कहते हैं नेवला साँप को खाता है। सांप मेंढक को और मेंढक कीड़ों को। यही पारिस्थितिकी है। और यदि किसी प्रजाति को वह न मिले जिसे खाने से यह प्राकृतिक संतुलन स्थापित होता है तो ? वे आपस में खुद एक दूसरे को ही खाने लगते हैं। और जब अपनी प्रजाति ही ख़त्म हो जाए तो वे अपने अंगों को ही खाकर जिन्दा रहने की कोशिश करते हैं।
राजनीति कहने के लिए सेवा का अवसर है और यथार्थ में यह सिर्फ सत्ता हथियाने का एक औजार। और ऐसे में सत्ता पक्ष विपक्ष को और विपक्ष सत्तापक्ष को अलग थलग करने के प्रयास में रहता है। राजनीति की इस महाभारत में सिर्फ एक बार अभिमन्यु के वध के द्वारा मर्यादाएं टूटनी चाहियें तो फिर सभी के लिए उदाहरण के साथ मर्यादाएं तोड़ने के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं। फिर जो चाहे इस गटर में नहा ले। बस उदाहरण देना पड़ता है कि उसने भी ऐसा ही किया था और किये जाओ।
लोकसभा चुनाव 2019 अब आखिरी दौर में है। इस चुनाव से पूर्व कई तरह के गठबंधन के प्रयास हुए। उत्तर प्रदेश ने एक सशक्त गठबंधन दिया है सपा और बसपा का। कांग्रेस को दर किनार कर , उसे अमेठी और रायबरेली में वॉकओवर देकर उस पर एहसान किया है इस गठबंधन ने। मगर बाकी जगह उसे नकारने में इन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। अब जिस प्रजाति को , जिस विपक्ष को यह सोचना था कि एक होकर लड़ता वह आपस में ही लड़ने लगा। कांग्रेस के दरकिनार किये जाने पर स्वाभाविक था कि वह अपने लिए जगह बनाने का प्रयास करेगी। सो उसने तय किया कि सभी सीट पर लड़ा जाये। अब कभी जिस पार्टी का सारे देश में वर्चस्व रहा हो उसके लिए यह जरूरी होना था कि अपना अस्तित्व बचाये। जहां अपना अस्तित्व बचाने को दो घोरविरोधी दल एक हो गए वहां यह लड़ाई कांग्रेस के लिए भी बीजेपी से लड़ने के बजाय अपना अस्तित्व बचाने की हो गयी। अब ऐसे में कांग्रेस के लिए जितना जरूरी उत्तर प्रदेश में अपनी सीट दो से बढाकर पांच सात दस करना है उससे ज्यादा जरूरी यह हो गया कि किसी तरह इस गठबंधन को फेल किया जाये। यहां एक दूसरे को खाने की होड़ मच गयी क्योंकि यदि उत्तर प्रदेश में गठबंधन फेल हो जाता है तो फिर भविष्य में गठबंधन के रास्ते बंद हो जाएंगे और यदि गठबंधन सफल हो जाता है तो कांग्रेस के रास्ते बंद। इसलिए कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना उतना जरूरी नहीं है जितना गठबंधन को विफल करना। और इसकी आवृति हम दिल्ली में भी देख सकते हैं।
अरविंद केजरीवाल स्वराज का झंडा लिए कांग्रेस को गलियाते गरियाते पहुँच गए दिल्ली विधानसभा में। और फिर लोक सभा में कांग्रेस को दो तीन सीट्स का ऑफर भी दे दिया। जाहिर था , पहले कांग्रेस को गलियाना , गरियाना , फिर सरकार कांग्रेस के सहयोग से बनाना और फिर इस्तीफ़ा और फिर कांग्रेस पर जबरन समर्थन देना , फिर से 67 सीट्स जीतकर सरकार बनाना। और अब फिर से कांग्रेस को दो तीन सीट्स का ऑफर देना। स्वाभाविक था , कांग्रेस के लिए इसे हज़म करना आसान नहीं था। इससे कांग्रेस की स्थानीय राजनीति भी ख़त्म हो जाती उन उन सीट्स पर। सो कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व जिसमें शीला दीक्षित प्रमुख हैं , के विरोध का सम्मान कर अकेले लड़ने का तय किया। इससे फिर विपक्ष में एक दूसरे को हटाने की होड़ लगी है। यहां कांग्रेस फिर से जानती है कि यदि केजरीवाल कहीं जीतते हैं तो कांग्रेस ख़त्म , और कांग्रेस जीती तो केजरी की राजनीति दिल्ली में ख़त्म। और यदि दोनों हारे तो बीजेपी के विकल्प के रूप में 2024 में कांग्रेस तैयार। यानि यहां भी विपक्ष एक दूसरे को निगल रहा है। सामने बीजेपी है और कांग्रेस में विकल्प बनने की छटपटाहट।
