बुधवार, 24 जून 2020


                                          कोरोनिल पर सरकार                                             दिनांक 24 -06 -2020 

बाबा रामदेव द्वारा  कोरोना के लिए अविष्कृत दवा कोरोनिल ने लोगों की उम्मीद बढ़ाई है। मगर आयुष मंत्रालय और icmr  द्वारा इसके विज्ञापन पर रोक लगाना संदेह पैदा करने के लिए काफी है। रोक के साथ ही कई चर्चाएं शुरू हो गयी हैं। इस प्रकरण को ऐलोपैथी का आयुर्वेद के खिलाफ साजिश का हिस्सा बताया जा रहा है। शायद इस दवा के सफल होने पर आयुर्वेद के विकास और प्रचार में अपार बढ़ोतरी की सम्भावना थी मगर अब इस पर रोक लग जायेगी। मगर साथ में स्वामी जी के इस आविष्कार के सन्दर्भ में आयुष मंत्रालय द्वारा जो अज्ञानता दिखाई गयी कि उन्हें तो इसकी जानकारी ही नहीं है , यह भी विचारणीय है। क्या स्वामी जी ने सरकारी प्रक्रिया पर ध्यान दिए बगैर और उसका अनुकरण किये बगैर ही यह सब जल्दी बाजी में कर दिया ? देश के हर नागरिक की जिम्मेदारी सरकार की होती है। ऐसे में सरकार को विश्वास में लिए बगैर और प्रक्रिया का अनुकरण किये बिना किसी दवा को जारी करना एक वैकल्पिक व्यवस्था को जन्म देने की तरह है जो किसी भी  तरह से सही नहीं है। अब  जिस प्रकार से पतंजलि संस्थान ने सभी सैंपल सरकार को उपलब्ध करने की बात की है उससे पता चलता है कि प्रक्रिया के अनुपालन में कोताही तो बरती गयी है वह भी तब जब आप किसी रोग को आंशिक तौर पर नहीं बल्कि पूर्ण रूप से समाप्त करने का दावा  कर रहे हों। 
from -
डॉ द्विजेन्द्र, हरिपुर कलां , देहरादून 

शनिवार, 20 जून 2020

बहुत बीतीं इस बार छुट्टियां। हर बार बीततीं थीं। पर इस बार बहुत बीतीं। बहुत लम्बी हो गयीं थीं न। इसलिए। छुट्टियों ने भी कहा उन पर भी बहुत बीत रही है। घर में बंद हैं छुट्टियां। मौका लगा तो कुछ दिन कोरोना ड्यूटी में दिन काट आयीं छुट्टियां। बाहर की हवा खाकर इठला गयीं छुट्टियां। बंद फैक्ट्री के गरीबों की तो बहुत भारी थी छुट्टियां। वैसे तो चांदी की चम्मच वालों को भी बहुत तरसा गयीं छुट्टियां। घुटन में दम तोड़ती दिखीं छुट्टियां। शांति से बीतती सी दिखतीं किसी की सुशांत हो गयीं छुट्टियां। कहीं पटरी पर रोटी बिखेर गयीं छुट्टियां। कहीं पैरों में बिवाई दे गयीं छुट्टियां। घरों के चूल्हे बुझा गयीं छुट्टियां। मित्रों का यथार्थ बता गयीं छुट्टियां। सड़कों , गलियों को वीरान कर गयीं छुट्टियां। घर में बंद रहकर भी डरा गयीं छुट्टियां। छुट्टियां भी कितना डराती हैं बता गयीं छुट्टियां। गली के गोल गप्पों , चहल कदमियों को रुला गयीं छुट्टियां। ख़राब नहीं होता काम में बिजी होना , बता गयीं छुट्टियां। मेहनतकशों को भी निकम्मा बना गयीं छुट्टियां। निकम्मों को और हरा बना गयीं छुट्टियां। फेसबुक से ऑनलाइन बना गयीं छुट्टियां। दूरियां क्या होती हैं , समझा गयीं छुट्टियां। परिवार को परिवार बना गयीं छुट्टियां। मकान को घर बना गयीं छुट्टियां। बीततीं बीततीं खुद को ही थका गयीं छुट्टियां। छुट्टियों पर क्या बीतती है , खुद बता गयीं छुट्टियां। घर के बहुत से काम निपटा गयीं छुट्टियां। ऑफिस जाने को ललचा गयीं छुट्टियां। रिश्तेदारों की याद दिला गयीं छुटियाँ। स्कूलों को ऑनलाइन बना गयीं छुट्टियां। एक को दूसरे से डरा गयीं छुट्टियां। गले लगने वालों में दूरियां बना गयीं छुट्टियां। शेक हैंड से नमस्ते करा गयीं छुट्टियां। बड़ी हस्तियों को बाई बना गयीं छुट्टियां। अच्छे अच्छों से सफाई करा गयीं छुट्टियां। घर में रहने वाली के काम समझा गयीं छुट्टियां। सिर्फ खाने वालों को बनाना सिखा गयीं छुट्टियां। हर विभाग का हाल समझा गयीं छुट्टियां।  नेताओं से राजनीति करा गयीं छुट्टियां। जीवन की अनिश्चितता समझा गयीं छुट्टियां। बहुतों का घमंड चुरा गयीं छुट्टियां। विकसित देशों की पोल दिखला गयीं छुट्टियां। आयुर्वेद क्या है , समझा गयीं छुट्टियां। सनातन का महत्व बता गयीं छुट्टियां। अति क्या होती है , बता गयीं छुट्टियां। छोटा बड़ा का फर्क समझा गयीं छुट्टियां। परमाणु का महत्व समझा गयीं छुट्टियां। प्रकृति को छेड़ने का असर दिखा गयीं छुटियाँ। क्षणभंगुर है जीवन , समझा गयीं छुट्टियां। पीढ़ियों की चिंता निर्मूल है , बता गयीं छुट्टियां। बीमार के प्रति प्रेम की पोल खुलवा गयीं छुटियाँ। स्वार्थ बड़ा है , समझा गयीं छुट्टियां। अपनी आग पहले बुझाओ , बता गयीं छुट्टियां।

