बुधवार, 25 दिसंबर 2019

गंगा जमुनी तहजीब। कितना सुकून है इस शब्द में।  पर यह सुकून खो गया था जब कमलेश तिवारी को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसने एक धर्म विशेष के खिलाफ कुछ कह दिया था।  इनाम घोषित हुआ कि जो सर कलम करेगा उसे इक्यावन लाख रुपये मिलेंगे। मारने वाले को तो पता नहीं कि पैसा मिला या नहीं मगर कमलेश तिवारी जिहाद का शिकार हो गया।  गीता में कहा है कि  धर्म युद्ध में जो मरता है उसे स्वर्ग मिलता है मगर कमलेश तिवारी को इस जहां से मुक्ति मिल गयी ।
गंगा जमुनी तहजीब। बहुत सुकून है इस शब्द में।  मक़बूल फ़िदा हुसैन।जब  हिन्दू देवी देवताओं पर बनाये नग्न और अर्धनग्न चित्र और उस पर हिन्दू समाज का चुपचाप सह जाना देखता था तब समझ पाता  था गंगा जमुनी तहजीब । अभिव्यक्ति की आजादी यहीं तो है। हिन्दू धर्म और इसके देवी देवता अभिव्यक्ति की प्रयोगशाला हैं , ऐसा ही समझाया जाता रहा है।
सी ए  ए  या सी ए  बी के नाम पर हुड़दंग मचाकर देश की संपत्ति सिर्फ इसलिए फूंक देना कि  इससे उन धर्म प्रताड़ित पाकिस्तानी हिन्दुओं को नागरिकता मिल जायेगी और उन  घुसपैठियों को नहीं जिन्हें पाक और बांग्लादेश मिला फिर भी यहीं घुसना चाहते हैं। यही है गंगा जमुनी तहजीब ?  कितना सुकून देता है यह शब्द।  अयोध्या में पुस्तकालय बना लो , हॉस्पिटल बना लो , विश्वविद्यालय बना लो ताकि दुनिया में एक सन्देश जाए भाईचारे का।  यही तो कहते रहे बाबर के साथ खड़े लोग। गंगा जमुनी तहजीब निभाते रहे। मस्जिद न बने तो कोई बात नहीं।  मगर मंदिर नहीं बनना चाहिए।  गंगा जमुनी तहजीब।  स्वाभाविक है , जिन्हे मस्जिद की जगह हॉस्पिटल में कोई दिक्कत नहीं थी उन्हें दिक्कत तो मंदिर से ही थी। कितनी खूबसूरत है ये गंगा जमुनी तहजीब। लेकिन किसके लिए।
रामलला केस जीत  गए। कोर्ट ने कहा कि पांच एकड़ जमीन मस्जिद के लिए दी जाए।  यही तो है गंगा जमुनी तहजीब। लोगों ने , हिंद्युओं ने खुशियां भी न मनाई कि  कोर्ट के निर्णय से किसी का दिल न दुखे।  इसलिए इस गंगा जमुनी तहजीब पर चुप रहे सब।  मगर किसी दूसरे  ने कहा हमें मस्जिद चाहिए , फिर से कोर्ट जाएंगे।  गंगा जमुनी तहजीब।  बाबर के साथ खड़े हुए लोग।  बाबर लाखों हिन्दुओ को मारकर भी एक समाज के दिल में जगह बनाये हुए है और यही लोग बार बार गंगा जमुनी तहजीब सीखने और सिखाने की बात करते हैं। औरंगजेब रोड का नाम  बदलने पर हंगामा हो गया था।   हिन्दुओं के रक्त से दिल्ली की जमीन को लाल कर देने वाला औरंगजेब और उसके साथ खड़े उस गंगा जमुना के पानी से अपनी प्यास बुझाते गंगा जमुनी तहजीबी वाले लोग । गंगा जमुनी तहजीब।
लाखों कश्मीरी पंडितों को मार कर भगा दिया गया। कोई नहीं बोला। गंगा जमुनी तहजीब। चुपचाप रहे।  शायद उन्हें लगा होगा कि  कहीं बोलने से गंगा जमुनी तहजीब खत्म न हो जाए। जब कश्मीर में उन कश्मीरी पंडितों के घरों पर पोस्टर लगाए जाते रहे होंगे , कहा जाता रहा होगा कि  कश्मीर छोड़ दो माइक से बोला  जाता रहा होगा कि घर छोड़ दो। तब याद न आयी होगी गंगा जमुनी तहजीब।  कान पाक गए  हैं मेरे इस शब्द को सुनकर।  गंगा जमुनी जमुनी तहजीब।
एक दुकान  है। नाई  की।  दूकान का नाम - रुद्राक्ष।  अंदर गणेश का फोटो है।  दूकान का नाई।  गंगा जमुनी तहजीब वाला । ऐसे में इस्लाम भी खतरे में नहीं। वर्ना बात बात पर इस्लाम खतरे में। हैरानी हुई कि  कैसे गणपति बप्पा  के चरणों में बैठा है। और बार बार इस्लाम खतरे में पाता  है।  बप्पा  के आगे धूप  बत्ती करता होगा या नहीं।  मालूम नहीं।  धूप का कहीं धुआं या कोई धूप  का टुकड़ा नहीं दिखाई दिया।  मगर प्यार से गंगा जमुनी तहजीब निभाने के लिए बप्पा  की फोटो लगा बैठा है।
एक दूसरी दुकान है। कारपेंटर की। लक्ष्मी कारपेंटर।  काम करवाता हूँ घर पर।  गुरुवार को पूछता हूँ , कल की क्या चाल है।  कहता है - कल तो हम काम नहीं करते।  सोचता हूँ तो समझ आता है , ओह , कल तो फ्राइडे है।  जुमे की नमाज होगी।  गंगा जमुनी तहजीब निभाने के लिए दुकान का नाम लक्ष्मी रख लिया होगा।  गंगा जमुनी तहजीब नष्ट न हो जाए इसलिए इसे बचाने के लिए नाम लक्ष्मी रख लिया होगा।  शायद दूसरों पर भरोसा नहीं रहा होगा कि  सलीम  जावेद नाम से कहीं धंधा कमजोर न पड़  जाए।  तो क्या गंगा जमुनी तहजीब पर भरोसा नहीं है ? बाल कटाने वाला तो बाल कटाने जाएगा ही , वह चाहे सलीम हो या जावेद।  फिर रुद्राक्ष क्यों ? गंगा जमुनी तहजीब के लिए ? काम करवाएगा ही।  फिर लक्ष्मी क्यों ? वाज़िद क्यों नहीं ? छुपना छुपाना क्या और क्यों ? तो कैसी है ये गंगा जमुनी तहजीब ? ऐसी ही है क्या ? या फिर तुम्हारा पुराण रक्त आज भी हिलोरें लेता है जो तुम्हें अपने पुरखों की याद दिलाता है और मजबूर करता है हिंदुस्तानी बनने को  या हिन्दू नाम रखने को।
बाबर और औरंगजेब के बाद गंगा और जमुना के किनारे रहने वाले हिन्दू मुस्लिम ने अवध से शुरू की यह गंगा जमुनी तहजीब और बनारस , प्रयाग और कानपुर जैसे शहरों का प्रमुखतः हिस्सा बनी  यह तहजीब। और फिर सारे शहर में फ़ैल गयी यह तहजीब।  ऐसा कुछ लोगों का मानना है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ में है यह तहजीब ? या फिर कॉमन सिविल लॉ में दिखती है यह तहजीब। सब बराबर हैं तो कॉमन सिविल लॉ में क्यों नहीं है यह तहजीब ? एक शादी , चार शादी के अंतर में कहाँ है यह तहजीब ?  1954 में हिन्दुओं के लिए एक शादी का नियम बना , उसमें कहाँ है यह तहजीब ?
मज़ार में चादर  चढ़ाते हिन्दुओं में दिखती है यह तहजीब। मगर मंदिर में घुसने से जिनका धर्म खतरे में पड़  जाए उनमे कहाँ ढूँढूँ यह तहजीब ? ईद की सेवईं खाते  हिन्दुओं में दिखती है यह तहजीब। गलती से भी होली का रंग पड़  जाने पर बवाल मचाने वालों में कहाँ ढूँढू यह तहजीब ? बिस्मिल्लाह खान में दिखती थी यह तहजीब।  अब्दुल कलाम आज़ाद में दिखती थी यह तहजीब।  अब्दुल कलाम के जनाजे से जो तमाम लोग गायब हो गए उनमे कहाँ ढूँढू यह तहजीब ? जो अब्दुल कलाम के जनाजे में न जाकर अफजल गुरु , बुरहान वानी  जैसों के जनाजों में शामिल हो जाते हैं उनमें  कहाँ से ढूँढूँ यह तहजीब ? बंगाल की नव निर्वाचित सांसद नुसरत जहां के दुर्गा पूजा में शामिल होने पर होती है गंगा जमुनी तहजीब। उस पर फतवा जारी करने वाले मौलानाओं में कैसे ढूँढू यह तहजीब ? कान पक  गए हैं यह सुनते सुनते कि  यहां है गंगा जमुनी तहजीब।
कोई तो सही ढंग से समझाए - क्या है यह गंगा जमुनी तहजीब ?