पश्चिम बंगाल में टी एम सी , कांग्रेस , कम्युनिस्ट और बीजेपी में होड़ है और लड़ाई फिर बीजेपी बनाम बिखरे विपक्ष के बीच है। हालाँकि मुख्य दो ही दल हैं , बीजेपी और टी एम सी। मगर विपक्ष यहां भी एक नहीं हो सका और आपस में टकरा रहा है तो भला बीजेपी से क्या लड़ता। केरल में कम्युनिस्ट पार्टी को चुनौती देने पहुंची कांग्रेस राहुल के द्वारा वामपंथियों को हराएगी या जीतकर बीजेपी का रास्ता रोकने की कोशिश करेगी या फिर बीजेपी। मगर यह एक और उदाहरण है जहां विपक्ष आपस में लड़ता फिर रहा है।
ऐसे में विपक्ष की स्थिति स्वयं जीतने की नहीं है बल्कि कई जगह दूसरे को मिटाकर खुद का रास्ता तैयार करने की है और यह दूसरा विपक्ष है न कि सत्तापक्ष। कांग्रेस को पता है , यह तमाम विपक्ष कभी कांग्रेस का ही हिस्सा हुआ करता था और कांग्रेस के पंख वक्त के साथ कटते गए और रक्त बीज की तरह ये नए दल उगते गए और अंततः आज कांग्रेस का ही खून पीकर जिन्दा है। कांग्रेस जानती है , जब तक वह इन रक्त बीजों से नहीं निपटेगी तब तक वह इस स्थिति में नहीं आएगी जिसमें किसी की इतनी हिम्मत न हो सके कि वह कांग्रेस को दर किनार करे। कांग्रेस चाहेगी कि उत्तर प्रदेश का गठबंधन किसी तरह ख़त्म हो जाए और 2022 में ये फिर दोबारा गठबंधन न कर सकें। क्योंकि यदि यह गठबंधन सफल हो गया तो कांग्रेस के लिए 2022 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और कठिन हो जाएगा। और गठबंधन के फेल होने पर कांग्रेस फिर से अपने को लड़ाई में शामिल कर लेगी और कभी अपने ही रहे मुस्लिम वोट को यह समझने में कामयाब हो जायेगी कि बीजेपी को सिर्फ कांग्रेस ही हरा सकती है और कोई नहीं , ताकि मुस्लिम वोट एकमुश्त कांग्रेस की झोली में आ सके और अपने परंपरागत वोट और सत्तापक्ष से नाराज वोटर्स के जरिये वह फिर से भविष्य में बीजेपी के सामने कड़ी हो सके।
अब देखना होगा कि अगला सप्ताह क्या करवट लेता है और भविष्य के लिए क्या तय करते हैं देश के वोटर्स।
राजनीति कहने के लिए सेवा का अवसर है और यथार्थ में यह सिर्फ सत्ता हथियाने का एक औजार। और ऐसे में सत्ता पक्ष विपक्ष को और विपक्ष सत्तापक्ष को अलग थलग करने के प्रयास में रहता है। राजनीति की इस महाभारत में सिर्फ एक बार अभिमन्यु के वध के द्वारा मर्यादाएं टूटनी चाहियें तो फिर सभी के लिए उदाहरण के साथ मर्यादाएं तोड़ने के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं। फिर जो चाहे इस गटर में नहा ले। बस उदाहरण देना पड़ता है कि उसने भी ऐसा ही किया था और किये जाओ।
लोकसभा चुनाव 2019 अब आखिरी दौर में है। इस चुनाव से पूर्व कई तरह के गठबंधन के प्रयास हुए। उत्तर प्रदेश ने एक सशक्त गठबंधन दिया है सपा और बसपा का। कांग्रेस को दर किनार कर , उसे अमेठी और रायबरेली में वॉकओवर देकर उस पर एहसान किया है इस गठबंधन ने। मगर बाकी जगह उसे नकारने में इन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। अब जिस प्रजाति को , जिस विपक्ष को यह सोचना था कि एक होकर लड़ता वह आपस में ही लड़ने लगा। कांग्रेस के दरकिनार किये जाने पर स्वाभाविक था कि वह अपने लिए जगह बनाने का प्रयास करेगी। सो उसने तय किया कि सभी सीट पर लड़ा जाये। अब कभी जिस पार्टी का सारे देश में वर्चस्व रहा हो उसके लिए यह जरूरी होना था कि अपना अस्तित्व बचाये। जहां अपना अस्तित्व बचाने को दो घोरविरोधी दल एक हो गए वहां यह लड़ाई कांग्रेस के लिए भी बीजेपी से लड़ने के बजाय अपना अस्तित्व बचाने की हो गयी। अब ऐसे में कांग्रेस के लिए जितना जरूरी उत्तर प्रदेश में अपनी सीट दो से बढाकर पांच सात दस करना है उससे ज्यादा जरूरी यह हो गया कि किसी तरह इस गठबंधन को फेल किया जाये। यहां एक दूसरे को खाने की होड़ मच गयी क्योंकि यदि उत्तर प्रदेश में गठबंधन फेल हो जाता है तो फिर भविष्य में गठबंधन के रास्ते बंद हो जाएंगे और यदि गठबंधन सफल हो जाता है तो कांग्रेस के रास्ते बंद। इसलिए कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना उतना जरूरी नहीं है जितना गठबंधन को विफल करना। और इसकी आवृति हम दिल्ली में भी देख सकते हैं।