सोमवार, 15 जून 2020

सुशांत। शांत से भी अधिक शांत। अच्छा शांत। उत्तर प्रदेश और बिहार वालों को लतियाने वाले बॉलीवुड को अमिताभ बच्चन ने यूपी वालों की तरफ से जो थप्पड़ मारा है उससे आहत वे लोग आज भी अमिताभ के उस ओरा से लड़ने के लिए एक हकले का सहारा लेकर गुजरा कर रहे हैं और करते रहेंगे। उस क्रम में तुम दूसरे हो सकते थे मगर तब के और अब के समय के फर्क और बढ़ते दबाव में दब गए तुम । तुम्हें हँसते देखा तो देखा हँसते हँसते अपने मुंह पर हाथ रख लेने का तुम्हारा वह संकोच तुमसे तुम्हारी बात औरों तक नहीं कहलवा पाया। तुमने थोड़ा सहारा लिया होता अपने नाम  सिंह का या राजपूत का। मगर तुम ऐसे कैसे अपने नाम के पहले ही अक्षर के सहारे उस जंगल में घुस गए जहां हर तरफ  हर कोई गॉड फादर की तलाश में रहता है या गॉड फादर बनकर शिकार की तलाश में रहता है। तुम्हारा अंतर्मुखी होना , अच्छा होना शांत कर गया तुम्हें हमेशा के लिए। शायद तुम बॉलीवुड के गैंगवार के हिस्सा  ही नहीं बन पाए और बड़ी आसानी से काल के मुँह में तब चले गए जब अपनी पिछली फिल्म छिछोरा में तुम आत्महत्या न करने का ही सन्देश लेकर गए थे। शायद उस फिल्म में उस उम्र में बाप का अभिनय करना भी तुम्हें अवसाद में धकेल गया होगा जब तुम्हारी शादी तक अभी नहीं हुई और तुम एक बूढ़ा बाप बनकर फिल्म में आ गए। एक tag  लगने का भय लगा होगा कि कहीं एक टाइप्ड में न सिमट जाऊं। और फिर आजकल का एकांत और खा गया होगा। चांदनी में नहाने की आदत पड़ जाये तो अँधेरा कितना सालता होगा , यह आसान है समझना। और फिर तुम अच्छी  तरह शांत हो गए।  सुशांत। तुम्हारे ट्विटर अकाउंट पर अवसाद ग्रस्त विल्सन की पेंटिंग का होना तुम्हारे तथाकथित समझने वालों को न समझा पाया कि तुम किस दौर से गुजर रहे हो। विल्सन ने 1990 में अवसाद अवस्था में ही खुद को गोली मार की थी। तुमने उस अवसादी को ही अपना आदर्श मान लिया और चले गए। पूरी तरह से शांत। सुशांत। श्रद्धांजलि। 