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

नागरिकता बिल पास हो गया है और इमरान खान परेशां हो उठे हैं।  साथ में विपक्ष के कुछ दल  भी।  ये  विपक्ष इसलिए परेशां है क्योंकि  उसे लगता है कि  अमित शाह का फ्लोर मैनेजमेंट  कुछ भी कर जाएगा। आखिर अगर सरकार कुछ भी पास करा ले जायेगी तो फिर विपक्ष क्या करेगा।  शिवसेना बेवकूफ बनाने की खुशफहमी में  बेवकूफी कर गयी।  जहां उसके बगैर भी यह बिल पास हो जाता वहां तो समर्थन कर गयी मगर राज्यसभा में ? सोचिये अगर जीत हार का फैसला एक दो  वोट से होना होता तो क्या होता ? शिवसेना के वाक् आउट से बिल गिर जाता।  वह तो अमित शाह का मैनेजमेंट था कि  विपक्ष चित्त है ? विपक्ष को ज्यादा दर्द तो इसलिए ही होगा कि  सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चलने वाली कांग्रेस के लिए यह फिर से मुश्किल घडी है।  वह क्या करे ? मुस्लिम वोट भी चाहिए मगर सब कुछ तो हाथ से निकला ही जा रहा है। वर्ना  कांग्रेस भी समय समय पर नागरिकता  देती रही  है। जैसे तमिलों को , राजस्थान के पाकिस्तानी हिन्दू और सिखों को। खैर।  पर तब कोई समस्या नहीं हुई। 
एक समाज सेवी हैं - जॉन  दयाल , ईसाई हैं। परेशान  हैं कि  मुस्लिमों  को क्यों नहीं लिया।  ईसाईयों को लेने की ख़ुशी भले ही मन के अंदर हो मगर मोदी विरोध कब काम आएगा ? सो मुस्लिमों के लिए परेशां हैं ? बिल में तो पीड़ित अल्पसंख्यकों  की बात हैं और वे भी वे जो इन ३ देशों में प्रताड़ित हैं।  अब क्या करें।  
अब काम की बात करते हैं।  कहते हैं कि  मोदी वहां से सोचना शुरू करते हैं जहां और लोगों की सोच ख़त्म हो जाती है।  अब इमरान परेशां हैं।  क्या करेंगे ? बदला लेंगे ? कैसे ? क्या इमरान बदला लेने के लिए  ऐसा ही एक बिल पाकिस्तानी संसद में लाएंगे कि  जो कोई मुस्लिम हिंदुस्तान में प्रताड़ित हैं वे यदि पाकिस्तान आना चाहते हैं तो आ सकते हैं। मगर यह उन्हें कैसे पता चलेगा कि  हिंदुस्तान के मुस्लिम परेशां हैं? क्योंकि वहाँ पाक में तो कोई मुस्लिम शरणार्थी टेंटो में नहीं रह रहे हैं जो हिंदुस्तान से परेशान  हों।  यहां तो जो मोदी के  पी एम  बनने पर भी हिंदुस्तान छोड़ने के बात कर रहे थे वे भी अभी तक डटे  हुए हैं। जो डरे हुए थे वे नायक सरीखे लोग  भी चैन की बंसी बजा रहे हैं।  तो इमरान बिल लाएंगे ? यदि लाये तो एक नया खेल हो जाएगा।  क्योंकि अगर कोई वहां गया ही नहीं तो यह साबित होगा कि मुस्लिम यहां भारत में आराम से हैं। और यदि गया तो ? तब साबित हो पायेगा कि  हाँ उन्हें परेशानी है।  पर किसे यह अंदाजा हैं कि मुस्लिम्स यहाँ से प्रताड़ना का बहाना बनाकर वहां जायेगें। क्या वहां कोई टेंट में रहते मुस्लिम किसी ने देखे हैं जो यहां से परेशां होकर वहां गए हों।  जिसे भी जरा भी अंदाजा है वह गलत है। कोई नहीं जाएगा और इसलिए यह साबित करेगा कि मुस्लिम्स यहां सुरक्षित हैं। तभी तो वे बिल में मुस्लिम्स को भी शामिल करने की बात कर रहे हैं।  अन्यथा क्या उन्हें पाक के मुस्लिम्स को यह संदेश नहीं देना चाहिए था कि यहां न आना।  वे भले ही अपने डर  की बात करते हों मगर वे डरे हुए नहीं हैं बल्कि आराम से हैं।  इसलिए तो सिब्बल गृहमंत्री से  बोले कि  अब आपसे कोई नहीं डरता तो अमित शाह का जवाब था कि डरना भी नहीं चाहिए।  पर कांग्रेस तो मुश्किल में हैं , खुद ही बार बार कहती है कि  भाजपा से मुस्लिम्स डरे हुए हैं। अब यहीं कांग्रेस कन्फ्यूज्ड हैं।  इधर भी उधर भी।  खैर , यदि इमरान खान ने कोई बिल  पास न किया तो ? क्या कहेंगे मुस्लिम्स ? जिस इमरान खान पर , पाकिस्तान पर थोड़ा बहुत भरोसा उन कुछ लोगों का होगा जो अभी भी पाक से जुड़े हो सकते हों तो पाक तो बिल लाएगा ही नहीं  कि कोई यदि भारत में पीड़ित हैं तो वहां आ सकते हैं , तो इमरान के बिल न लाने से स्वाभाविक तौर पर यहाँ के मुस्लिम्स को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि पाकिस्तान उन्हें वहाँ नहीं लेने वाला। इसलिए उनका यह चश्मा भी उतर जाएगा।  और यदि पाक , बांग्लादेश व अफगानिस्तान से अल्पसंख्यक ये छह समुदाय के लोग भारत आना शुरू हो गए तो अंतर्राष्ट्रीय मंच पर इन देश की किरकिरी होनी स्वाभाविक है।  पाक , अफगानिस्तान और बांग्ला देश धार्मिक देश हैं और इसलिए वहां पर धार्मिक उत्पीड़न है और इसलिए यह बिल लाना पड़ा है।  पिछले पांच साल में पाक व भारत के शहरों में कितने बम  विस्फोट हुए हैं ? भारत में लगभग जीरो और पाक में आये दिन लोग बम विस्फोट में मरते लोग इस बात के गवाह हैं कि भारत कितना सुरक्षित है।  पचपन से ज्यादा मुस्लिम देशों में क्या कोई देश है जो चीन में उत्पीड़ित मुस्लिमों के लिए अपने दरवाजे खोल सके ?  सवाल भारत से किये जाते हैं।  क्या भारत के बुद्धिजीवी किसी मुस्लिम देश को लिख पाएंगे कि  वह कम  से कम  मुस्लिम्स के लिए ही CAB  लाए।  शायद आसानी से नहीं होगा यह काम।  इसलिए इमरान के CAB  का इतंजार कीजिये और यह साबित होने की प्रतीक्षा कीजिये कि  न तो इमरान खान कोई CAB  लाने जा रहे हैं और न उनके CAB  लाने पर कोई हिंदुस्तानी मुस्लिम पाक जा रहा है क्योंकि मुस्लिम भी जानते हैं कि  इससे बेहतर स्थान दुनिया में शायद ही हो जहां मुस्लिम्स सहित सभी धर्मों के लोग आराम से रह सकें।  इसलिए पाक के मुस्लिम्स की चिंता न करें , वहाँ वे ठीक हैं।  यदि इस्लामिक देश में ही मुस्लिम ठीक नहीं हैं तो कहाँ ठीक होंगे ? हाँ , अफगानिस्तान और बांग्ला देश के पी एम ने चुप रहकर जो समझदारी दिखाई है इसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं।  

