सोमवार, 20 अप्रैल 2020

मैं तब्लीगी जमात से हूँ। जी हाँ , तब्लीगी जमात से । जी हाँ , वर्षों पहले मेरे इस संगठन की स्थापना हुई थी। इसे आप हमारा चिंतन शिविर समझ लीजिये। मेरा कुछ दिन पहले निजामुद्दीन में भी कार्यक्रम था। बहुत से लोग बाहर से आये और उससे कई गुना भारत से। कोरोना दुनियां भर में फ़ैल रहा था और दुनियां लॉक डाउन की तरफ बढ़ रही थी। मुझे भी पता था कि हिंदुस्तान की सरकारें भी डिस्टेंस क्योर की तरफ बढ़ चुकी थी। लेकिन मुझे जो समझाया गया था उस हिसाब से मुझे कोरोना नहीं हो सकता था। और यदि होता भी तो मैं तो एक ऐसे स्थान पर उपस्थित थी जहां से सीधे जन्नत के दरवाजे खुलते हैं। 72 हूरों के दरवाजे खुलते हैं। यहाँ मरने से बेहतर कुछ नहीं है। अब यह मत कहना कि उन बहत्तर हूरों का खर्चा कौन उठाएगा या मेरे किसी सदस्य के मरने पर वह कैसे इस खर्च को उठाएगा। क्या मेरे किसी सदस्य ने कभी महंगाई के लिए कोई आंदोलन इस देश में किया है ? जब मेरे घर में मेरी चार पत्नियां अपने अपने बच्चों के साथ मेरे परिवार को पंद्रह बीस तक पहुंचा देती हैं तो उनका खर्चा तो मेरा वह सदस्य ही उठता है। क्या वह कभी सड़क पर आया कि  महंगाई हो गयी है। मेरे लोग हमेशा संघर्ष के लिए तैयार रहे हैं। मेरे सदस्य के परिवार जन चाहे किसी नाई  की दुकान  पर बैठकर चार पैसे कमाएं या कहीं सब्जी बेचें या पंक्चर लगाएं। हम सब कुछ अल्लाह की देन समझ करअपना लेते हैं और जैसे तैसे गुजारा कर लेते हैं। कोई कम पैसे की ज्यादा शिकायत नहीं करते। जब शाहीन बाग में मेरे लोग बैठे थे तो वहाँ रात को अपने आप खाना पहुँच जाता था। क्या हमने कभी सरकार से खाना माँगा था। हम पर तो अल्लाह की मेहरबानी थी ।
मेरे लोगों को कोरोना हो गया था। मेरा मुखिया मोहम्मद साद कहीं छुप गया है । ऐसा सरकार कहती है। मगर मुझे लगता है यह गलत है और इसलिए जब आप मेरे लोगों को ढूंढ रहे हैं तो वे उन पर पत्थर बरसा रहे हैं। क्योंकि मेरे सदस्यों को पता है कि उन्हें कोरोना नहीं हो सकता। और आप जब जबरन मेरे लोगों का इलाज करेंगे तो मैं कैसे मान लूँ  कि मेरे लोगों को कोरोना हुआ है। आखिर मेरे समाज के  जिन सदस्यों ने एक सरकार को हराने  के लिए कोई विचारधारा तक नहीं अपनायी और कभी कांग्रेस , कभी सपा तो कभी बसपा की गोद  में  बैठते रहे। मेरा कोई चिंतन तक हिंदुस्तान में कभी पनपा ही नहीं और मेरे लोग सिर्फ एक नकारात्मक राजनीति के तहत सिर्फ इस सरकार को न आने देने के लिए या इसके सत्ता में होने पर इसको बाहर करने के लिए कोशिशें करते रहे तो  ऐसे में वे कैसे मान लें कि यह सरकार उनका इलाज करेगी। नहीं। आज से पहले तमाम सरकारें हमारा नाम ले लेकर हमें पुचकारती थीं मगर यह सरकार जबसे आयी है तब से कभी भी इस सरकार ने हमें " मेरे मुसलमान  भाइयों " कहकर पुकारा ही नहीं।  