शुक्रवार, 12 जून 2020

कुछ चीजें hypothetical होती हैं। काल्पनिक। कल्पना का क्या है ?  कुछ भी कर लो। क्या जाता है। आकाश कुसुम की तरह है। पर मजा कम नहीं है कल्पना में। सोचो। कोरोना कण्ट्रोल हो गया होता।  मोदी मोदी मोदी। मगर हुआ तो नहीं। अब मोदी मोदी नहीं। पर तलाश जारी है। 
तीन लॉक डाउन का फेलियर। और आज तीन लाख से ज्यादा मरीज। 
एक दिन सोचा।  कहाँ हुई गलती। तब्लीगी प्रकरण के प्रकाश में आने के बाद अगर तुरंत  भविष्य के संकट को देखते हुए सरकार  ने लोगों को डिस्टेंट क्योर के साथ घर भेजना शुरू कर दिया होता तो ? अगर पहला लॉक डाउन शुरू ख़त्म होते और दूसरा शुरू होते ही सरकार ने ऐसा करना शुरू कर दिया होता तो ? क्या होता  ? क्या इतने केस बढ़ते ? नहीं न। कैसे बढ़ते ? लोग गांव में पहुँच जाते।  डिस्टेंस क्योर आसान हो जाता। धारावी जैसी जगहें जहाँ जनसंख्या घनत्व बहुत ज्यादा है वहां जनसंख्या घनत्व कम हो जाता। मगर ऐसा न किया। देर से भेजा। उत्तराखंड में ही 91 पर सिमट गया था दायरा। मगर अब १६०० के पार। ऐसे ही देश में। 
मगर ये जो लोग हैं ये कहीं भी होते तो कोरोना फैलता ही।
अब सोचिये। यदि मोदी जी ने इन्हें पहले ही डिस्टेंस क्योर के साथ भेज ही दिया होता तो ? और अगर तब कोरोना फ़ैल जाता तो ? 
कोई सुनवाई होती क्या ? कोई नहीं। अरे , मोदी जी की ऐतिहासिक गलती।  जब सारी  दुनिया लॉक डाउन में थी। जब सब घर बैठे थे तब मोदी जी लोगों को घर भेज रहे थे। यदि इन्हें उस समय घर न भेजा होता तो यह कोरोना न फैलता। देश की जीडीपी न गिरती। मगर लोगों को घर भेजकर जीडीपी ही गिरा दी और कोरोना को फैलाया सो अलग। क्यों ? 
विपक्ष क्या करता। इस्तीफे की मांग। इस्तीफ़ा दो। बड़ी मुश्किल से उसे एक सही मुद्दा मिलता।  इस्तीफे का। लोग कोसते सो अलग।  पर अब। मोदी जी थोड़ी दया किया करें विपक्ष पर। कोई तो सही मुद्दा दें जिस पर वह आपके इस्तीफे की सही मांग कर सके। 

मंगलवार, 9 जून 2020

डर। डर और खौफ में से ज्यादा डर किससे लगता है ? खौफ से। क्योंकि डर में अल्पप्राण अक्षर हैं। खौफ में महाप्राण अक्षर। जिसमें  ज्यादा प्राण वाले अक्षर हों तो ज्यादा डर  स्वाभाविक है। वर्ग के तीसरे पहले पांचवे अक्षर अल्पप्राण कहे जाते हैं और चौथा और दूसरा महाप्राण। ख और फ। दोनों दूसरे अक्षर हैं। महाप्राण हैं और इन सबसे ज्यादा बेचारा शब्द है - दुःख। एक अक्षर अल्पप्राण और दूसरा महाप्राण फिर अल्पप्राण वाला स जो विसर्ग में बदल गया है सिमट कर।  तो अब उत्तराखंड में डर है अभी भी और दिल्ली में खौफ तैरने लगा है। मुंबई ? बेचारगी की तरफ बढ़ चला है। दुःख होने लगा है। 
जब  कोरोना चीन में था तब ? हंसी थी और दुःख भी था। लोग मजाक भी कर लेते थे। चीन से तो नहीं आया है ? बस में सीट चाहिए ? कह दो चीन से आया हूँ। लोग भाग जाएंगे सीट  मिल जायेगी।अब सीट ही सीट है। बैठने वाले गायब हैं। 
फिर अपने यहां आया। शुरुआत में लोगों को मास्क लगाते देखा। लगा - ओह भाई साहब कुछ ज्यादा ही जागरूक हैं। अब अपने भी मास्क है। 
संख्या बढ़ी। और फिर तब्लीगी। डर लगना  शुरू हो चुका  था। और फिर पुलिस डॉक्टर पर पत्थर हमले। गुस्से के साथ डर। फिर एक दिन दिल्ली बस अड्डे पर अफवाह और हज़ारों लोग एकत्रित।  और फिर डर। ज्यादा डर। ये लोग कोरोना फैलाएंगे। और एक दिन मुंबई में भीड़। और फिर डर ने धीरे धीरे खौफ की शक्ल लेना शुरू किया। उत्तराखंड में डर सिमटने वाला है कि खौफ की शक्ल में लोग आने शुरू हुए और डर ने अपना वजूद पसारना शुरू किया है। पर जनसँख्या घनत्व कम  है। यह डर यहाँ भी सिमट ही जायेगा। पर दिल्ली की क्या होगा ? और मुंबई ? खौफ में सिमटे हुए। सोचिये ? जब सब खुल गया हो। बारिश शुरू हो गयी हो। अब यह तो हो नहीं सकता कि आषाढ़ के पहले दिन की बारिश की मिट्टी वाली खुशबु सब समेत ले। उम्मीद का क्या ? कहीं से भी लगा लो ? सर्दी से और गर्मी से निपट चुका है कोरोना। लगा था कि गर्मी में पिघल जाएगा।  मगर पिघलकर फ़ैल गया और मरा भी नहीं। तो क्या बारिश बहा ले जाएगी ? और बहा बहाकर एक जगह से दूसरी जगह ले गयी तो ? क्या होगा ? कैसे होगा ? शुरू शुरू में बिजली आई होगी तो मीटर नहीं लगे होंगे अब कोरोना मीटर लग गया है। बिल भरने को तैयार। भारत और उसकी सरकार। पहले लोग दूसरे देशों की ओर देखकर डरते थे। आज इतने। आज इतने।  हे राम। क्या होगा ? अब ? आदत हो गयी है। मीटर देख लो।  पता चल जायेगा। दर ख़त्म।  जहाँ है वहां हो। दिल्ली में खौफ है। मुंबई में ठाकरे परिवार की उद्धव कृष्ण के उद्धव की याद दिलाते हैं जिनकी हालत गोपियों ने पतली कर दी थी। मगर इनकी हालत कोरोना ने पतली कर दी है। कोरोना योग तो नहीं सुनता जो कृष्ण के उद्धव गोपियों को सुनाने गए थे मगर  से डरता तो होगा। योग गोपियों का इलाज तो  नहीं कर पाया क्योंकि उन्होंने उसे सुना ही नहीं। मगर यह योग कोरोना से लड़ने में मदद तो जरूर करेगा। इसलिए योग करिये। सबसे बड़े योगी भी तो कृष्ण ही हैं। कर्मयोगी। कर्म भी करिये और योग भी। गीता में डर भी तो कृष्ण ही भगाते  हैं। न। न जायते  म्रियते वा कदाचित ---- वगैरह वगैरह। और आजकल तो सब कोरोना योद्धा हो रहे हैं। जातस्य ही ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च। पैदा होने वाले की मृत्यु निश्चित और मरने वाले का जन्म निश्चित। तो फिर डर काहे। वैसे भी - कृष्ण ने कहा - हतो वा प्राप्स्यसे स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम।  मरकर स्वर्ग पाओगे जीकर धरती भोगोगे। समझ न आये तो सोमैया तारा वालों से पूछ लेना - बहत्तर  हूर वाले।  उनकी आस्था तो ज्यादा है न।  अपनी कम भी हो तो ? फिर भी डर ? खौफ ?  क्यों  ? हमारा सबसे बड़ा साथी तो है न ? अमेरिका। सबसे बड़ा हाथी। संतोष  की दवा। मोदी ट्रम्प की दोस्ती। रंग नहीं लाएगी ? ट्रम्प का सब ट्रम्प कार्ड फेल होता दिख रहा है। हाउडी मोदी पर सब पानी फिर गया है। ट्रम्प का डर कभी उनसे किसी को follow  कराता  है कभी unfollow . तो दुःख तो है दिल्ली मुंबई पर।  देश की राजधानी और आर्थिक राजधानी हैं । सरकार कोई और है तो क्या ? है तो अपनी। देश तो देश है। एक दुःख बहुतों को है। सोचा था।जब कोरोना चला जायेगा तब मोदी मोदी करेंगे। पर अब ? 