रविवार, 11 अगस्त 2019

तो अब तुम्हें मैग्सैसे पुरस्कार मिल गया है।  खुश तो बहुत होंगे तुम।  तुम्हारे खुश होने का एक कारण यह  भी होना चाहिए कि  आज फिर मैं तुम्हारे लिए लिख रहा हूँ।  मैं , हाँ , नौ बज गए क्या ? यही पूछा करता  था मैं अक्सर रात को। मुझे रोज रात को तुम्हारे इस प्राइम टाइम का इंतजार रहा करता था।  तुम्हारे कहने का अंदाज बिलकुल अलग था।  और खास बात , कि  , तुम्हारे प्राइम टाइम में सब कुछ साफ साफ सुनाई देता था।  कोई हल्ला नहीं , शोर नहीं।
मगर 2014 के बाद लगा तुम बिलकुल बदल गए थे।  मैंने एक बार तुम्हें कहा भी , बताया भी , नौ बज गए क्या ? अपनी आदत के बारे में बताया था।  मगर 

रविवार, 26 मई 2019

एक सुग्गा था। तेज और सुन्दर नाक। सर पर लाल कलगी।  मीठे बोल।  प्यारा सा। सुन्दर।  बहुत अच्छा बोलता था। जंगल का राजा बनना चाहता था। दिक़्क़त  यह थी कि उसका मुकाबला शेर से था।  शेर ने तय किया था कि वह उसके क्षेत्र को एक टाइगर को सौंप देगा।  वह डरा हुआ था।  वह पहले खुद इस इलाके का राजा हुआ करता था।  उसने एक कठफोड़वे का हाथ थामा।  सोचा , मजबूती मिलेगी।  मगर वह हार गया।  शेर ने वह इलाका टाइगर को दे दिया।  टाइगर बहुत तेज था।  सुग्गे को कुछ हाथ न लगा।  उसकी और उसके साथी की , जिस कठफोड़वे का उसने हाथ थामा था उसकी भी बुरी दुर्गति हुई। इधर इसकी भी दुर्गति हुई। सुग्गे को लगा  ,  उसने जिसका हाथ थामा था वह बेकार था।  गलती हुई।  बदला लेगा।
एक बार जंगल के राजा का चुनाव था।  शेर कुर्सी पर बैठा था।  सुग्गे ने सोचा , अच्छा मौका है।  इस वसंत में वह फायदा उठाने से नहीं चूकेगा।  उसने सोचा , क्यों न कोयल से बात की जाए।  वसंत में कोयल से बात हो जाए तो कोयल की कुहू कुहू में उसकी भी बन जायेगी।  उसने कभी पहले कोयल को प्यार से बुआ कह दिया था।  बुआ भी उसे बबुआ कहकर दुलारती थी।  सुग्गे ने कोयल से बात की।  कोयल तैयार हो गयी।  पर सुग्गा यह भूल गया कि  कोयल तो अपने अंडे भी दूसरे  के घोसले में रख पलवा लेती है।  कोयल और सुग्गे , दोनों ने शेर को हटाने की कोशिश की।  उन्होंने एक कौवे को भी तैयार कर लिया।  पहले सुग्गे के पास पांच साथी  थे जो अक्सर सभा में उसकी बात रखते थे।  बाद में वो आठ हो गए थे।  कोयल से सब चिढ़ते थे।  उसके  पास कोई साथी  नहीं था। पर दोनों तैयार हो गए।  पर जंगल में जब चुनाव हुआ तब सुग्गे को  जब होश आया तब वह आठ से पांच पर आ चुका  था।  मगर चालाक कोयल ने अपने दस साथी सुग्गे और कौवे के घोंसले में पलवा लिए थे।  कौवे का भी नामो निशान नहीं था। सुग्गे को लगा , उसके साथ तो धोखा हो गया है।  सुग्गा गुमसुम हो गया।  कोयल थोड़ा चहकी।  पर उदास भी थी।  कोयल सोचती थी , वह बहुत अच्छा बोलती है।  कुहू कुहू करती है।  सब वसंत में उसके साथ हो जायेंगे।  पर बाकियों  को शेर का साहस भा गया था।  जब कभी मोहल्ले में लकड़बग्घा आता था , शेर उनसे ताकत से निपट लेता था।  इसलिए सबको शेर के दूसरे  के घर में घुस कर उसे मारने  का अंदाज बहुत पसंद था।  शेर जीत गया।
सुग्गा गुस्सा था। सुग्गे को अंदाजा था कि सारे सुग्गे उसको वोट करेंगे। सारी  कोयलें और कौवे भी उसे वोट देंगे पर उसे वोट नहीं मिले। कौवे को तो कुछ भी नहीं मिला।  उसके साथ तो ज्यादा बड़ा धोखा हो गया था। कौवे तक उससे नाराज हो गए थे। तीनों में सबसे ज्यादा फायदे में कोयल रही। फिर कोयल बोली - शेर बेईमान है।  उसने धोखा किया है और धोखे से वह फिर राजा बन गया है। पर अब उसकी कुहू कुहू का कोई फायदा नहीं था। बहुत से सुग्गे , कौवे और कोयलें तक शेर के साथ हो गए थे। अब सुग्गा सोच रहा था कि उसने जल्दीबाजी में सब कुछ सँभालने की कोशिश कर ली थी और अपने परिवार को भी नाराज कर दिया था। सुग्गे की प्रेमिका भी चुनाव में हर गयी थी।  सुग्गा दो दिन बाद बाहर आया और बोलै - सबको प्रवक्ताओं , मीडिया प्रभारिओं को बर्खास्त किया जाता है। और फिर सुग्गा चुपचाप अपने घर में कैद हो गया है और सोच रहा है कि अब क्या करे ? 

