लौकी। रोज खायी जा सकती है ? हाँ भी और नहीं भी। आदमी मरीज हो या साथ में कोई और सब्जी हो या हर रोज एक नए तरीके से बनी हो। पर यदि तरीका एक ही हो तो ? मुश्किल है। मरीज के लिए भी। सूप पिया जा सकता है।
कथा। सत्य नारायण की कथा कई बार सुनी है। आज कल इस कथा के सुनने वालों का क्या हाल है ? कलावती। सत्यनारायण कथा की एक पात्र। आज कल जब कथा होती है हालात देखे हैं आपने ? निचले फ्लोर पर कथा हो रही है और ऊपरी फ्लोर पर पार्टी। साथ साथ चलते हैं। यह हमारी आध्यात्मिक हालत है जिसे ये हालात दर्शाते हैं। बुरा न मानें अगर सत्य कहा हो ? अब कथाएं प्रभु केंद्रित नहीं बल्कि भक्त केंद्रित हो गयी हैं। अपने यहां। एक धर्म आज भी है जिसमे आध्यात्मिकता पूरे चरम पर है आज भी। कट्टरता की हद तक। वही 72 हूरों वाला धर्म। बुराई करूँ क्या ? यदि उनकी भी बुराई करूंगा तो फिर अपने वाले की बुराई क्यों ? किसी एक की ही तो बुराई होगी। या तो उसकी या फिर इसकी।
वीरभोग्या वसुंधरा। धरती के बारें में कहा गया है कि धरती वीरों के द्वारा भोगी जाती है। जो कायर हैं वे धरती को भोगने के अधिकारी नहीं। वे तो मर जाते हैं मार दिए जाते हैं। सुना हैं न। जो डर गया समझो मर गया। और जीत ? वो भी तो डर के आगे ही होती है। डर के आगे जीत है।
एक बात और कही है - सुवर्णपुष्पितां पृथिवीं विचिन्वन्ति नरास्त्रयः। शूरश्च कृतविद्यश्चः यश्च जानाति सवितुम।। यानि सोने से भरी धरती को तीन ही लोग भोगते हैं। शूर यानि पराक्रमी , कृतविद्य यानि जिसने ज्ञान प्राप्त किया हो या जो सेवा करना जानता हो। सेवा मतलब। आज के सन्दर्भ में चमचागिरी। आपको तो पता है - चमचे आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं।
ये सब लिखने की जरूरत क्या है ?
है। जिन्होंने तलवार के दम पर विजय पायी उनका खौफ बरक़रार रहना स्वाभाविक है। जिसके घर में रोज या हर तीसरे दिन किसी निरीह प्राणी की गर्दन कटती हो उसका खौफ बना रहना स्वाभाविक है। अब वो आपके मोहल्ले में ज्यादा हो जाएँ तो ? छोड़ दो धरती या वह जगह। पलायन कर जाओ। कायर की भांति या शरीफ की भांति। क्योंकि शरीफ बनने में थोड़ा योगदान कायरता का भी तो होता होगा। वरना यह शौक दूसरों को भी होता। वे भी शरीफ बन जाते। अजीत डोभाल जी की एक स्पीच सुनी था। यूट्यूब पर उपलब्ध है। कहते हैं - मैं नहीं कहता कि आप मेरी बात से सहमत होंगे। लेकिन उस पर गौर जरूर करियेगा। इतिहास में इसका महत्व ज्यादा नहीं है कि कौन सही था शरीफ था बल्कि इस बात का महत्व ज्यादा है कि जीत किसकी हुई। किस तरह से हुई इसका भी ज्यादा महत्व नहीं है। यदि सही और शरीफ का महत्व होता तो दिल्ली में बाबर रोड न होती , वहाँ राणासांगा रोड होती। क्योंकि राणासांगा सही थे और बाबर गलत। पर ऐसा है नहीं। इतिहास ने हमेशा उन लोगों का साथ दिया है जिन्होंने विजय पायी है। और यह विजय ताकत से ही हासिल हुई है। आप सहमत हों या न हों। पर इस एक बात पर विचार चिंतन जरूर करें। मानें या न मानें।
अजीत डोभाल साहब की यह बात काबिले गौर है।
इतनी लम्बी भूमिका ?