हमें कोई अलग से सहूलियत दी ही नहीं। एक सौ तीस करोड़ भारतवासी। आखिर हम कहाँ ढूंढें खुद को इसमें। यदि हमारा अलग से नाम लिए हमें पुकारा होता तो हमें पता चलता कि हम कहीं तो हैं।  गुड़ न देते पर गुड़ जैसा पुकार तो लेते। क्या हमें पहले किसी ने गुड़ दिया है?  गुड़ दिया होता तो हमारे लिए बनी सच्चर कमिटी हमारे हालत को ऐसे कैसे बयां करती कि हम किस हालत में जी रहे हैं।  हमें भले ही किसी ने कुछ न दिया हो पर हमें देश के संसाधनों पर हमारा पहला अधिकार का आश्वासन तो दिया है। क्या यह काम है ? पहले किसने भला यह कहने की हिम्मत की।  जिस सरकार पर भरोसा करने की बात करते हो यह तो इस बात से ही चिढ जाती थी। अब कहती है - 130 करोड़। कहते हैं कि विश्वास कर लो।
देश में भले ही कितने दंगे हुए हों और भले ही अधिकांश दूसरी सरकारों के राज काज में हुए हों पर 2002 क्यों हुआ था ? यदि गोधरा में 59 लोग मार दिए गए। जिन्दा जला दिए गए। तो क्या हिंसा का जवाब हिंसा होता है ? हम तो गाँधी के देश में हैं। अहिंसा परमो धर्मः। गाँधी जी ने कहा था - कोई एक गाल पे थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो। क्या जिन्होंने प्रतिकारात्मक दंगा किया वे गाँधी को भूल गए थे ? गांधी का इतना अपमान कैसे किया गया ? हमारी बात करते हो ? हमने तो जिन्ना  की बात पर पाकिस्तान के लिए वोट किया था। हम यहां हिंदुस्तान में बाई chance  नहीं बल्कि बाई choice रुके। और यह देश तो वैसे भी अतिथिः देवो भव वाला रहा है।  और हम तो अतिथि भी नहीं है।  तुम तो जानते ही हो हम कौन हैं ? या तो हम औरंगजेब वगैरह से साथ आये थे या इस देश के धर्मान्तरित हिन्दू हैं। हमने यहां आठ सौ साल राज किया है। समझे ?
एक बात और सुन लो।  हम थूकते हैं। गंद करते हैं। क्योंकि हम यहां हॉस्पिटल में अपने अल्लाह की मर्जी से नहीं लाये गए। काफिरों के द्वारा लाये गए हैं। इसलिए अपनी मर्जी से हटकर हम पर हुक्म नहीं चलाया जा सकता
और हम पर तुमने हाथ डाला ? क्या तुम्हें हमारी ताकत का पता नहीं कि मरकज भी हमने तब खाली करने का मन बनाया था जब तुम्हारे NSA अजित डोभाल आये थे। क्या तुम्हें इससे हमारी ताकत का अंदाजा नहीं लगा और तुम बेचारे उस थाना प्रभारी से उम्मीद लगाए थे कि वह हमारा मरकज खाली करवाए जो हमारे पिछवाड़े के पुलिस स्टेशन पर बैठता था। उसकी हमने सुनी जरूर पर की नहीं। क्योंकि हम अल्लाह के बन्दे हैं। भले ही हमारी कितनी ही बदनामी हो जाए। भले ही हमारे प्रति एक समाज में कितनी भी नकारात्मकता फैले पर हम अपनी राह  से नहीं डिगने वाले। कभी आओ न। हमारी नमाज में।  कितनी व्यवस्थित होती है हमारी नमाज।  तुम्हारे मंदिरों में तो भक्तों को यही पता नहीं होता कि भगवान् के दर्शन करके जब वह बाहर आएगा तो उसे उसकी चप्पल भी मिलेंगी या नहीं। हमारा अनुशासन हमें बहुत कुछ सिखाता है। हमें जो इंजेक्शन शुक्रवार को लगाया जाता है वह हमारे DNA  में है और हम आसानी से बदलने वाले नहीं।