गुरुवार, 23 मई 2019

यह कहर ही तो है।  मोदी योगी के प्रति जनता के विश्वास का कहर।  मोदी नीतीश की ईमानदारी का कहर। बीजेपी शिवसेना के गठजोड़ का कहर।  जनता के मन के भावों के प्रति ममता की कटुता का कहर।  कहीं खट्टर राज की निर्मलता और विश्वास का कहर। कहीं किसी एक बात का कहर। कहीं किसी और का कहर।  यह कहर ही तो है जिसने एक मजदूर को यह कहने को मजबूर कर दिया था कि  उसके बस्ती में कमल खिलेगा।  उसके ससुराल बहराइच में कमल खिलेगा।  उसके रिश्तेदारों के शहर शाहजहांपुर में कमल खिलेगा।  आज जब चुनाव परिणाम देखता हूँ तो देखता हूँ कि यू पी के इन तीन शहरों में कमल ही खिला है।  उसने कहा था - वह आखिरी घंटे में वोट करने जाता है , उसके बूथ पर कमल का बटन काला पड़ चुका  था।  ढीला भी।  उसने सही कहा था। ई  वी  एम और उसपर होने वाला हल्ला अब ख़त्म हो गया है।  बवाल मचाने वाले चुप हो गए हैं।  उन्होंने हार मान ली है। अब आज रात प्राइम टाइम में मेरा एक पसंदीदा टीवी एंकर भी मान गया है कि  जो सरकार आयी है वह विश्वास अर्जित कर  चुकी है और इतना विश्वास अर्जित कर चुकी है कि  अब किसी और के भी एक साथ आ जाने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।  यह एंकर वैसे तो घबराया हुआ है मगर उम्मीद है कि वह अपनी नकारात्मकता को नहीं छोड़ेगा और कुछ नया जरूर करेगा।  लोगों ने कहा - मोदी ने किया क्या ? लोग कहते थे - मोदी ने शौचालय दिया है।  लोग सवाल करते थे - उससे क्या होगा ? पैसे तो प्रधान खा जाता है।  लोग पूछते थे - मोदी ने किया क्या है ? जवाब मिलता था - गैस दी है।  फिर सवाल होता था - दोबारा सिलेंडर कौन भराएगा ? जवाब देना भारी हो जाता था।  लोग सवाल रखते थे  - मोदी ने किया क्या है ? जवाब आता था - उज्ज्वला योजना के तहत लाइट कनेक्शन दिया है।  फिर सवाल होता था - बिल कौन भरेगा ? जवाब कौन दे।  लोग कहते - मोदी ने किया क्या है ? जवाब में आयुष्मान योजना का जिक्र करना पड़ता था।  फिर पूछा जाता था - पर सारे  हॉस्पिटल कहाँ शामिल हैं ? और इलाज के लिए जाने पर मरीजों को भगा दिया जाता है।  तो इनको जवाब देना पड़ता था - समय लगेगा। लोग पूछते - मोदी ने किया क्या है ? कहना पड़ता - जन धन खाते खुलवाए हैं। सुनना पड़ता - पर पंद्रह लाख तो आये नहीं।  समझाना मुश्किल होता कि  मोदी ने कभी पंद्रह लाख अकाउंट में डलवाने की बात कही ही नहीं।  लोग कहते - मोदी ने दो करोड़ रोजगार तो दिए ही नहीं ? पूछना पड़ता - कब कहा था और कहाँ लिखा था कि  देंगे ? और फिर क्या पिछली सरकारों ने इतनी बेरोजगारी फैलाई थी कि दो करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष देने से ही बेरोजगारी ख़त्म होती ? लोग सवाल पर सवाल करते और जवाब चाहते।  फिर एक दिन सर्जिकल स्ट्राइक के बाद एयर स्ट्राइक भी हो गयी।  बिजली गिरी।  पूछा - लाशें गिनीं या पेड़ गिरा आये।  क्रेडिबिलिटी किस तरह गिरती है , यह इस तरह से पता चलना शुरू हुआ और वह गिरनी शुरू हो गयी।  पहले सर्जिकल स्ट्राइक पर और फिर एयर स्ट्राइक पर सवाल।  अभिनन्दन का आना और सरकार का उसे भुनाना और विपक्ष का फिर सवाल - सरकार फायदा उठा रही है ? तो ? यदि स्ट्राइक फेल  हो जाती तो राजनीति नहीं होती क्या ? होती। यह एयर स्ट्राइक ने परिदृश्य ही बदल दिया।  राष्ट्रवाद हावी हुआ और फिर वो हुआ जो हम आज देख रहे हैं।  मगर मेरा प्रिय एंकर कह रहा है कि अब पता चल रहा है कि अगर राष्ट्रवाद का मुद्दा न भी हुआ होता तो भी यह पता चला है कि लोग यही सरकार चुनते।  उसे भी अब पता चल गया है कि  सरकार ने कुछ तो किया ही है।  कुछ लोगों को लोकतंत्र खतरे में दिखाई दे रहा है और अपना आराम भी।  ईश्वर उनके आराम की रक्षा करे। और आज देश के उस नायक ने अपना वक्तव्य दिया है कार्यकर्ताओं के सामने।  उसको सुनने के बाद भी यदि लोगों को कुछ समझ नहीं आ रहा है तो ईश्वर उन लोगों की समझ विकसित करे।  