रविवार, 7 जून 2020

लौकी। रोज खायी जा सकती है ? हाँ भी और नहीं भी। आदमी मरीज हो या साथ में कोई और सब्जी हो या हर रोज एक नए तरीके से बनी  हो। पर यदि तरीका एक ही हो तो ? मुश्किल है। मरीज के लिए भी। सूप पिया जा सकता है।
कथा। सत्य नारायण की कथा कई बार सुनी है। आज कल इस कथा के सुनने वालों का क्या हाल है ? कलावती। सत्यनारायण कथा की एक पात्र। आज कल जब कथा होती है हालात देखे हैं आपने ? निचले फ्लोर पर कथा हो रही है और ऊपरी फ्लोर पर पार्टी। साथ साथ चलते हैं। यह हमारी आध्यात्मिक हालत है जिसे ये हालात दर्शाते हैं। बुरा न मानें अगर सत्य कहा हो ? अब कथाएं प्रभु केंद्रित नहीं बल्कि भक्त केंद्रित हो गयी हैं। अपने यहां। एक धर्म आज भी है जिसमे आध्यात्मिकता पूरे चरम  पर है आज भी। कट्टरता की हद तक। वही 72 हूरों वाला धर्म। बुराई करूँ क्या ? यदि उनकी भी बुराई करूंगा तो फिर अपने वाले की बुराई क्यों ? किसी एक की ही तो बुराई होगी। या तो उसकी या फिर इसकी।
वीरभोग्या वसुंधरा। धरती के बारें में कहा गया है कि धरती वीरों के द्वारा भोगी जाती है। जो कायर हैं वे धरती को भोगने के अधिकारी नहीं। वे तो मर जाते हैं मार दिए जाते हैं। सुना हैं न। जो डर गया समझो मर गया। और जीत ? वो भी तो डर के आगे ही होती है। डर के आगे जीत है।
एक बात और कही है - सुवर्णपुष्पितां पृथिवीं विचिन्वन्ति नरास्त्रयः। शूरश्च कृतविद्यश्चः यश्च जानाति  सवितुम।। यानि सोने से भरी धरती को तीन ही लोग भोगते हैं। शूर यानि पराक्रमी , कृतविद्य यानि जिसने ज्ञान प्राप्त किया हो या जो सेवा करना जानता  हो। सेवा मतलब। आज के सन्दर्भ में चमचागिरी।  आपको तो पता है - चमचे आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं।
ये सब लिखने की जरूरत क्या है ?
है। जिन्होंने तलवार के दम पर विजय पायी उनका खौफ बरक़रार रहना स्वाभाविक है। जिसके घर में रोज या हर तीसरे दिन किसी निरीह प्राणी की गर्दन कटती हो उसका खौफ बना रहना स्वाभाविक है। अब वो आपके मोहल्ले में ज्यादा हो जाएँ तो ? छोड़ दो धरती या वह जगह। पलायन कर जाओ। कायर की भांति या शरीफ की भांति। क्योंकि शरीफ बनने में थोड़ा योगदान कायरता का भी तो होता होगा। वरना यह शौक दूसरों को भी होता। वे भी शरीफ बन जाते। अजीत डोभाल जी की एक स्पीच सुनी  था। यूट्यूब पर उपलब्ध है। कहते हैं - मैं नहीं कहता कि आप मेरी बात से सहमत होंगे। लेकिन उस पर गौर जरूर करियेगा। इतिहास में इसका महत्व ज्यादा नहीं है कि  कौन सही था शरीफ था बल्कि इस बात का महत्व ज्यादा है कि जीत किसकी हुई। किस तरह से हुई इसका भी ज्यादा महत्व नहीं है। यदि सही और शरीफ का महत्व होता तो दिल्ली में बाबर रोड न होती , वहाँ राणासांगा रोड होती। क्योंकि राणासांगा सही थे और बाबर गलत। पर ऐसा है नहीं। इतिहास ने हमेशा उन लोगों का साथ दिया है जिन्होंने विजय पायी है। और यह विजय ताकत से ही हासिल हुई है। आप सहमत हों या न हों। पर इस एक बात पर विचार चिंतन जरूर करें। मानें या न मानें।
अजीत डोभाल साहब की यह बात काबिले गौर है।
इतनी लम्बी भूमिका ? 
आजकल मुरारी बापू की चर्चा है। राम कथा में हुसैन गायन करते हैं। पहले से करते आ रहे हैं। एक बार ब्रह्म ज्ञान दे रहे थे। ईश्वर और जीव के ज्ञान में कहा - तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ , तू मुझमे है मैं तुझमे हूँ। यानि ईश्वर भक्त से कहता है - हे भक्त ! तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ। हम दोनों एक दूसरे में हैं। तब कोई हल्ला नहीं हुआ था। आज माहौल दूसरा है। वरना हुस्न और इश्क़ पर बवाल बनना स्वाभाविक है। बनाने वाले तैयार बैठे हैं। हुसैन गायन करते करते बापू बहुत कुछ लम्बा चौड़ा रहमाने रहीम वगैरह करते हैं। चैनल पर देखा। उसके बाद यूट्यूब पर दूसरा वही वीडियो देखा तो पता चला कि बापू के बाद के शब्द थे - लो मैंने गा दिया रहमाने रहीम। अब तुम गाओ रघुपति राघव राजा राम। स्वाभाविक है , कोई बुराई नहीं हैं। वे तो चुनौती दे रहे थे। चैनल वाले ने आधा ही दिखाया।  