अरविंद केजरीवाल स्वराज का झंडा लिए कांग्रेस को गलियाते गरियाते पहुँच गए दिल्ली विधानसभा में। और फिर लोक सभा में कांग्रेस को दो तीन सीट्स का ऑफर भी दे दिया। जाहिर था , पहले कांग्रेस को गलियाना , गरियाना , फिर सरकार कांग्रेस के सहयोग से बनाना और फिर इस्तीफ़ा और फिर कांग्रेस पर जबरन समर्थन देना , फिर से 67 सीट्स जीतकर सरकार बनाना। और अब फिर से कांग्रेस को दो तीन सीट्स का ऑफर देना। स्वाभाविक था , कांग्रेस के लिए इसे हज़म करना आसान नहीं था। इससे कांग्रेस की स्थानीय राजनीति भी ख़त्म हो जाती उन उन सीट्स पर। सो कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व जिसमें शीला दीक्षित प्रमुख हैं , के विरोध का सम्मान कर अकेले लड़ने का तय किया। इससे फिर विपक्ष में एक दूसरे को हटाने की होड़ लगी है। यहां कांग्रेस फिर से जानती है कि यदि केजरीवाल कहीं जीतते हैं तो कांग्रेस ख़त्म , और कांग्रेस जीती तो केजरी की राजनीति दिल्ली में ख़त्म। और यदि दोनों हारे तो बीजेपी के विकल्प के रूप में 2024 में कांग्रेस तैयार। यानि यहां भी विपक्ष एक दूसरे को निगल रहा है। सामने बीजेपी है और कांग्रेस में विकल्प बनने की छटपटाहट।
पश्चिम बंगाल में टी एम सी , कांग्रेस , कम्युनिस्ट और बीजेपी में होड़ है और लड़ाई फिर बीजेपी बनाम बिखरे विपक्ष के बीच है। हालाँकि मुख्य दो ही दल हैं , बीजेपी और टी एम सी। मगर विपक्ष यहां भी एक नहीं हो सका और आपस में टकरा रहा है तो भला बीजेपी से क्या लड़ता। केरल में कम्युनिस्ट पार्टी को चुनौती देने पहुंची कांग्रेस राहुल के द्वारा वामपंथियों को हराएगी या जीतकर बीजेपी का रास्ता रोकने की कोशिश करेगी या फिर बीजेपी। मगर यह एक और उदाहरण है जहां विपक्ष आपस में लड़ता फिर रहा है।
ऐसे में विपक्ष की स्थिति स्वयं जीतने की नहीं है बल्कि कई जगह दूसरे को मिटाकर खुद का रास्ता तैयार करने की है और यह दूसरा विपक्ष है न कि सत्तापक्ष। कांग्रेस को पता है , यह तमाम विपक्ष कभी कांग्रेस का ही हिस्सा हुआ करता था और कांग्रेस के पंख वक्त के साथ कटते गए और रक्त बीज की तरह ये नए दल उगते गए और अंततः आज कांग्रेस का ही खून पीकर जिन्दा है। कांग्रेस जानती है , जब तक वह इन रक्त बीजों से नहीं निपटेगी तब तक वह इस स्थिति में नहीं आएगी जिसमें किसी की इतनी हिम्मत न हो सके कि वह कांग्रेस को दर किनार करे। कांग्रेस चाहेगी कि उत्तर प्रदेश का गठबंधन किसी तरह ख़त्म हो जाए और 2022 में ये फिर दोबारा गठबंधन न कर सकें। क्योंकि यदि यह गठबंधन सफल हो गया तो कांग्रेस के लिए 2022 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और कठिन हो जाएगा। और गठबंधन के फेल होने पर कांग्रेस फिर से अपने को लड़ाई में शामिल कर लेगी और कभी अपने ही रहे मुस्लिम वोट को यह समझने में कामयाब हो जायेगी कि बीजेपी को सिर्फ कांग्रेस ही हरा सकती है और कोई नहीं , ताकि मुस्लिम वोट एकमुश्त कांग्रेस की झोली में आ सके और अपने परंपरागत वोट और सत्तापक्ष से नाराज वोटर्स के जरिये वह फिर से भविष्य में बीजेपी के सामने कड़ी हो सके।
अब देखना होगा कि अगला सप्ताह क्या करवट लेता है और भविष्य के लिए क्या तय करते हैं देश के वोटर्स।
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