शनिवार, 18 मई 2019

वो बहेलिया है। जाल बिछाता है।  कबूतर फंस जाते हैं।  पांच  साल से फंस रहे हैं।  वे उसे समझ ही नहीं पाते।  वह बार बार जाल डालता है।  वे बार बार फंसते हैं।  उनके बीच कई बूढ़े कबूतर हैं।  नाराज है।  क्योंकि मुखिया एक जवान को बनाया गया है। जवान ने अपने साथ युवा लिए है।  बूढ़ों को दर किनार कर दिया है।  बूढ़े चिढ़े हुए हैं।  वे बीच बीच में गड़बड़ कर देते हैं।  चाहते तो वे थे कि कबूतरों की दिग्विजय हो।  उसके पास एक ऐसी मणि हो जो अलादीन के चिराग का काम करे।  लेकिन यह मणि बहेलिये के लिए अलादीन का चिराग साबित हो रही है। उन बूढ़ों की कोई सुनता ही नहीं है।  वे अवसादी से दिखते  हैं।  महत्व नहीं मिल रहा है।  जवान कबूतर कई साल से अभी तक सीख ही रहा है और फंस जाता है। वह जवान कबूतर सोने का है।  उस का बहुत महत्व है।  मगर उस तक हर एक की पहुँच नहीं है।  मिटटी से जुड़े विचार उस सोने से बने कबूतर के पास पहुँचते ही नहीं हैं। जाल  मिट्टी  में बिछा है।  कबूतर उस जाल में फंसते हैं।  उसको धीरे धीरे शायद कभी मिट्टी  का महत्व समझ आये ? कबूतर बहेलिये से चिढ़ते हैं।  नफ़रत करते हैं।  स्वाभाविक है , कबूतर क्यों प्यार करें ?
 गीता में कहा है - संगात  संजायते कामो कामात  क्रोधोभिजायते।  क्रोधात  भवति सम्मोहः सम्मोहात  स्मृति विभ्रमः।  स्मृति भ्रंशात बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात  प्रणश्यति।।
यानि  - संग से काम , काम से क्रोध , क्रोध से सम्मोह , सम्मोह से स्मृति विभ्रम , स्मृति विभ्रम से बुद्धि नाश , बुद्धि नाश से मनुष्य नष्ट हो जाता है।
सम्मोह यानि किसी के प्रति अतिशय आसक्ति।  धनात्मक या ऋणात्मक।  सकारात्मक या नकारात्मक।  धनात्मक आसक्ति सही मार्ग में लग जाए तो कल्याण ही कर देती है।  ऋणात्मक यानि नकारात्मक आसक्ति नफ़रत बढाती है।  उन सबके दिमाग में वह बहेलिया इतने ऋणात्मक भाव से भरा है कि  वे उससे आगे सोच ही नहीं पाते।  उनकी गुटरगूँ सिर्फ उसको गाली देने तक ही है।  वे बहेलिये को बहेलिया ही मानते हैं।  अपने परिवार का हिस्सा नहीं मानते।  वह भी ऐसे ही खुश है।  चावल कहाँ हैं ? उसके कार्य जो लीक से हटकर होते हैं जिनसे कबूतर चिढ़ते हैं वही चावल का काम कर जाते हैं।  इससे उसे गालियां  मिल जाती हैं।  यहीं वे कबूतर फंस जाते हैं।  उनकी गालियां तोते , मैना , चीया  , गोरैया , कोयल को अच्छी नहीं लगती।  वह समझा भी देता है। देखो , मुझे गाली दे रहे हैं। बाकी  पक्षी उसके साथ हो जाते हैं।  वह सबको कहता है , मेरे साथ रहो , घर बनाकर दूंगा।  वे सब साथ रहते हैं।  कबूतर फंस जाते हैं।  वह बार बार जाल बिछाता है।  वे फंस जाते हैं।  बहेलिया काम करके बहुत थक सा  गया है।  आज 18 मई 2019 को पहाड़ चढ़ गया है।  कहता है ध्यान लगाएगा। ध्यान लगा  रहा है।  आम के आम गुठलियों के दाम।  वह ध्यान लगाकर आराम कर रहा है।  कबूतर अपनी मायावी दुनिया में व्यस्त हैं।  माया मोह में फंसे हैं और फिर से बहेलिये को गाली  दे रहे हैं।  यही तो बहेलिये का जाल  है।  उसने फिर जाल  बिछा दिया है।  वह बहुत दूर चला गया है और यहाँ जाल बिछा गया है।  कबूतर उसे कोस रहे हैं।  वह ध्यान कर रहा है।  कबूतर समझ ही नहीं पाते कि वह कब कैसे कहाँ जाल बिछा देगा।  कबूतरों को पता ही नहीं है कि  जाल कितने तरह के होते हैं।  वे हर बार  फंस जाते हैं।  कबूतर मिल जुल रहे हैं।  सोचते हैं इस बार बहेलिये  बहेलिये को फंसा  देंगे पर वे समझ ही नहीं पा  रहे हैं कि  वह जो जाल  बिछा गया है उसमे वे फिर फंस गए हैं।  कल गौरैया चीया  तोते फिर बहेलिये के साथ साथ हो जाएंगे क्योंकि बहेलिया यही तो चाहता है कि  कबूतर फिर फंस जाएँ। वो ध्यान में है ईश्वर के  और कबूतरों के भी।  कबूतर हर वक़्त उसका ध्यान ही तो करते हैं। 
 कहते हैं नेवला साँप  को  खाता है। सांप मेंढक को और मेंढक कीड़ों को। यही पारिस्थितिकी है। और यदि किसी प्रजाति को वह न मिले जिसे खाने से यह प्राकृतिक संतुलन स्थापित होता है तो ? वे आपस में  खुद एक दूसरे  को ही खाने लगते हैं। और जब अपनी प्रजाति ही ख़त्म  हो जाए तो वे अपने अंगों को ही खाकर जिन्दा रहने की कोशिश करते हैं।
राजनीति  कहने के लिए सेवा का अवसर है और यथार्थ में यह सिर्फ सत्ता हथियाने का एक औजार। और ऐसे में सत्ता पक्ष विपक्ष को और विपक्ष सत्तापक्ष को अलग थलग करने के प्रयास में रहता है। राजनीति  की इस महाभारत में सिर्फ एक बार अभिमन्यु के वध के द्वारा मर्यादाएं टूटनी चाहियें तो फिर सभी के लिए उदाहरण  के साथ मर्यादाएं तोड़ने के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं।  फिर जो चाहे इस गटर में नहा  ले।  बस उदाहरण देना पड़ता है कि  उसने भी ऐसा ही किया था और किये जाओ।
लोकसभा चुनाव 2019 अब आखिरी दौर में है। इस चुनाव से पूर्व कई तरह के गठबंधन के प्रयास हुए। उत्तर प्रदेश ने  एक सशक्त गठबंधन  दिया है सपा और बसपा का। कांग्रेस को दर किनार कर , उसे अमेठी और रायबरेली में वॉकओवर देकर उस पर एहसान किया है इस गठबंधन ने। मगर बाकी जगह उसे नकारने में इन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई।  अब जिस प्रजाति को , जिस विपक्ष को यह सोचना था कि  एक होकर लड़ता वह आपस में ही लड़ने लगा। कांग्रेस के दरकिनार  किये जाने पर स्वाभाविक था कि  वह अपने लिए जगह बनाने का प्रयास करेगी।  सो उसने तय किया कि  सभी सीट पर लड़ा जाये।  अब कभी जिस पार्टी का सारे देश में वर्चस्व रहा हो उसके लिए यह जरूरी होना था कि  अपना अस्तित्व बचाये।  जहां अपना अस्तित्व बचाने को दो घोरविरोधी  दल  एक हो गए वहां यह लड़ाई कांग्रेस के लिए भी बीजेपी से लड़ने के बजाय अपना अस्तित्व बचाने की हो गयी।  अब  ऐसे में कांग्रेस के लिए जितना जरूरी उत्तर प्रदेश में अपनी सीट दो से बढाकर पांच सात दस करना  है उससे ज्यादा जरूरी यह हो गया कि  किसी तरह इस गठबंधन को फेल किया जाये।  यहां एक दूसरे  को खाने की होड़ मच गयी क्योंकि यदि  उत्तर प्रदेश में गठबंधन फेल हो जाता है तो फिर भविष्य में गठबंधन के रास्ते बंद हो जाएंगे  और यदि गठबंधन सफल हो जाता है तो कांग्रेस के रास्ते बंद।  इसलिए कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश  का चुनाव जीतना उतना जरूरी नहीं है जितना गठबंधन को विफल  करना। और  इसकी आवृति हम दिल्ली में भी देख सकते हैं।
अरविंद केजरीवाल स्वराज का झंडा लिए कांग्रेस को गलियाते गरियाते पहुँच गए दिल्ली विधानसभा में।  और फिर लोक सभा में कांग्रेस को दो तीन सीट्स का ऑफर भी दे दिया।  जाहिर था , पहले कांग्रेस को गलियाना , गरियाना , फिर सरकार कांग्रेस  के सहयोग से बनाना और फिर इस्तीफ़ा  और फिर कांग्रेस पर जबरन समर्थन देना , फिर से 67  सीट्स जीतकर सरकार  बनाना।  और अब फिर से कांग्रेस को दो तीन सीट्स का ऑफर देना। स्वाभाविक था , कांग्रेस के लिए इसे हज़म करना आसान नहीं था।  इससे कांग्रेस की स्थानीय राजनीति भी ख़त्म हो जाती उन उन सीट्स पर।  सो कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व जिसमें शीला दीक्षित प्रमुख हैं , के विरोध का  सम्मान कर अकेले लड़ने का तय किया।  इससे फिर विपक्ष में एक दूसरे  को हटाने की होड़ लगी है।  यहां कांग्रेस फिर से जानती है कि  यदि केजरीवाल कहीं जीतते हैं तो कांग्रेस ख़त्म , और कांग्रेस जीती तो केजरी की राजनीति दिल्ली में ख़त्म।  और यदि दोनों हारे  तो बीजेपी के विकल्प के रूप में 2024 में कांग्रेस तैयार।  यानि यहां भी विपक्ष एक दूसरे  को निगल रहा है।  सामने बीजेपी है और कांग्रेस में विकल्प बनने की छटपटाहट।
पश्चिम बंगाल में टी एम सी , कांग्रेस , कम्युनिस्ट और बीजेपी में होड़ है और लड़ाई फिर बीजेपी बनाम बिखरे विपक्ष के बीच है।  हालाँकि मुख्य दो ही दल  हैं , बीजेपी और टी एम सी।  मगर विपक्ष यहां भी एक नहीं हो सका और आपस में टकरा रहा है तो भला बीजेपी से क्या लड़ता।  केरल में कम्युनिस्ट पार्टी को चुनौती देने पहुंची कांग्रेस राहुल के द्वारा वामपंथियों को हराएगी या जीतकर बीजेपी का रास्ता रोकने की कोशिश करेगी या फिर बीजेपी।  मगर यह एक और उदाहरण है जहां विपक्ष आपस में लड़ता फिर रहा है।
ऐसे में विपक्ष की स्थिति स्वयं जीतने की नहीं है बल्कि कई जगह दूसरे  को मिटाकर खुद का रास्ता तैयार करने की है और यह दूसरा विपक्ष है न कि  सत्तापक्ष।  कांग्रेस को पता है , यह तमाम विपक्ष कभी कांग्रेस का ही हिस्सा हुआ करता था और कांग्रेस के पंख वक्त के साथ कटते गए और रक्त बीज की तरह ये नए दल  उगते गए और अंततः आज कांग्रेस का ही खून पीकर जिन्दा है।  कांग्रेस जानती है , जब तक वह इन रक्त बीजों से नहीं निपटेगी तब तक वह इस स्थिति में नहीं आएगी जिसमें किसी की इतनी हिम्मत न हो सके कि  वह कांग्रेस को दर किनार करे। कांग्रेस चाहेगी कि उत्तर प्रदेश का गठबंधन किसी तरह ख़त्म हो जाए और 2022 में ये फिर दोबारा गठबंधन न कर सकें।  क्योंकि यदि यह गठबंधन सफल हो गया तो कांग्रेस के लिए 2022 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और कठिन हो जाएगा। और गठबंधन के फेल होने पर कांग्रेस फिर से अपने को लड़ाई में शामिल कर लेगी और कभी अपने ही रहे मुस्लिम वोट को यह समझने में कामयाब हो जायेगी कि  बीजेपी को सिर्फ कांग्रेस ही हरा सकती है और कोई नहीं , ताकि मुस्लिम वोट एकमुश्त कांग्रेस की झोली में आ सके और अपने परंपरागत वोट और सत्तापक्ष से नाराज वोटर्स के जरिये वह फिर से भविष्य में बीजेपी के सामने कड़ी हो सके।
अब देखना होगा कि  अगला सप्ताह क्या करवट लेता है और भविष्य के लिए क्या तय करते हैं देश के वोटर्स। 