चैनल भी गुजरती था। बापू भी गुजरती। पी एम भी गुजराती। एच एम भी गुजराती। नोटों पर छाया हुआ भी गुजराती। आर बी आई वाला भी गुजराती। डांट  पड़ी होगी। चैनल वाला चुप हो गया है तब से। हालाँकि एक दूसरे  युवा संत से चिन्मयानन्द जी से खुद अदालत बनकर माफ़ी तो मंगवा ही ली उसने। वहाँ भी करोड़पति भक्त रहे होंगे।  डांट  पड़ी होगी। एक दूसरी साध्वी अल्लाह जाप कर रही थीं। ॐ की जगह अल्लाह ने ले ली थी।और भी कुछ अन्य हैं।  कुछ राजनैतिक भी हैं। उनकी तो बात और ही है वरना मोदी जी के भाषण  के दौरान नमाज पर उनकी तीन मिनट की चुप्पी पर उन्हें भी जवाब देना पड़  जाए पर वहाँ मामला राजनीति  का है।
अब समस्या यह है कि यह सब क्यों है ? इसलिए है कि  कोई कब तक हिंदुस्तानी अनार खाये। इसलिए तो अफगानी अनार मंगवाते हैं। कई अन्य देशों से खजूर भी आता है। इस पर कोई बवाल तो नहीं हो सकता। तभी होगा जब कोई कोरोना यहां से आएगा। तो ज्ञान तो वैसा ही है जैसे लौकी। बेस्वाद। और बार बार वही कथा। सुनाने वाला भी वही।  श्रोता अलग अलग पर टीवी पर तो वही। तो सुनाने वाले को अगर लगे कि लोग उबासी ले रहे हैं या बोर हो रहे हैं तो क्या करे। तो फिर होता हैं न। खाने में स्वाद न हो तो ? थोड़ा एक्स्ट्रा मसाला। मक्खन। ताकि स्वाद आ जाये। तो फिर भोजन की तो बात अलग है। हर देश का भोजन हर देश में लोकप्रिय हो सकता है। पर आध्यात्मिकता में मखना कैसे कैसे लगाया जाये ? कथा को भक्त केंद्रित करना पड़ेगा। मार्किट की डिमांड के हिसाब से। यह नहीं चलेगा कि जो मेरे पास है वह ले लो। जो भक्त को चाहिए वह देना पड़ेगा। अब भक्त को क्या चाहिए ? व्हाट्सप्प या फेसबुक। इंस्टाग्राम या यूट्यूब। या फिर कुछ और। आजकल नेटफ्लिक्स भी आया हैं। भारतीय संस्कृति की पूर्व प्रचारक ' क्योंकि सास भी कभी बहू थी ' से संयुक्त परिवार को तरजीह देने वाली मगर असल जिंदगी में सिंगल फॅमिली पसंद करने वाली। और अब पथभ्रष्ट होकर वेब सीरीज के जरिये भक्तों की मांग पूरी करने को आतुर। ये सब भी भक्त ही हैं न। एकता कपूर के। मगर बापू के भक्त तो अच्छे लोग हैं। चुटकुलों और शेरो शायरी से ही काम चला लेते हैं। सही ब्रह्म ज्ञान यदि दिया जाने लगे तो खोपड़ी के दो हो जाएंगे। सच्चा ज्ञान देने वाले कृपालु जी महाराज तो अब रहे नहीं। तो बापू भी भक्त की मांग के हिसाब से चल पड़े। भक्त किस बात पर हंसेगा।  कैसे उसका टाइम पास होगा।  अच्छे से। मुझे समझ नहीं आता कि कैसे ऐसे बापू अपनी कथा नौ दिन में पूरा कर लेते होंगे। हर वक्त भक्त के हिसाब से चलना। पर बात आगे की है।
बापू के दूसरे वीडियो भी मिले। बापू वहां भी हुसैन गायन। कव्वाली , अल्लाह आदि करते मिले। तो जब उन्हें एक बार में चुनौती पसंद नहीं आयी तो फिर आप काहे हुसैन गायन करने लगे हैं।  बार बार। क्या यह वही रोग है जो इस देश में लगा है। सेक्युलर जमात वाला रोग। सिख , पारसी , बौद्ध , जैन , ईसाई।  इनका पाठ तो कभी नहीं होता। इन्हें देश में खतरा भी नहीं है।  शिकायत भी नहीं है। तो सफाई सिर्फ एक को क्यों ? क्या इसलिए कि  बाकियों ने आप पर कभी शासन नहीं किया ? शासन ईसाइयों ने किया तो देश ईसाई तो हुआ ही पड़ा है शिक्षा परिवेश के हिसाब से। पर वे आज यहाँ नहीं हैं और तलवार के दम  वाले नहीं बल्कि दिमाग से शासन करने वाले हैं। तो तलवार का भय आज भी है क्या ? जो राजा की तरह राज करते हैं और विक्टिम की तरह खुद को सामने रखते हैं। 70 साल से विक्टिम बने हुए हैं। 6 साल से तो बहुत ज्यादा। 

