माँ कहा करती थी - उस पीपल के पेड़ के पास रात को मत जाना। वहां भूत रहता है। कभी जाने की हिम्मत ही नहीं हुई। फिर गलती से एक दिन उस भूत से मुलाकात हो गयी। बस फिर क्या था। भय ख़त्म हो गया।
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यह भी कहा गया है - तावत् भयान्न भेतव्यं यावत् भयम् अनागतम्। मतलब - भय से तब तक मत डरो जब तक वह सामने न आ जाए।
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जब तक कोरोना का भूत दो चार की संख्या में घूम रहा था तब तक डर ही डर था। अब तो भूतों की संख्या बढ़ती जा रही है तो ? पहले भूत हमारे बीच था। अब लगता है कहीं हम भूतों के बीच न रहने लगें। हम तो डरते रहे। बचते रहे। अब काहे को रोना। और अब भय ख़त्म हो गया है। जब बहुत सारे अंदर हो जाएंगे तब क्या ? कहा है न - मन के हारे हार है मन के जीते जीत। तो अब तो भूत आ ही गया है। सारा मंत्रिमंडल अंदर जाने को तैयार बैठा है। महाराज जी से जो लोग यह आशीर्वाद लेने जाते रहे होंगे कि उस कोरोना के भूत से भी बच जायेंगे वे भी कहीं न कहीं अपने कुल देवता के आगे माथा टेक रहे होंगे। भय का भूत ही तो है। वरना उससे भी पुराना भूत तो हर साल आता है। तैयारी कर रहा है आने की। डेंगू का भूत। नए आगंतुक के चक्कर में पुराने वाले को भूल गए। उसके टोने टोटके की भी तैयारी करके रखें। पपीते के पत्ते, गिलोय वगैरह। दवा तो उसकी भी ऐसे ही चलनी है। ध्यान रहे कि दो भूत एक साथ न लग जाएँ। मुश्किल ज्यादा होगी। पानी ज्यादा जमा न होने दें। social gathering के साथ साथ अब water gathering से बचने का भी वक़्त आ चला है। एक आदमी तो दिखाई भी देता है जिससे कोरोना फैलता है। पर वह मरी सी टांगों वाला मच्छर जो कहीं पर भी साफ पानी में चुपचाप जन्म प्राप्त करके किसी को भी काट ले। उससे डर भूल गए ? भूल भी गए तो यह तो याद रखें कि कुल मिलाकर दूरी बनाये रखें। जिन्दा रहे तो नजदीक आ लेंगे।
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हम से अलग एक और भूत हवा में घूम रहा है। टिड्डियों का भूत। अन्नदाता की नींद उड़ाने वाला भूत। उससे तो हमें कभी डर नहीं लगा। अपने घर तक न आये तब तक भूत भी कैसा और डर भी कैसा। जब तक पडोसी के यहां संकट है तब तक क्या दिक्कत है। अम्लान तूफ़ान आया। डर लाया। हम तो सुरक्षित रहे। डरे भी नहीं। अब गुजरात में चक्रवात है। तैयारी हो रही है। वह डर हमें नहीं। दो दिन पहले भूकंप आया। क्या भूकंप के भूत से हम नहीं डरते। क्यों डरें। कहा तो है - तावत् भयान्न...................... और क्या। जब तक डर सामने न हो तो डर कैसा। रात को भूकंप आ जाए आठ या नौ स्केल पर तो ? कुछ पता है ? पर डर जब हलाल के अंदाज में आता है तो डर ज्यादा लगता है। झटके में डर कैसा ? एकदम। सब ख़त्म।
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तो सरकार ने भी डर से मुकाबला करने की ठान ही ली। सब खोलना शुरू कर दिया । देखते हैं , क्या होता है। जिसे डर होगा बैठा रहेगा घर के अंदर। निडर होगा तो जायेगा बाहर। करेगा खरीददारी। खायेगा होटल में। रेस्टॉरेंट में। जिम में। सिनेमा हॉल। शॉपिंग मॉल। डरपोक होगा तो डरा रहेगा। डर के आगे जीत है। किस डर के आगे। लापरवाही से भुला दिए गए डर के आगे या सावधानी से अपनाये गए डर के आगे। तय करना पड़ेगा।
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जब पहले पहल कोरोना ड्यूटी आयी चिंता हुई। थोड़ा डर लगा। पीपल के पेड़ के भूत की मानिंद चार दिन में डर खत्म। मगर डर के साथ ही डर खत्म होता है। डर कर तो रहेंगे न तभी सावधानी बरती जाएगी और डर खत्म होगा। वरना सुना है - सावधानी हटी दुर्घटना घटी। इसलिये कभी नहीं से देर भली। हर एक खुद में एक दुनियां है। शूट आउट वाला मामला होता तो सुलट लेते। मगर यहां तो गोली मारें किसे। दिखाई नहीं देता। उसे मारने में गोली कामयाब नहीं और खुद को बचाने के लिए गोली ही नहीं। तो भय से अनावश्यक भीत न हों मगर थोड़ा भयभीत तो रहें ताकि सावधान रह सकें। गोलगप्पे टिक्कियां खत्म नहीं हो रहीं। खतरा खाने वालों पर है।
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सूक्तियां और मुहावरे अलग अलग कालखंड में बनते बिगडते खत्म होते जाते हैं और गलत साबित होने पर इन पर केस तो नहीं चला सकते। इसलिये जिंदगी में कोई सूक्ति सूक्त कहानी, किंवदन्ती या मुहावरा कितना भी डराये या भड़काए। भड़कने या डरने से पहले सोच लें कि अकल और जिंदगी अपनी है और अक्ल सबसे ऊपर के हिस्से में है। दिल से भी ऊपर। और जिंदगी की प्राथमिकता सर्वोपरि। अक्ल न हो तब भी जिंदगी तो जिंदगी है पता नहीं फिर कब मिले? 🤔
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