आज कुछ लोग हमें अपनी कालोनियों में नहीं घुसने दे रहे। हमें शक की निगाह से देख रहे हैं हमारे आधार कार्ड चैक  किये जा रहे हैं। हम पर फलों और सब्जियों पर थूकने के आरोप लगाए जा रहे हैं। हमें घृणा की नजर से देखा  जा रहा है। मगर हमारा आका मोहम्मद साद कोई मैसेज हमारे बन्दों को देने को तैयार नहीं है। वह अमीर है और उसने कहा था कि हम अगर मस्जिद में रुके तो वहाँ की मौत बेहतर होगी। वह भी जरूर कहीं मस्जिद में ही होगा। वह नहीं चाहेगा कि अगर उसे कोरोना हुआ तो वह काफिरों के हाथों ठीक हो। हम अल्लाह के भरोसे हैं। हमारे बहुत से लोग छिपे बैठे हैं क्योंकि वे वैसा ही करने के लिए कहे गए हैं। हमारे प्रति तुम्हारी घृणा का क्या करना।  कल सब ठीक हो जाएगा।  बाल बनवाने तो हमारे ही पास आओगे न।  सब्जी , दूध , फल , BIKE  में पंक्चर , पोताई , मिस्त्री के काम , पेंट करना , कबाब खाना ।  ये सब किससे  कराओगे ? कब तक हमसे घृणा करोगे ? कभी अपने अंदर के छेद देखे हैं तुमने ? छन्नी हो। किसी का शिव  तो किसी का विष्णु तो किसी के राम ,किसी के कृष्ण। अपने मतभेद सुलझाओ तो हमें समझने आना।  हाँ , हमें पता है , हमारे लोगों ने मरकत  की गलती मानी होती , चुपचाप हॉस्पिटल में इलाज करवा लिया होता , जो जमाती छिपे बैठे हैं वे बाहर आकर इलाज करवा लेते , जो जमातियों को छिपाए बैठे है वे सूचना देकर बता देते कि जमाती यहाँ हैं और इनका इलाज कर दो। गलती हो गयी। बता देते कि  कौन कौन कब कब कहाँ किससे मिला है। थूकते नहीं। फसाद नहीं करते तो क्यों होती यह नफरत। सब कुछ बहुत नार्मल होता।  कही कुछ नहीं होने वाला था। पर हम लापरवाही के लिए माफ़ी किससे मांगे। और तुम कहोगे मत मांगो माफ़ी , पर इलाज भी क्यों कराएं। हमारे लोगों को कोरोना है भी या तुम्हारी साजिश है ? तुम्हें तो क्या यह डर  लग रहा है कि  कहीं कोरोना तुम्हारी सरकार न निगल ले।  इसलिए तुम इतनी मेहनत  कर रहे हो।  करो।  पर हम सहयोग नहीं करेंगे। सरकार  गिर जाये तो हमारे लोग तो आएंगे सरकार में। जैसे दिल्ली में आये। तब देखेंगे। दिल्ली में  हमने सरकार बनायी न ? हमारी पुरानी पार्टी कांग्रेस खुलकर हमारे साथ है।  इसलिए सब ठीक होगा।  हम माफ़ी उस सरकार  से मांगे  जिस पार्टी के हारने के लिए हमने आज तक अपनी कोई स्थायी सोच तक नहीं बनायीं ताकि हम किसी पार्टी से  जुड़े रहते ? सॉरी , इस सरकार का तो कुछ भी बर्दास्त नहीं हमें। क्योंकि हमें सिखाया गया है इससे नफरत करना।  मुरादाबाद , मेरठ , भागलपुर , बनारस , बम्बई  , इमरजेंसी या 1947 के दंगों ने भले ही हमें कितने ही जख्म दिए हों।  पर याद तो हमें 2002 ही है। क्योंकि वहां इस सरकार के राज काज में हमें प्रतिकारात्मक जवाब मिला था। इसलिए हम उसे नहीं भूल सकते। 2002 से पहले भले ही उस राज्य के लोगों ने साल के छह महीने CURFUE  में गुजारे हों पर उसके बाद तो वहाँ शांति ही छा गयी थी।