गुरुवार, 4 जून 2020

जो शांतिदूत शरिया शरिया चिल्ला कर अपना इस्लाम बचाने का हवाला देते रहते हैं वे जानते तो होंगे कि वे सेक्युलर देश में हैं। क्या सेकुलरिज्म अच्छी पद्धति है ? यदि उन्हें यह अच्छा लगता है तो जानना चाहिए कि  कितने इस्लामिक देश में उन्होंने इस सेकुलरिज्म को अपनाने के लिए प्रस्ताव भेजे हैं। यदि यह इतना अच्छा है तो कितने लोग हैं जिन्होंने इस्लामिक देशों को कहा है कि भारत एक सेक्युलर देश है और उन्हें इसको अपनाने में कोताही नहीं बरतनी चाहिए। कोई डाटा है ? कोई कहेगा उन्हें क्या पड़ी है ? क्यों ? यदि उन्हें पाकिस्तानी मुस्लिमों  की पड़ी है कि सी ए  ए में उन्हें भी लाया जाये तो उन्हें इस्लामिक मुल्कों से कोई लेना देना नहीं है क्या ? यदि उन्हें रोहिंग्याओं  की चिंता है तो क्या इस बात की कतई  चिंता नहीं है कि रोहिंग्याओं को अपने देश में शरण तक न देने वाले बांग्लादेश को वे समझाते  कि भारत की तरह सेक्युलर बन जाओ क्योंकि सेक्युलर राष्ट्र में बहुत मजे होते हैं। तो फिर मजा कहाँ है ? सेक्युलर होने में या फिर इस्लामिक होने में। मैंने कभी इस तरह की कोई कांफ्रेंस होते नहीं देखी जिसमें इस प्रकार से इस्लामिक राष्ट्रों इराक ईरान सीरिया पाकिस्तान में अन्य लोगों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ कोई प्रस्ताव लाया गया हो। कोई लेना देना ही नहीं। तो फिर मजा कहाँ है ? मजा है एक सेक्युलर राष्ट्र में रहकर उसका मजा लेते हुए खुद को अक्सर विक्टिम साबित करते हुए , खुद को मरहूम दिखाते हुए।  अपनी जनसंख्या बढ़ाते हुए, शरिया की कोशिश करते हुए ,चार शादी और हलाला आदि का आनंद  हुए, फिर भविष्य में जनसख्या के बल पर इस्लामिक राष्ट्र बन जाने की प्रतीक्षा  करते रहने में। तो ? 

