो सकता है . आखिर कहाँ विधानसभा आदि में पूछे जाने वाले सवाल या चर्चा के विषय और कहाँ गेंग रेप . अब ये पता नहीं कि विधायक महोदय समस्या सुलझाने के विषय  में सोच रहे थे या वास्तव में खुशवंत सिंह के अतीत में दिए गए बयान पर अमल कर रहे थे कि यदि लड़की के साथ बलात्कार हो रहा हो और लड़की अपने आपको बचाने में असमर्थ हो तो उसे बलात्कार का आनंद लेना चाहिए . अब विधायक महोदय उस समस्या का समाधान कर भी पायेंगे या नहीं या जिस देश में ये घटना घटी वहाँ की संसद पता नहीं उन्हें ऐसा करने देगी या नहीं या वह एक्शन देगी भी या नहीं पर अपने विधायक साहब को भी मजे लेने में ही यदि मजा आ रहा है तो वे क्यों विधान सभा के उल जलूल सवालों पर ध्यान दें . उसके लिए तो और भी बहुत से लोग हैं और जैसा कि हमारा विश्वास है कि इन विधायकों ने तो अपने क्षेत्र में जरूर एस एम् एस सेवा चला ही राखी होगी . और रही बात यदि आप कहें कि नैतिकता के बलात्कार की तो यह भी कोई चीज है भला ? मदेरणा या एन डी जैसों का क्या ? नैतिकता का बलात्कार तो आये दिन हो रहा है उसका क्या भला ? पोर्न स्टार जैसे शब्द ने यदि एक जगह समाज में बना ली है और लोग चर्चा करने में शर्म करने से बचने में लगे हैं तो फिर बचा क्या है ? वे विधायक भी तो आखिर पोर्न स्टार मूवी ही देख रहे थे .
ज़रा सोचिये , हम कहाँ जा रहे हैं ?

jaraa sochiye




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