तुम हमें समझते क्या हो ? जब हमने कश्मीर से लाखों पंडितो को निकाला था तो क्या कोई ख़ास हलचल हुई थी। नहीं न। ये ही हमारी स्वीकार्यता थी। तुम हमें जमाती कहते हो , क्यों ? क्या हमारे लोगों ने तुम्हें हमको जमाती कहने से नहीं रोका ? रोका होगा। और तुम रुक नहीं रहे हो। हमें जमाती मत कहो क्योंकि इससे हमारी  बदनामी होती है।  हमारे धर्म , सॉरी, हमारे मजहब की बदनामी होती है। इसलिए हमें सिर्फ covid 19 के मरीज समझो। हमें पता है कि हमारे आका साद यदि हमारे लोगों से कहें कि वे बाहर निकल आएं तो शायद वे बाहर निकल आएंगे पर वे नहीं कहेंगे। क्योंकि वे अपने इरादों के पक्के हैं। और वे खुद भी अभी बाहर नहीं आएंगे क्योंकि अभी बाहर आये तो उनकी भारी सुताई हो सकती है और लॉक डाउन के कारण हमारे लोग प्रदर्शन के लिए भी वहाँ पर नहीं आ पाएंगे। तो फिर जान छुड़ाना भारी पड़  जाएगा इसलिए अल्लाह के भरोसे वे बैठे हैं और जैसे ही सही वक्त आएगा वे भी आ जाएंगे। चिंता मत करें। तुम्हें मेरी ताकत का तो अंदाजा होगा कि  जब जुनैद , अख़लाक़ और तबरेज मरे थे तब किस तरह से हमारे हजारों समर्थक अपने अपने बिलों से निकल आये थे और उन्होंने तुम्हारे लिए जवाब देना भारी कर दिया था। सारा देश हमारे लिए उमड़ पड़ा था। आज तुम्हारे तीन साधु मारे गए हैं। क्या कोई बोला तुम्हारे लिए। तुम्ही तो बोले। तुम्हारे बोलने से क्या होता है ? तुम इस देश की धर्म निरपेक्ष संस्कृति के प्रतिरूप तो नहीं हो। तुम कम्युनल हो। भगवा यदि सुबह के सूर्य में है तो क्या ? शिवाजी के ध्वज में था तो क्या ? तुम्हारी शिवसेना का प्रतीक है तो क्या ? हमारे ध्वज में है तो क्या ? तुम्हें समझना चाहिए कि यहाँ तो सब सावन के अंधे हैं और इन्हें सिर्फ हरा ही हरा दिखाई देता है। और वह हरा हमारे पास है।  सिर्फ हमारे पास।
इसलिए फर्क करो हममें और तुममें।  अगर हम बदल गए तो तुममें और हममें  फर्क क्या रहेगा। फर्क से ही तो दुनियां चलती है। तुम हमारे लोगों को रोकोगे ? कब तक ? कल का कायर हिन्दू आज का मुसलमान  है और आज का कायर हिन्दू कल का मुसलमान होगा ऐसी अफवाहें चलती रहती हैं। जानते हो न। अब पहचान गए मुझको। मैं खुद भी तो अफवाहों का ही शिकार हूँ पर तुम्हारी नहीं सुनूंगा। खैर , बहुत हो चुका। मिलेंगे कोरोना के बाद प्यार से। जैसे पहले मिले थे।  बॉय।
  

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