बुधवार, 3 जून 2020

  • तो ? करीब दो साल पहले sprinter  हिमा दास ने जब iiaf world u20 championship में गोल्ड जीता था तब यह उम्मीद कतई किसी को नहीं थी कि वह स्वर्ण जीत लेगी। लेकिन यह ख़ुशी कई दिन तक बरकरार रही। 
  • वह रेस अद्भुत थी और एक झटके  में बहुत कुछ बदल गया था।कई फ़िल्में भी बनीं हैं जो रेस 1 , रेस 2 और रेस 3 के टाइटल से आयीं और रियल लाइफ नहीं बल्कि रील लाइफ का हिस्सा बनीं। 
  • तो ? रियल लाइफ की रेस क्या है ? वह जो जिंदगी में हम पैसा या मान प्रतिष्ठा कमाने के लिए करते हैं या कुछ और। यदि पैसा और मान सम्मान ही रेस है तो फिर आजकल यह क्या है ? जिंदगी बचाने की रेस ?
  • कई दिनों से देख रहा हूँ और नोट कर रहा हूँ एक एक रिकॉर्ड उन दो धावकों का जिनमें एक जिंदगी लील जाने को आतुर है और दूसरा जिंदगी बचाने को आतुर। योद्धा तो कितनों को कह दो।  क्या फर्क पड़ता है। बच्चों को मन बहलाने के लिए कह देना कि तू तो सबसे बड़ा शेर है। असली आदमखोर शेर तो कोरोना ही है न। और उससे लड़ने को और उसे उसकी ही मौत मारने के लिए तैयार डॉक्टर और नर्सेज।
  • आज तो इन्हीं दोनों के बीच  रेस है। एक लील जाना चाहता है और दूसरा दिन रात लगा है उन्हें बचाने को जिन पर कोरोना की निगाह है। और जानते हैं कौन जीत के करीब है ? बचाने वाला। पचास प्रतिशत पर पहुँच जाता अगर 48 घंटे में थोड़ा गड़बड़ न हुई होती तो। सैंतालीस के पार तो अभी हैं ही। और इन्तजार है कि 47 से ज्यादा की रिकवरी देने वाले हमारे कोरोना योद्धा डॉक्टर , नर्सेज और स्वास्थ्यकर्मी और पुलिस  , उस लाइन के पास खड़े हैं जिस पचास प्रतिशत के पार निकलते ही हमारी जीत तय है। जैसे ही हमारा रिकवरी रेट 50 प्रतिशत पर पहुंचेगा और इसे पार करेगा , समझ लें कि जीत की शुरुआत हो गयी है। रियल लाइफ की जीत। हमारे डॉक्टर्स की जीत जो कोरोना योद्धा से भी बड़ा दर्जा पहले ही पा चुके हैं वह भी भगवान् का। भले ही शैतान ने उन पर पत्थर बोतल बम लाठी कुछ भी फेंके पर वह डटे  रहे और शैतान का इलाज करने से भी उन्होंने कोई गुरेज नहीं किया। और अब बीच की इस लकीर के एक तरफ कबड्डी की उस नंबर दिलाने वाली लकीर को छूने की तरह बिलकुल पास खड़े होकर हम जीत का जश्न मना सकते हैं जब हमारे रिकवरी रेट को  हम 50 प्रतिशत से ज्यादा होता देखें और मान कर चलें कि हम जीत जाएंगे। उनको प्रोत्साहित करने के लिए किये गए प्रयासों को , उनके लिए बजायी गई ताली थाली शंख , जलाये गए दिये , मोमबत्ती और बरसाए गए फूल भले ही आपको खटके हों पर इससे उनकी हिम्मत तो बंधी होगी वरना बिना प्रोत्साहन के हारने वाले , बीच में ही काम छोड़ देने वाले कितने ही लोग थक भी तो जाते हैं। पर हमारे डॉक्टर्स को  रिकवरी में 50 प्रतिशत पर पहुँचते देख और इस लाइन को पार करने की प्रतीक्षा ख़ुशी दे रही है और यह इंतजार सुखद है और यह संतोष नहीं हक़ीकत  में बदलता एक स्वप्न है जिसे हम जल्दी फलता देखेंगे।  थोड़ा दुःख है तो यह कि वे छह हज़ार भी हमारे बीच होते जो आज नहीं हैं। उनके लिए विनम्र श्रद्धांजलि। 

