गुरुवार, 4 जून 2020

जो शांतिदूत शरिया शरिया चिल्ला कर अपना इस्लाम बचाने का हवाला देते रहते हैं वे जानते तो होंगे कि वे सेक्युलर देश में हैं। क्या सेकुलरिज्म अच्छी पद्धति है ? यदि उन्हें यह अच्छा लगता है तो जानना चाहिए कि  कितने इस्लामिक देश में उन्होंने इस सेकुलरिज्म को अपनाने के लिए प्रस्ताव भेजे हैं। यदि यह इतना अच्छा है तो कितने लोग हैं जिन्होंने इस्लामिक देशों को कहा है कि भारत एक सेक्युलर देश है और उन्हें इसको अपनाने में कोताही नहीं बरतनी चाहिए। कोई डाटा है ? कोई कहेगा उन्हें क्या पड़ी है ? क्यों ? यदि उन्हें पाकिस्तानी मुस्लिमों  की पड़ी है कि सी ए  ए में उन्हें भी लाया जाये तो उन्हें इस्लामिक मुल्कों से कोई लेना देना नहीं है क्या ? यदि उन्हें रोहिंग्याओं  की चिंता है तो क्या इस बात की कतई  चिंता नहीं है कि रोहिंग्याओं को अपने देश में शरण तक न देने वाले बांग्लादेश को वे समझाते  कि भारत की तरह सेक्युलर बन जाओ क्योंकि सेक्युलर राष्ट्र में बहुत मजे होते हैं। तो फिर मजा कहाँ है ? सेक्युलर होने में या फिर इस्लामिक होने में। मैंने कभी इस तरह की कोई कांफ्रेंस होते नहीं देखी जिसमें इस प्रकार से इस्लामिक राष्ट्रों इराक ईरान सीरिया पाकिस्तान में अन्य लोगों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ कोई प्रस्ताव लाया गया हो। कोई लेना देना ही नहीं। तो फिर मजा कहाँ है ? मजा है एक सेक्युलर राष्ट्र में रहकर उसका मजा लेते हुए खुद को अक्सर विक्टिम साबित करते हुए , खुद को मरहूम दिखाते हुए।  अपनी जनसंख्या बढ़ाते हुए, शरिया की कोशिश करते हुए ,चार शादी और हलाला आदि का आनंद  हुए, फिर भविष्य में जनसख्या के बल पर इस्लामिक राष्ट्र बन जाने की प्रतीक्षा  करते रहने में। तो ? 

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