प्रिय रवीश ! कैसे हो।  आशा है , ठीक होगे। वैसे तो तुम मेरे घर के उस डिब्बे में रोज आते हो रात नौ बजे।  पर मैंने उस डिब्बे में तुम्हारे घर की तरफ झांकना बंद कर दिया था। तुम्हारा घर अक्सर मुझे तब तो विशेषकर बंद गली का आखिरी मकान लगता है जब तुम अपनी मुर्दा आँखों के साथ उस पर अपना घृणा पुराण बांचते रहते हो।  एक दिन एक फेस बुक पोस्ट पढ़ी थी तुम्हारे बारे में जिसे मैंने शेयर भी किया तो सोचा लिखूं। आज एक और  फेसबुक पोस्ट पढ़ी जिसमे मजाक किया गया था कि  जिन लोगों ने तुम्हारी बातों में आकर जन धन खाता नहीं खुलवाया था वे आज रो रहे हैं। पर फेसबुक तो सोशल  मीडिया है उस पर क्या यकीन करना। जब तुम्हारी ख़बरों पर यकीन करने की आदत छूट रही है तो सोशल मीडिया की क्या औकात। खैर , मैं  उनमें से नहीं जो तुम्हें रेबीज कुमार कहें। मेरे लिए तो तुम रवीश  ही हो। रेबीज तो कुत्ते को होता है।  तुम मेरी नजर में इंसान हो।
असल में तुम्हें देखकर दीवार फिल्म का एक सीन याद आता है जिसमें रवि विजय से कहता है कि भैया अब लौट आओ। विजय की यह लाइन तुम पर बिलकुल सही बैठती है कि " भाई अब मैं इतनी दूर चला आया हूँ कि  वापस जाना मुमकिन नहीं है। " यह तो फिल्म का सीन है लेकिन यहां पर रवि तुम हो और विजय के तथाकथित अहसास में लिपटे हुए जो मेरे जैसों के लिए तुम्हारी एक खास समाज और सरकार के प्रति नफरत और उसकी पराजय का एक खुला दस्तावेज है  जिसमे तुम नफरत करते करते इतनी दूर निकल आये हो कि  अब यदि तुम लौटना भी चाहो तो मुमकिन नहीं होगा तुम्हारे लिए।  क्योंकि अगर तुम अब लौट गए तो तुम्हारे लिए यह यकीन करना मुश्किल हो जाएगा कि तुम आज तक गलत थे।इसलिए तुमने जो पथ चुना है तुम्हारे व्यक्तित्व के साथ वही सूट करता है।  अपने उस कलेवर से बाहर निकल मत जाना।  क्योंकि जब तुम वहां से बाहर निकलोगे तो तुम्हारी स्थिति ज्यादा खराब होगी।
तुम तब मेरे लिए हैरानी का विषय बन जाते हो जब तुमने दिल्ली दंगों की रिपोर्टिंग करते हुए कहा था कि " फुरकान मारा गया , अंकित शर्मा की मृत्यु हो गई "। तुमको बैठे बैठे ही पता चल गया था कि  फुरकान मारा गया था। यानि उसकी हत्या की गयी थी। और इसी तरह तुम्हें पता चल गया था कि अंकित शर्मा की मृत्यु हो गयी थी।  कैसे हुई यह तुम्हें  पता नहीं चला पर तुम्हारी बात से पता चलता था कि उसकी मृत्यु ही हुए है न कि हत्या , जैसे कोई डेंगू या हैज़ा आदि से मर जाता है या फिर किसी एक्सीडेंट में जिसमें क्लेम करने लायक कुछ नहीं होता।
दिल्ली  दंगों में पुलिस पर रिवाल्वर तानने वाले का अनुराग नाम भी तुम तुरंत खोज लाये थे जैसे उसका आधार कार्ड तुम्ही ने बनाया होगा। पर वह तो अनुराग नहीं था। तुम्हारी चहेता रहा होगा सो तुम उसका नाम छिपाते फिर रहे थे । हैरानी होती है।