सोमवार, 1 जून 2020


माँ कहा करती थी - उस पीपल के  पेड़ के पास रात को मत जाना।  वहां भूत रहता है। कभी जाने की हिम्मत  ही नहीं हुई। फिर गलती से एक दिन उस भूत से मुलाकात हो गयी। बस फिर क्या था। भय ख़त्म हो गया।
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यह भी कहा गया है - तावत् भयान्न भेतव्यं यावत् भयम् अनागतम्। मतलब - भय से तब तक मत डरो जब तक वह सामने न आ जाए।
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 जब तक कोरोना का भूत दो चार की संख्या में घूम रहा था तब तक डर  ही डर था। अब तो भूतों की संख्या बढ़ती जा रही है तो ? पहले भूत हमारे बीच था। अब लगता है कहीं हम भूतों के बीच न रहने लगें। हम तो डरते रहे। बचते रहे। अब काहे को रोना। और अब भय ख़त्म हो गया है। जब बहुत सारे अंदर हो जाएंगे तब क्या ? कहा है न - मन के हारे हार है मन के जीते जीत। तो अब तो भूत आ ही गया है। सारा मंत्रिमंडल अंदर जाने को तैयार बैठा है। महाराज जी से जो लोग यह आशीर्वाद लेने जाते रहे होंगे कि उस कोरोना के भूत से भी बच जायेंगे वे भी कहीं न कहीं अपने कुल देवता के आगे माथा टेक  रहे होंगे। भय का भूत ही तो है। वरना उससे भी पुराना भूत तो हर साल आता है। तैयारी  कर रहा है आने की। डेंगू का भूत। नए आगंतुक के चक्कर में पुराने वाले को भूल गए। उसके टोने टोटके की भी तैयारी करके रखें। पपीते के पत्ते, गिलोय वगैरह। दवा तो उसकी भी ऐसे ही चलनी है। ध्यान रहे कि दो भूत एक साथ न लग जाएँ। मुश्किल ज्यादा होगी। पानी ज्यादा जमा न होने दें। social  gathering  के साथ साथ अब water  gathering  से बचने का भी वक़्त आ चला है। एक आदमी तो दिखाई भी देता है जिससे कोरोना फैलता है। पर वह मरी सी टांगों वाला मच्छर जो कहीं पर भी साफ पानी में चुपचाप जन्म प्राप्त करके किसी को भी काट ले। उससे डर  भूल गए ? भूल भी गए तो यह तो याद रखें कि कुल मिलाकर  दूरी बनाये रखें। जिन्दा रहे तो नजदीक आ लेंगे।
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हम से अलग एक और भूत हवा में घूम रहा है। टिड्डियों का भूत। अन्नदाता की नींद उड़ाने वाला भूत। उससे तो हमें कभी डर नहीं लगा। अपने घर तक न आये तब तक भूत भी कैसा और डर भी कैसा। जब तक पडोसी के यहां संकट है तब तक क्या दिक्कत है। अम्लान तूफ़ान आया।  डर  लाया। हम तो सुरक्षित रहे। डरे भी नहीं। अब गुजरात में चक्रवात है। तैयारी हो रही है। वह डर हमें नहीं। दो दिन पहले भूकंप आया। क्या भूकंप के भूत से हम नहीं डरते। क्यों डरें। कहा तो है - तावत् भयान्न...................... और क्या। जब तक डर  सामने न हो तो डर  कैसा। रात को भूकंप आ जाए आठ या नौ स्केल पर तो ?  कुछ पता है ? पर डर जब हलाल के अंदाज में आता है तो डर  ज्यादा लगता है। झटके में  डर  कैसा ? एकदम। सब ख़त्म।
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तो सरकार ने भी डर से मुकाबला करने की ठान ही ली। सब खोलना शुरू कर दिया । देखते हैं , क्या होता है। जिसे डर होगा बैठा रहेगा घर के अंदर। निडर होगा तो जायेगा बाहर। करेगा खरीददारी। खायेगा होटल में। रेस्टॉरेंट में। जिम में। सिनेमा हॉल। शॉपिंग मॉल। डरपोक होगा तो डरा रहेगा। डर के आगे जीत है। किस डर के आगे। लापरवाही से भुला दिए गए डर  के आगे या सावधानी से अपनाये गए डर  के आगे। तय करना पड़ेगा।
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जब पहले पहल कोरोना ड्यूटी आयी चिंता हुई। थोड़ा डर लगा। पीपल के पेड़ के भूत की मानिंद चार दिन में डर खत्म। मगर डर के साथ ही डर खत्म होता है। डर कर तो रहेंगे न तभी सावधानी बरती जाएगी और डर खत्म होगा। वरना सुना है - सावधानी हटी दुर्घटना घटी। इसलिये कभी नहीं से देर भली। हर एक खुद में एक दुनियां है। शूट आउट वाला मामला होता तो सुलट लेते। मगर यहां तो गोली मारें किसे। दिखाई नहीं देता। उसे मारने में गोली कामयाब नहीं और खुद को बचाने के लिए गोली ही नहीं। तो भय से अनावश्यक भीत न हों मगर थोड़ा भयभीत तो रहें ताकि सावधान रह सकें। गोलगप्पे टिक्कियां खत्म नहीं हो रहीं। खतरा खाने वालों पर है।
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सूक्तियां और मुहावरे अलग अलग कालखंड में बनते बिगडते खत्म होते जाते हैं और गलत साबित होने पर इन पर केस तो नहीं चला सकते। इसलिये जिंदगी में कोई सूक्ति सूक्त कहानी, किंवदन्ती या मुहावरा कितना भी डराये या भड़काए। भड़कने या डरने से पहले सोच लें कि अकल और जिंदगी अपनी है और अक्ल सबसे ऊपर के हिस्से में है। दिल से भी ऊपर। और जिंदगी की प्राथमिकता सर्वोपरि। अक्ल न हो तब भी जिंदगी तो जिंदगी है पता नहीं फिर कब मिले? 🤔