आजकल मुरारी बापू की चर्चा है। राम कथा में हुसैन गायन करते हैं। पहले से करते आ रहे हैं। एक बार ब्रह्म ज्ञान दे रहे थे। ईश्वर और जीव के ज्ञान में कहा - तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ , तू मुझमे है मैं तुझमे हूँ। यानि ईश्वर भक्त से कहता है - हे भक्त ! तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ। हम दोनों एक दूसरे में हैं। तब कोई हल्ला नहीं हुआ था। आज माहौल दूसरा है। वरना हुस्न और इश्क़ पर बवाल बनना स्वाभाविक है। बनाने वाले तैयार बैठे हैं। हुसैन गायन करते करते बापू बहुत कुछ लम्बा चौड़ा रहमाने रहीम वगैरह करते हैं। चैनल पर देखा। उसके बाद यूट्यूब पर दूसरा वही वीडियो देखा तो पता चला कि बापू के बाद के शब्द थे - लो मैंने गा दिया रहमाने रहीम। अब तुम गाओ रघुपति राघव राजा राम। स्वाभाविक है , कोई बुराई नहीं हैं। वे तो चुनौती दे रहे थे। चैनल वाले ने आधा ही दिखाया। चैनल भी गुजरती था। बापू भी गुजरती। पी एम भी गुजराती। एच एम भी गुजराती। नोटों पर छाया हुआ भी गुजराती। आर बी आई वाला भी गुजराती। डांट पड़ी होगी। चैनल वाला चुप हो गया है तब से। हालाँकि एक दूसरे युवा संत से चिन्मयानन्द जी से खुद अदालत बनकर माफ़ी तो मंगवा ही ली उसने। वहाँ भी करोड़पति भक्त रहे होंगे। डांट पड़ी होगी। एक दूसरी साध्वी अल्लाह जाप कर रही थीं। ॐ की जगह अल्लाह ने ले ली थी।और भी कुछ अन्य हैं। कुछ राजनैतिक भी हैं। उनकी तो बात और ही है वरना मोदी जी के भाषण के दौरान नमाज पर उनकी तीन मिनट की चुप्पी पर उन्हें भी जवाब देना पड़ जाए पर वहाँ मामला राजनीति का है।
अब समस्या यह है कि यह सब क्यों है ? इसलिए है कि कोई कब तक हिंदुस्तानी अनार खाये। इसलिए तो अफगानी अनार मंगवाते हैं। कई अन्य देशों से खजूर भी आता है। इस पर कोई बवाल तो नहीं हो सकता। तभी होगा जब कोई कोरोना यहां से आएगा। तो ज्ञान तो वैसा ही है जैसे लौकी। बेस्वाद। और बार बार वही कथा। सुनाने वाला भी वही। श्रोता अलग अलग पर टीवी पर तो वही। तो सुनाने वाले को अगर लगे कि लोग उबासी ले रहे हैं या बोर हो रहे हैं तो क्या करे। तो फिर होता हैं न। खाने में स्वाद न हो तो ? थोड़ा एक्स्ट्रा मसाला। मक्खन। ताकि स्वाद आ जाये। तो फिर भोजन की तो बात अलग है। हर देश का भोजन हर देश में लोकप्रिय हो सकता है। पर आध्यात्मिकता में मखना कैसे कैसे लगाया जाये ? कथा को भक्त केंद्रित करना पड़ेगा। मार्किट की डिमांड के हिसाब से। यह नहीं चलेगा कि जो मेरे पास है वह ले लो। जो भक्त को चाहिए वह देना पड़ेगा। अब भक्त को क्या चाहिए ? व्हाट्सप्प या फेसबुक। इंस्टाग्राम या यूट्यूब। या फिर कुछ और। आजकल नेटफ्लिक्स भी आया हैं। भारतीय संस्कृति की पूर्व प्रचारक ' क्योंकि सास भी कभी बहू थी ' से संयुक्त परिवार को तरजीह देने वाली मगर असल जिंदगी में सिंगल फॅमिली पसंद करने वाली। और अब पथभ्रष्ट होकर वेब सीरीज के जरिये भक्तों की मांग पूरी करने को आतुर। ये सब भी भक्त ही