बुधवार, 20 मई 2020

टीवी देखना भारी सा हो गया है।  वह तोड़ती पत्थर।  मैंने देखा उसे इलाहबाद के पथ पर। वह तोड़ती पत्थर।  ये पंक्तियाँ आज भी उसी तरह से सार्थक होती है जैसी तब जब एक लम्हा बीते ये मेरे पढ़ने में आयी थीं। वह तोड़ती पत्थर। आज कवि  होते।  क्या क्या लिखते ? वह खींचता रिक्शा। धक्का लगाता रिक्शा। धूप के ताप में तपता रिक्शा। उसका परिवार।  बच्चे। वह धक्का लगाती। कहीं रिक्शे पर पीछे बैठी। धूप से बचने को। सर पर पल्लू डाले। मीडिया वालों से बतियाती। बच्चों को सीने से लगाए। ऐसे में कोई क्या लिखे।
1947 नहीं देखा। कैसा रहा होगा वह पलायन। विभाजन का डर। खौफ में पलायन करते लोग। बैलगाड़ी में।  पैदल। भीड़ की भीड़। खुशवंत सिंह का train to pakistan  पढा। कैसे ट्रैन लाशों से भरी आतीं थीं। राजनीति तब भी हुई थी। आज जैसी नहीं। वह राजनीति कहने को एक समाधान दे गयी थी। मगर आज जो है वह राजनीति के तालाब का सड़ा  हुआ पानी है।
वह देश का निर्माता है। कहते तो यही हैं सब। बिन चप्पल। नंगे पैर। पटरी पर सो जाता और रोटियां पटरियों पर छोड़ जाता। कहीं गाड़ी के पलट जाने से समूह का हिस्सा बन निपट जाता। जब आम दिनों में  रोज मरने वाले 408 लोगों का यह क्रम लॉक डाउन में रुका तो इसको लॉक डाउन में भी जारी रखने में भी उसने ही सबसे पहले भूमिका निभाई। सबसे पहले उसके ही चले जाने की ख़बरों ने सुर्खियां बटोरीं। कहने को वह नींव का पत्थर है। महल , हवेलियां बनाता है मगर सिर्फ बनाता है खुद यही धक्के खाने के लिए। इतना बड़ा देश।  इतनी सशक्त सरकारें।  दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र।  मगर सड़क पर चलते ये मजदूर इस भ्रम को दूर कर देते हैं कि हम कोई ताकतवर देश हैं। लाइन के आखिर में खड़ा आदमी आज भी वहीँ है। आखिर में। कहने को अंत्योदय योजना चला लो। गाँधी के आखिरी आदमी के  विकास से जुड़े सिद्धांत को नाटक बनाकर आजमा लो मगर वह वहीँ है जहां हमारी राजनीति  उसे रखना चाहती है। सूटकेस पर लटका बच्चा। फूले हुए पाँव। फटी पड़ी बिवाइयां। हो सकता है , कहीं कहीं फोटो फेसबुक के तिलिस्मी झूठ से हमारा शिकार कर रही हों मगर सब झूठ तो नहीं होता। कहने को दुनियां का सबसे बड़ा नेटवर्क। मगर जो आपदा में काम न आया वह किस काम का ? ऐसा नहीं है कि  लोग रेल से आ नहीं रहे हैं। पर करोड़ों शरीरों वाले इस देश में चल अकेला चल अकेला की तर्ज पर चलते ये मजदूर डराते हैं कि आराम पसंदगी के शिकार कभी हम जैसों की यह नौबत आ गयी तो ? वे तो  तपते लोग हैं चलते जा रहे हैं और हम ? जीवन भर उस ताप से खुद को बचाने की जद्दोजहद में लगे। कभी सामना करना पड़  जाए तो ? दो चार किलोमीटर तो व्हाट्सप्प या फेसबुक देखते देखते निकल जाएंगे मगर जब पैरों का पेअर थकने लगेगा तब ? तब भी।  थोड़ी देर।  whatsapp  या फेसबुक या यूट्यूब से  गुजारा करना पड़ेगा।  मगर नेटवर्क नहीं रहा तो ? और पैकेज ख़त्म तो ?
वह भूख से मर गया था। चार दिन से चल रहा था।  यकीं नहीं होता कि  किसी ने उसे खाना नहीं दिया होगा या उसने माँगा नहीं होगा या उसे भरोसा नहीं हुआ कि कोई खाना देगा भी या नहीं। जीवन के अनुभव से उसने कुछ तो सीखा होगा। ऐसा कैसे हुआ होगा कि चार दिन से कोई गाँव ही उसके रास्ते में नहीं आया होगा या वह किसी गांव से गुजरा नहीं होगा।  भारत तो गांवों का देश है।  ऐसा कैसे हुआ होगा कि  सब गाँव के लोग ऐसे ही रहे होंगे। बीमार न हो जाएँ , इस डर ने क्या लोगों को उसके करीब नहीं आने दिया होगा। क्या वह पटरियों से गया होगा।  बस्तियां तो हर तरफ हैं। हाईवे पर , पटरियों के किनारे।  फिर भी वह भूखा मर गया। शहर में भूखा मरा होता तो समझ आता। याद है। किसने ये कहा था। सांप , तुम तो शहर में बड़े नहीं हुए , तुमने तो शहर नहीं देखा फिर यह बताओ ,तुमने डसना कहाँ से सीखा ? मगर क्या गांव भी शहर हो गए थे ? एक समय का भोजन छोड़ देने से जिस देश में पैसठ करोड़ थाली बच जाएँ वहाँ कोई यूँ भूख से मर जाए तो कोई क्या कहे ?
जब वुहान  को देखा था नहीं सोचा था कि अपने यहां यह होगा। पत्थर तोड़ने वाली  वह साईकिल पर , रिक्शे पर , ऑटो पर या बैलगाड़ी पर या फिर एक तरफ बैल और दूसरी तरफ बैल न होने से खुद लगकर गाड़ी ढोहता या ढोहती । समझ नहीं आ रहा क्या लिखूं और क्या न लिखूं। रुकता हूँ। यह कीपैड चलने से मना कर रहा है। उनके चलने में और इसके चलने में कितना फर्क है। यह चार पांच अँगुलियों का दबाव झेलता और वह जिंदगी का दबाव ढोकर  चलते। अलविदा। फिर कभी। वह तोड़ती पत्थर। 

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