एक बात सुनो। जो पत्रकारिता तुमने की होगी उसके पाठ्यक्रम में तटस्थता निष्पक्षता जैसे शब्द जरूर गढ़े  गए होंगे पत्रकारों के लिए और समझाया भी गया होगा कि पीत पत्रकारिता से क्या क्या नुकसान  होते हैं। पर तुम जो पत्रकारिता करते हो उसके लिए तो कोई शब्द उस समय नहीं रचा गया होगा। लेकिन अब पत्रकारिता संस्थानों की जरूरत बन गए से लगते हो तुम। तुम्हारी पत्रकारिता को एक अलग दर्जा दिया जाना चाहिए और इस पर एक अलग चैप्टर लिखा जाना चाहिए और पढ़ाया जाना चाहिए। तुम्हारी पत्रकारिता के कुछ पहलुओं के कारण तुम एक ऐसी विषय वस्तु  बन गए हो जो अध्ययन का विषय बन गयी है। उस वजह से तुम भी एक समस्यात्मक बालक की तरह हो गए हो जिसके अध्ययन की जरूरत होती है। तुम्हारे अध्ययन से यह  चलेगा कि  किस प्रकार से कोई व्यक्ति पत्रकारिता के वांग्मय से बाहर निकलकर पत्रकारिता की एक नयी परिभाषा लिख गढ़ देता है। हालाँकि तुम्हारी यह पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ तुम जैसे लोगों तक ही सीमित हो गयी है। मुझे पता है कि  कितने ही चैनल हैं जो खबर दिखाते नहीं हैं बल्कि बनाते हैं और दिखाते हैं। उनके शो देखकर लगता है कि  किसी धारावाहिक दिखाने वाले चैनल के सामने बैठे हैं। वो गलत हैं और इससे किसी को क्यों कर ऐतराज होगा कि  वे गलत हैं। पर तुम और तुम्हारा क्या ?
खैर , पी एम  के बाइस तारीख़  के घंटी थाल पर तुम क्या बोले मुझे पता है। जब इटली वाले यही घंटी और थाल बजा रहे थे तो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं थी। पर जब तुम्हारी धृणा के पात्र एक व्यक्ति ने एक समाज के हौसले को बढ़ाने के लिए यही कह दिया तो तुम्हारी समस्या बढ़ गयी। मुझे पता है कि तुम क्यों परेशां थे। तुम सोच रहे थे कि कैसे तुम्हारी घृणा के पात्र की बात पर देश ध्यान दे रहा है। तुम्हारा क्या होगा ? पांच अप्रैल की रात तो तुम गायब ही हो गए थे। उस रात जब तमाम चैनल आठ बजे से नौ बजे तक लोगों को दीपक जलाने के लिए प्रेरित कर रहे थे तब एक तुम्हारा यह हिंदी चैनल तुम्हारे अन्नदाता प्रणव राय  के साथ इंग्लिश debat  में व्यस्त था।  हिंदी चैनल पर मैंने शायद ही पहले कोई debat  इंग्लिश में देखी  हो मुझे याद नहीं। क्यों किया तुम्हारे चैनल ने ऐसा ? यह बताने की जरूरत है क्या ? यह वह भाव है जो तुम्हारे लुटियंस गैंग के लोगों के मन में कूट कूट कर भरा है जिसमें  वे इस सरकारी स्कूल से पढ़े लिखे और फर्राटेदार इंग्लिश से दूर पी एम को फूटी आँख भी बर्दास्त करने के मूड में नहीं हैं।  वही उस पांच तारीख की रात को अंग्रेज बनकर तुम्हारे प्रणव राय  साहब ने यही दिखाने की कोशिश की कि वे ज्यादा सोशल और हाइब्रिड श्रेणी के लोग हैं। खैर , फिर मजबूरन तुम्हारे चैनल ने वह दिए की खबर दिखाई। 