गुरुवार, 16 मई 2019

कृपया व्हाट्स ऍप  यूनिवर्सिटी के छात्र न पढ़ें -

हम सब क्या वत्स व्हाट्स ऍप  यूनिवर्सिटी के छात्र हैं ? क्या हमारी व्युत्पत्ति क्षमता ख़त्म हो चुकी है ? क्या हमने कुछ कहने से पहले सोचना विचारना  छोड़ दिया है ? क्या ऐसा कुछ है ?
आज के इस  दौर में जब देश में यह एक तथाकथित अवधारणा फैलाई जा रही है कि बोलने की  आज़ादी नहीं है तब , जब यह कहा जा रहा है कि पी एम मोदी के खिलाफ बोलना देशद्रोह सा समझा जा रहा है तब क्या वाकई ऐसा है ? शायद नहीं।  पी एम क्या देश होता है ? नहीं।  तो फिर एक व्यक्ति के खिलाफ बोलना देशद्रोह कैसा ? देश व्यक्ति से कहीं  बहुत आगे है।  है न ?
क्या शाब्दिक हिंसा का भी कोई स्थान होना चाहिए ? नहीं।  क्या मोदी जी के खिलाफ की गई शाब्दिक हिंसा देश के प्रति की गई हिंसा मानी जा सकती है ? नहीं।  क्यों ? क्योंकि मोदी जी देश नहीं हैं।  न मनमोहन जी देश थे।  और न उनसे पूर्व के प्रधानमंत्री या अन्य कोई।  तो फिर यह तय है कि  व्यक्ति  के प्रति की गयी शाब्दिक हिंसा या कुछ भी किया गया उस देश के प्रति किया गया नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह व्यक्ति देश नहीं है।  क्योंकि इस देश में 130  करोड़ लोग हैं जो उस स्थान को भर सकते हैं यदि काबिलियत पैदा करें तो ?
क्या गाँधी जी देश थे  ? यदि हाँ तो गोडसे देश द्रोही था।  यदि नहीं तो फिर गोडसे देशद्रोही कैसे ? गाँधी जी देश के नायक थेऔर गोडसे उस नायक का हत्यारा।  एक ऐसा हत्यारा जो गाँधी जी के प्रति क्रोध से भरा था।  विभाजन के बाद जब धार्मिक आधार पर लोग अपने वतन जाने लगे तब गाँधी जी का यह विचार कि  जो जहां है वह वहीँ रहेगा और उनके  प्रति यह आरोप कि  वे पाक के प्रति जरूरत से ज्यादा उदार होने की कोशिश  थे और पाक को 55 करोड़ रुपये देने के लिए अनशन पर बैठ गए थे तब उन हालातों में एक व्यक्ति उनके विचारों से असहमत होकर उनकी हत्या कर देता है। जीवन देने की क्षमता न हो तो जीवन लेने का तो कोई अधिकार नहीं है।  गोडसे को फांसी हुई और सही हुई।  किसी की हत्या को किसी तरह से भी जायज ठहराना नाजायज कृत्य से कम  नहीं है। विचार को विचार से मारा जाता है और शरीर की हत्या से विचार नहीं मारा करते। गाँधी जी देश के नायक थे।  कोई कहे कि  पिता थे राष्ट्र पिता थे तो आर टी आई से तो पता ही नहीं चला कि  उन्हें किसने राष्ट्रपिता कहा ? लोग कहते हैं कि  पहली बार सुभाष चंद्र बोस ने कहा था।  खैर , पर देश को किसने तोडा ? जिन्ना ने ? तो क्यों न जिन्ना को देशद्रोही कहा जाए। परिवार को तोड़ने वाला परिवार द्रोही हो सकता है तो देश को तोड़ने वाला देश द्रोही क्यों नहीं ? क्या  गोडसे  ने देश को तोडा था ? नहीं।  उसे देशद्रोही कैसे कहूँ।  गाँधी जी देश नहीं थे नायक थे गोडसे हत्यारा था सजा मिली।  मिलनी भी चाहिए थी।  पर वह देशद्रोही कैसे ? उसने जो किया वैचारिक असहमति के कारण  किया और उसके कारण  शायद उसकी नजर में जायज रहे होंगे तभी वह रेडियो पर पांच मिनट का समय चाहता था ताकि लोगों को बता सके कि  उसने गाँधी जी को क्यों मारा ? मगर उसे वह समय नहीं दिया गया।  यह भी वैचारिक हिंसा थी। किसी को फांसी होने वाली हो और वह पांच मिनट के लिए बोलने का समय मांगे और उसे समय न मिले।  मगर उस समय के हालातों में जिसे जब जो ठीक लगा वह किया  गया।  मगर बात वही है कि  गाँधी जी का हत्यारा होना एक अलग बात है और देश भक्त या देश द्रोही होना अलग बात है।
आतंकवाद एक विचारधारा  होती है जो किसी उद्देश्य को लेकर चलती है।  उसका एक संगठन होता है।  उनका एक उद्देश्य होता है।  मगर एकल व्यक्ति कभी आतंकवादी नहीं होता। वरना  हमें हर हत्यारे को आतंकवादी कहना पड़ेगा।  खालिस्तान का आतंकवाद एक उद्देश्य के साथ किया गया था।  जैश ए  मोहम्मद , लश्कर  ए  तोयबा , आइसिस जैसे संगठन आतंकवादी हैं क्योंकि एक उद्देश्य के साथ चल रहे हैं पर एकल व्यक्ति जो किसी को किसी घृणा या किसी पर गुस्से से हमला करता है हत्या करता है वह आतंकवादी नहीं हो सकता।
इसलिए जब कोई गोडसे को देशद्रोही कहने लगता है तब सोचने लगता हूँ कि  किसी ने आजतक जिन्ना को तो देश द्रोही नहीं कहा।  क्यों ? जिन्ना देशद्रोही क्यों नहीं ? और गोडसे जिसे देश तोड़ने का जिम्मेदार तो कतई  नहीं माना  जा सकता वह देश द्रोही कैसे ? वह हत्यारा है।  निंदनीय है।  मगर देशद्रोही या आतंकवादी कैसे ? और फिर यह राष्ट्र तो हज़ारों वर्षों से है , न की कुछ वर्षों से। देश के खिलाफ की गयी साज़िश देश द्रोह में आएगी या फिर मानव या महामानव के खिलाफ की गयी साज़िश या हत्या भी देश द्रोह में है ? सोचना गलत क्यों हैं ? लेकिन गोडसे गलत था इसमें कोई दो राय नहीं है क्योंकि उसे हत्या का हक़ नहीं था।  यह बात अलग है कि  रेडियो पर अपने उद्बोधन में वह अपने को सही ठहराता  या उसके भाई गोपाल गोडसे ने जो अपनी पुस्तकों - गाँधी वध क्यों और गाँधी वध और मैं , के द्वारा इसे सही ठहरने की कोशिश की है , उस पर किताब पढ़ने वाले स्वयं सोचेंगे जो ebook  के रूप में नेट पर pdf  के रूप में उपलब्ध है।  