हैं न। एकता कपूर के। मगर बापू के भक्त तो अच्छे लोग हैं। चुटकुलों और शेरो शायरी से ही काम चला लेते हैं। सही ब्रह्म ज्ञान यदि दिया जाने लगे तो खोपड़ी के दो हो जाएंगे। सच्चा ज्ञान देने वाले कृपालु जी महाराज तो अब रहे नहीं। तो बापू भी भक्त की मांग के हिसाब से चल पड़े। भक्त किस बात पर हंसेगा। कैसे उसका टाइम पास होगा। अच्छे से। मुझे समझ नहीं आता कि कैसे ऐसे बापू अपनी कथा नौ दिन में पूरा कर लेते होंगे। हर वक्त भक्त के हिसाब से चलना। पर बात आगे की है।
बापू के दूसरे वीडियो भी मिले। बापू वहां भी हुसैन गायन। कव्वाली , अल्लाह आदि करते मिले। तो जब उन्हें एक बार में चुनौती पसंद नहीं आयी तो फिर आप काहे हुसैन गायन करने लगे हैं। बार बार। क्या यह वही रोग है जो इस देश में लगा है। सेक्युलर जमात वाला रोग। सिख , पारसी , बौद्ध , जैन , ईसाई। इनका पाठ तो कभी नहीं होता। इन्हें देश में खतरा भी नहीं है। शिकायत भी नहीं है। तो सफाई सिर्फ एक को क्यों ? क्या इसलिए कि बाकियों ने आप पर कभी शासन नहीं किया ? शासन ईसाइयों ने किया तो देश ईसाई तो हुआ ही पड़ा है शिक्षा परिवेश के हिसाब से। पर वे आज यहाँ नहीं हैं और तलवार के दम वाले नहीं बल्कि दिमाग से शासन करने वाले हैं। तो तलवार का भय आज भी है क्या ? जो राजा की तरह राज करते हैं और विक्टिम की तरह खुद को सामने रखते हैं। 70 साल से विक्टिम बने हुए हैं। 6 साल से तो बहुत ज्यादा।
कथा। सत्य नारायण की कथा कई बार सुनी है। आज कल इस कथा के सुनने वालों का क्या हाल है ? कलावती। सत्यनारायण कथा की एक पात्र। आज कल जब कथा होती है हालात देखे हैं आपने ? निचले फ्लोर पर कथा हो रही है और ऊपरी फ्लोर पर पार्टी। साथ साथ चलते हैं। यह हमारी आध्यात्मिक हालत है जिसे ये हालात दर्शाते हैं। बुरा न मानें अगर सत्य कहा हो ? अब कथाएं प्रभु केंद्रित नहीं बल्कि भक्त केंद्रित हो गयी हैं। अपने यहां। एक धर्म आज भी है जिसमे आध्यात्मिकता पूरे चरम पर है आज भी। कट्टरता की हद तक। वही 72 हूरों वाला धर्म। बुराई करूँ क्या ? यदि उनकी भी बुराई करूंगा तो फिर अपने वाले की बुराई क्यों ? किसी एक की ही तो बुराई होगी। या तो उसकी या फिर इसकी।
वीरभोग्या वसुंधरा। धरती के बारें में कहा गया है कि धरती वीरों के द्वारा भोगी जाती है। जो कायर हैं वे धरती को भोगने के अधिकारी नहीं। वे तो मर जाते हैं मार दिए जाते हैं। सुना हैं न। जो डर गया समझो मर गया। और जीत ? वो भी तो डर के आगे ही होती है। डर के आगे जीत है।
एक बात और कही है - सुवर्णपुष्पितां पृथिवीं विचिन्वन्ति नरास्त्रयः। शूरश्च कृतविद्यश्चः यश्च जानाति सवितुम।। यानि सोने से भरी धरती को तीन ही लोग भोगते हैं। शूर यानि पराक्रमी , कृतविद्य यानि जिसने ज्ञान प्राप्त किया हो या जो सेवा करना जानता हो। सेवा मतलब। आज के सन्दर्भ में चमचागिरी। आपको तो पता है - चमचे आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं।
ये सब लिखने की जरूरत क्या है ?