अब जब हर कोई यह कह रहा है कि तुम्हारी घृणा का पात्र वह व्यक्ति पूरी तरह से इस कोरोना बीमारी से निपटने के लिए दिन रात एक कर रहा है तब तुमको सूझ नहीं रहा है कि  किस प्रकार से तुम प्रशंसा के दो शब्द कह सको। आजकल समाचार पढ़ते हुए तुम्हारे चेहरे पर छाई मुर्दनी देखने लायक है जो इस भाव  को प्रकट करती सी प्रतीत होती है कि  अरे , यह बीमारी तीसरी स्टेज से पीछे क्यों है।  मुझे पता है कि तुम्हारा गैंग सालों से इस आदमी को घेरने की कोशिश कर रहा है मगर हार रहा है। एक बात कहूँ , यह आदमी दबाव में ज्यादा बेहतर बैटिंग करता है। इसलिए इसकी शासन की बैटिंग में निरंतर निखार आ रहा है। तुम्हारे चेहरे के उड़े हुए तोते  मुझे इस साफ़ होते आसमान में साफ़ दिखाई देते हैं।  मैं नहीं कहता  कि  पत्रकार को पी एम या सरकार की प्रशंसा करनी चाहिए।  उसका काम समीक्षा करना होता है।  मगर समीक्षा में सरकार की  सकारात्मकता   को भी सामने रखा जाता है। मगर तुमसे यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हाँ , जहां वह गलत करेगा वहां तुम चुप रहोगे तो  सवाल उठेंगे मगर सबको पता हैं कि इस समय क्या हालात हैं ऐसे में तुम अगर बेरोजगारी का रोना रोओगे तो कोई भी हंसेगा।  स्वाभाविक है इस समय यदि तुम यह ढूढ़ते कि  कहाँ भोजन नहीं पहुँच रहा है कहाँ क्या अव्यवस्था है आदि तो कोई भी सहमत होता मगर अब तुम क्या चाहते हो कि  लॉक डाउन ख़त्म कर दें।  तो थोड़ा सोचना कि मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त करके कहीं तुम पर नकारात्मकता ज्यादा हावी तो नहीं हो गयी है ? क्योंकि तुम्हारी एक दूसरी बहन अरुंधति राय  जिसने खुद भी मैग्सेसे पुरस्कार पाया है और एन आर सी , एन  पी आर के दौरान लोगों को रंगा और बिल्ला का ज्ञान दे रही थी , इसी नकारात्मकता की शिकार है जिससे यह तो तय हो गया है कि  मैग्सेसे किस किस को मिल सकता है।  और हाँ , थोड़ा तब्लीग़ियों के बारे में बोल दो।  साद को कह दो कि  कह दे लोगों से कि  बाहर निकल आएं जहां जहां छिपे हैं।  उन पर दया करो।  जो थूक रहे हैं थोड़ा उनके पास भी चले जाओ और समझा आओ। तुम्हें तो ग्राऊंड पत्रकारिता का बहुत शौक है न। मेरी तो पसंद रहे हो तुम। मगर तुम्हारी नकारात्मकता बीमार कर देगी।  छोड़ चुका  था तुम पर सोचना कि  कहीं तुम को देखते देखते खुद बीमार न हो जाऊं पर चार दिन पहले एक फेसबुक पोस्ट पर तुम्हारे बारे में लिखे एक लेख ने फिर से उजाला भर दिया कि  तुम्हारे अँधेरे के बारे में लिखूं। बुढ़ापे तक तुम बीमार हो चुके होंगे चिंतन के स्तर  पर।  अभी तो ऐसा ही लगता है। अब फिर तुम पर सोचना होगा।  वह ईश्वर वह राम तुम्हारी रक्षा करे जिसकी रामायण के प्रसारण पर तुम कुछ दिन पहले बिलबिला गए थे बे।