रविवार, 12 मई 2019

एन  एच 58 पर कुछ मजदूर काम कर रहे हैं।  स्थान मोतीचूर , हरिपुर कलां , रायवाला , देहरादून।   हाईवे ब्रिज का निर्माण कार्य चल रहा है।  सुबह का समय है।  बगल के बगीचे को हाईवे के ठेकेदार द्वारा किराये पर लिया गया है और वहाँ पर उन मजदूरों के रहने के लिए टीन shade  तैयार किये गए हैं और शौचालय आदि की स्थायी व्यवस्था की गयी है।  सुबह साढ़े आठ बजे के लगभग कुछ मजदूर एक दीवार पर बैठे हैं।  उनसे यूं ही बात शुरू करता हूँ और कहता हूँ कि अब उनके न्याय का समय आ गया है और राहुल गाँधी यदि पी एम बने तो उनको हर माह छह हज़ार रुपये देंगे यानि साल में बहत्तर हज़ार।  यह सुनते ही उनमें से एक ज्यादा उम्र का मजदूर तत्काल प्रतिक्रिया देता है - नहीं नहीं , अबकी फिर मोदी आएगा।  पूछता हूँ - क्यों ? कहता है - क्यों क्या ? मोदी ही आएगा।  मोदी काम कर रहा है।  पूछता हूँ तो बताता है - अभी थोड़े दिन पहले वह और उसके साथी इलाहाबाद थे और इलाहाबाद में हाई कोर्ट के पास जो हाई वे है उसके निर्माण में उसका ठेकेदार ही काम कर रहा था।  उसे बताता हूँ - मैं भी कुछ समय बमरौली रहकर आया हूँ जो इलाहाबाद में है तो बताता है कि  वह तो बस्ती का रहने वाला है।  कहता है - बस्ती में बीजेपी ही जीतेगी।  फिर बताता है - ससुराल बहराइच में है और बहराइच में फ़ोन करके पता लगाया है कि वहाँ भी कमल का फूल ही जीतेगा।  फिर बताता है - मेरे कई रिश्तेदार शाहजहां पुर में हैं और सब बता रहे हैं कि  शाहजहांपुर में भी बीजेपी ही जीतेगी।  उससे उसके अपने इलाके बस्ती के बारे में पूछता हूँ - कैसे पता कर लेते हो ? कहता है कि  हर चुनाव में आखिरी घंटे में वोट डालने जाते हैं हम लोग।  और इस बार भी गए।  कमल के फूल का बटन कला हो चूका था और ढीला भी और अंदर को धंस गया था।  बाकि बटन साफ सुथरे थे।  हमारे यहां नब्बे प्रतिशत वोट बीजेपी को पड़ा है। मैं  उसके इस ज्ञान पर हैरान हो जाता हूँ कि  किस तरह वह यह पता लगा लेता है कि  वोट कहाँ पड़ा है। पूछता हूँ - गत बंधन तो बहुत मजबूत है ? कहता है - नहीं नहीं।  गठबंधन कुछ नहीं है।  क्यों ? क्यों क्या ? कमल खिलेगा।  क्यों भाई ? काम किया है।  क्या काम किया है ? काम ? गैस दिया है , बिजली दी है , मकान दे रहा है , आयुष्मान योजना दिया है।  हमारे इलाके में आकर देखो।  लोग कितने खुश हैं।  अकाउंट खुलवाया है।  शौचालय बनवाया है।  महिलाओं को कितनी सहूलियत है।  उनसे पूछकर देखो।  मुस्लिम महिलाएं जो तीन तलाक़ से परेशां रहती थीं वो भी खुश हैं।  सुनो , घर से आदमी भी निकलेगा और औरत भी।  वोट आदमी चाहे जहां डाले  पर औरत कमल का फूल ही दबाएंगी।  वह और उसके साथी आत्मविश्वास से लबरेज हैं।  यहां यह बताना बहुत जरूरी है कि  उत्तर प्रदेश में वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 34 . 11  प्रतिशत वोट मिला था , बी एस पी को 27 . 06 और सपा को 30 . 91  और कांग्रेस को 02 . 64 प्रतिशत।  अब यदि यहाँ पर गठबंधन के वोट को मिलाया जाए तो यह 57 . 97  है।  ऐसे में बीजेपी के 34 . 11  प्रतिशत वोट इतने कम  हैं कि  बीजेपी का पिछड़ना तय है।  मगर इस मजदूर का क्या करूँ  जो कहता है बीजेपी जीतेगी।  यदि सत्तावन प्रतिशत वोट पाने वाला गठबंधन उसकी निगाह में हार रहा है तो फिर यह गठबंधन किसलिए है ? क्या गठबंधन का वोट आपस में स्थानांतरित नहीं हो पा रहा है जो इस मजदूर के शब्दों से पता चलता है।  यदि ऐसा है तो पिछले चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में डुमरियागंज , आज़म गढ़  , फिरोजा बाद , मैनपुरी और बदायूं , ये पांच सीट पर ही सत्तावन प्रतिशत से ज्यादा वोट वाले हैं जहां वर्तमान गठबंधन को इतनी बढ़त मिली थी।  बाकि सभी सीटों पर गठबंधन का वोट इससे कम  है तो वहाँ क्या स्थिति होगी यह सोचने लायक बात है।  हालांकि सिर्फ बस्ती में ही बीजेपी जीती थी और बाकि चार सीटों पर सपा की जीत हुई थी।  सो सोचने लायक बात है कि  आगे क्या होने वाला है।  थोड़ी देर में वे खाना खाने चले जाते हैं और मैं अपने काम पर लग जाते हूँ।  आज रविवार का दिन है।  
एक सब्जी वाला है।  रोज आता था।  कुछ दिन से गायब है। बता गया था कि  बदायूं जा रहा है मोदी को वोट डालेगा।  पूछा - क्यों ? बोला  - मेरा और मेरे भाई का मकान बन रहा है।  पौने चार लाख रूपया हम दोनों के  अकाउंट में आ गया है।  हमारे लिए तो मोदी ही ठीक है। 
स्कूल में हूँ।  एक महिला स्कूल में आती है।  बच्चे को छुट्टी चाहिए।  कहाँ जाना है ? बिहार जाना है।  क्यों ? बारह तारिख को चुनाव है मोदी जी को वोट डालना है। सभी लोग एक दूसरे  का मुँह देखने लगते हैं।  कुछ और काम भी होगा ? हाँ , शादी भी है।  कब है शादी ? उन्नीस को शादी है।  पर जल्दी जा रहे हैं ताकि मोदी जी को वोट डाल  सकें।  महिला बाहर चली जाती है और हमसे हँसे  बिना नहीं रहा जाता।  एक और मजदूर कुछ दिन पूर्व मिला था जो बताकर बिहार जा रहा था कि  मोदी जी को वोट डालने जा रहा है।  एक स्कूल में कुछ बच्चे कम  आ रहे हैं।  यू  पी और बिहार के ही हैं।  वोट डालने गए हैं।  बताकर गए हैं। 
वोट  डालने के प्रति इतनी उत्सुकता देखकर हैरान हूँ।  गरीब आदमी क्या इस तरह भी वोट डालने जाता है ? खुद से पूछता हूँ और खुद को यह जवाब देकर शांत हो जाता हूँ कि  23 मई को देखते है क्या होता है। सोचें , क्या होने वाला है ?