है। जिन्होंने तलवार के दम पर विजय पायी उनका खौफ बरक़रार रहना स्वाभाविक है। जिसके घर में रोज या हर तीसरे दिन किसी निरीह प्राणी की गर्दन कटती हो उसका खौफ बना रहना स्वाभाविक है। अब वो आपके मोहल्ले में ज्यादा हो जाएँ तो ? छोड़ दो धरती या वह जगह। पलायन कर जाओ। कायर की भांति या शरीफ की भांति। क्योंकि शरीफ बनने में थोड़ा योगदान कायरता का भी तो होता होगा। वरना यह शौक दूसरों को भी होता। वे भी शरीफ बन जाते। अजीत डोभाल जी की एक स्पीच सुनी था। यूट्यूब पर उपलब्ध है। कहते हैं - मैं नहीं कहता कि आप मेरी बात से सहमत होंगे। लेकिन उस पर गौर जरूर करियेगा। इतिहास में इसका महत्व ज्यादा नहीं है कि कौन सही था शरीफ था बल्कि इस बात का महत्व ज्यादा है कि जीत किसकी हुई। किस तरह से हुई इसका भी ज्यादा महत्व नहीं है। यदि सही और शरीफ का महत्व होता तो दिल्ली में बाबर रोड न होती , वहाँ राणासांगा रोड होती। क्योंकि राणासांगा सही थे और बाबर गलत। पर ऐसा है नहीं। इतिहास ने हमेशा उन लोगों का साथ दिया है जिन्होंने विजय पायी है। और यह विजय ताकत से ही हासिल हुई है। आप सहमत हों या न हों। पर इस एक बात पर विचार चिंतन जरूर करें। मानें या न मानें।
अजीत डोभाल साहब की यह बात काबिले गौर है।
इतनी लम्बी भूमिका ?
आजकल मुरारी बापू की चर्चा है। राम कथा में हुसैन गायन करते हैं। पहले से करते आ रहे हैं। एक बार ब्रह्म ज्ञान दे रहे थे। ईश्वर और जीव के ज्ञान में कहा - तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ , तू मुझमे है मैं तुझमे हूँ। यानि ईश्वर भक्त से कहता है - हे भक्त ! तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ। हम दोनों एक दूसरे में हैं। तब कोई हल्ला नहीं हुआ था। आज माहौल दूसरा है। वरना हुस्न और इश्क़ पर बवाल बनना स्वाभाविक है। बनाने वाले तैयार बैठे हैं। हुसैन गायन करते करते बापू बहुत कुछ लम्बा चौड़ा रहमाने रहीम वगैरह करते हैं। चैनल पर देखा। उसके बाद यूट्यूब पर दूसरा वही वीडियो देखा तो पता चला कि बापू के बाद के शब्द थे - लो मैंने गा दिया रहमाने रहीम। अब तुम गाओ रघुपति राघव राजा राम। स्वाभाविक है , कोई बुराई नहीं हैं। वे तो चुनौती दे रहे थे। चैनल वाले ने आधा ही दिखाया। चैनल भी गुजरती था। बापू भी गुजरती। पी एम भी गुजराती। एच एम भी गुजराती। नोटों पर छाया हुआ भी गुजराती। आर बी आई वाला भी गुजराती। डांट पड़ी होगी। चैनल वाला चुप हो गया है तब से। हालाँकि एक दूसरे युवा संत से चिन्मयानन्द जी से खुद अदालत बनकर माफ़ी तो मंगवा ही ली उसने। वहाँ भी करोड़पति भक्त रहे होंगे। डांट पड़ी होगी। एक दूसरी साध्वी अल्लाह जाप कर रही थीं। ॐ की जगह अल्लाह ने ले ली थी।और भी कुछ अन्य हैं। कुछ राजनैतिक भी हैं। उनकी तो बात और ही है वरना मोदी जी के भाषण के दौरान नमाज पर उनकी तीन मिनट की चुप्पी पर उन्हें भी जवाब देना पड़ जाए पर वहाँ मामला राजनीति का है।