शनिवार, 4 मई 2019

आज  एक और थप्पड़।  किसलिए ? इसलिए कि  उसने कुछ वादे  किये थे और वह उन्हें पूरे नहीं कर सका। तो ? थप्पड़ ? तो फिर उनके  थप्पड़ कहाँ हैं जिनके द्वारा नहीं पूरे  किये गए कामों को करने का वादा उसने किया था ? इस देश के नेता आज भी उसी झोपडी से निकलते हैं और चुनाव की शुरुआत करते हैं जिस झोपडी से कभी उनके पुरखे निकले थे तो फिर इतने लम्बे काल खंड में ऐसे कितने ही  वादे  किस किसने नहीं किये ? 1945 में जब नागासाकी और हेरोशिमाँ बर्बाद हो गए तब यह कौन सी प्रेरणा थी कि  वह देश आज कहीं और हैं और ठीक दो वर्ष बाद आज़ाद भारत आज कहीं भी नहीं है ? यह कहना गुनाह से कम  नहीं होगा कि  हमारी आबादी ज्यादा थी।  तो फिर क्यों हम आज भी एक बुलेट ट्रैन के लिए तरस रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि  2022 में अहमदाबाद और मुंबई के बीच चलने वाली   ट्रैन चल पड़ेगी और एक नया युग शुरू होगा ? तो फिर इतने लम्बे काल खंड में जिस जिस ने वादों का संसार रचा है उस उस के हिस्से के थप्पड़ कहाँ हैं ? या फिर सिर्फ एक ही व्यक्ति है जिस पर हम वादाखिलाफी का आरोप लगाकर जब चाहे उस पर थप्पड़ बरसा दें ?
उसने कहा था मैं यह करूंगा , मैं वह करूंगा मगर वह कर नहीं पाया , ठीक हैं , मगर यह तो बहुतों ने कहा।  फिर एक से नाराजगी क्यों ? वह तो पहले डेढ़ माह में ही सरकार छोड़ गया था पहली बार। और दूसरी बार आपने ही उसे मौका दिया।  कुछ थप्पड़ दूसरों के लिए भी बचाकर रखते।  हिम्मत नहीं हुई होगी दूसरों पर थप्पड़ चलाने की।  यह नया है।  जितना चाहे ---
उसने आरोप लगाए।  ठीक है।  किसने आरोप नहीं लगाए। किसने आरोप लगाने के बाद सत्ता में आने के बाद किस किसको जेल भेजा ?  और कितनों ने सेटिंग नहीं की ।  तो फिर उनके थप्पड़ कहाँ हैं?
उसने अपने गुरु को साधकर उल्लू सीधा किया।  ठीक है।  मगर इस देश में वर्षों से जनता को बेवकूफ बनाकर जो अपना उल्लू  सीधा  किया जा रहा है उनके थप्पड़ कहाँ हैं ? 
 उसके विचार मुझे पसंद नहीं।  ठीक हैं।  मगर  मुझे तो कइयों के विचार पसंद नहीं हैं।  तो फिर उनके थप्पड़ कहाँ हैं।  
वह पढ़ा  लिखा है।  क्या सिर्फ इसलिए सॉफ्ट टारगेट है? मुझे पता है कि वह राजनीति  में नया है।  उसने अपने अहंकार के ही कारण अपने कितनों को ही दूर कर लिया है।  उनका यह अहंकार उनके लिए भरी पड़ने वाला है मगर यह भी दिलचस्प है कि सिर्फ यही है जो लगातार थप्पड़ ही खा रहा है।  पर राजनीति  में इस तरह थप्पड़ मारने  वाले निहायत  ही गलत हैं और माफ़ी के लायक नहीं हैं। शुरुआत तो कहीं और से होनी चाहिए थी।  वो सब तो मजे ले रहे हैं जो इन थप्पड़ों के सही मायने में हक़दार हैं।  कुछ थप्पड़ औरों के लिए भी बचा कर रखिये यदि हिम्मत है तो ? किसी से सहमत न होना सबका हक़ है मगर थप्पड़ सिर्फ किसी एक के लिए संरक्षित रखे जाएँ यह अन्याय ही है।