अब समस्या यह है कि यह सब क्यों है ? इसलिए है कि कोई कब तक हिंदुस्तानी अनार खाये। इसलिए तो अफगानी अनार मंगवाते हैं। कई अन्य देशों से खजूर भी आता है। इस पर कोई बवाल तो नहीं हो सकता। तभी होगा जब कोई कोरोना यहां से आएगा। तो ज्ञान तो वैसा ही है जैसे लौकी। बेस्वाद। और बार बार वही कथा। सुनाने वाला भी वही। श्रोता अलग अलग पर टीवी पर तो वही। तो सुनाने वाले को अगर लगे कि लोग उबासी ले रहे हैं या बोर हो रहे हैं तो क्या करे। तो फिर होता हैं न। खाने में स्वाद न हो तो ? थोड़ा एक्स्ट्रा मसाला। मक्खन। ताकि स्वाद आ जाये। तो फिर भोजन की तो बात अलग है। हर देश का भोजन हर देश में लोकप्रिय हो सकता है। पर आध्यात्मिकता में मखना कैसे कैसे लगाया जाये ? कथा को भक्त केंद्रित करना पड़ेगा। मार्किट की डिमांड के हिसाब से। यह नहीं चलेगा कि जो मेरे पास है वह ले लो। जो भक्त को चाहिए वह देना पड़ेगा। अब भक्त को क्या चाहिए ? व्हाट्सप्प या फेसबुक। इंस्टाग्राम या यूट्यूब। या फिर कुछ और। आजकल नेटफ्लिक्स भी आया हैं। भारतीय संस्कृति की पूर्व प्रचारक ' क्योंकि सास भी कभी बहू थी ' से संयुक्त परिवार को तरजीह देने वाली मगर असल जिंदगी में सिंगल फॅमिली पसंद करने वाली। और अब पथभ्रष्ट होकर वेब सीरीज के जरिये भक्तों की मांग पूरी करने को आतुर। ये सब भी भक्त ही हैं न। एकता कपूर के। मगर बापू के भक्त तो अच्छे लोग हैं। चुटकुलों और शेरो शायरी से ही काम चला लेते हैं। सही ब्रह्म ज्ञान यदि दिया जाने लगे तो खोपड़ी के दो हो जाएंगे। सच्चा ज्ञान देने वाले कृपालु जी महाराज तो अब रहे नहीं। तो बापू भी भक्त की मांग के हिसाब से चल पड़े। भक्त किस बात पर हंसेगा। कैसे उसका टाइम पास होगा। अच्छे से। मुझे समझ नहीं आता कि कैसे ऐसे बापू अपनी कथा नौ दिन में पूरा कर लेते होंगे। हर वक्त भक्त के हिसाब से चलना। पर बात आगे की है।
बापू के दूसरे वीडियो भी मिले। बापू वहां भी हुसैन गायन। कव्वाली , अल्लाह आदि करते मिले। तो जब उन्हें एक बार में चुनौती पसंद नहीं आयी तो फिर आप काहे हुसैन गायन करने लगे हैं। बार बार। क्या यह वही रोग है जो इस देश में लगा है। सेक्युलर जमात वाला रोग। सिख , पारसी , बौद्ध , जैन , ईसाई। इनका पाठ तो कभी नहीं होता। इन्हें देश में खतरा भी नहीं है। शिकायत भी नहीं है। तो सफाई सिर्फ एक को क्यों ? क्या इसलिए कि बाकियों ने आप पर कभी शासन नहीं किया ? शासन ईसाइयों ने किया तो देश ईसाई तो हुआ ही पड़ा है शिक्षा परिवेश के हिसाब से। पर वे आज यहाँ नहीं हैं और तलवार के दम वाले नहीं बल्कि दिमाग से शासन करने वाले हैं। तो तलवार का भय आज भी है क्या ? जो राजा की तरह राज करते हैं और विक्टिम की तरह खुद को सामने रखते हैं। 70 साल से विक्टिम बने हुए हैं। 6 साल से तो बहुत ज्यादा।
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