शुक्रवार, 4 मार्च 2016

आज फेसबुक में योगेन्द्र यादव का एक पोस्ट देखा जिसमे चित्र के रूप में वे कन्हैया को भाषण देते हुए दिखाते हैं और गुजारिश करते हैं कि  सभी लोग यह ऐतिहासिक भाषण जरूर सुनें।  योगेन्द्र यादव जी व्युत्पन्न व्यक्तित्व हैं और मेरे चहेते हैं।  उनका विश्लेषण का अपना वैज्ञानिक तरीका होता है और यह मैंने कई बार देश में चुनाव के दौरान देखा है । मगर जब उन्होंने यह कहा तब मुझे लगा कि  कदाचित वे आप पार्टी में अपनी बात नहीं सुने जाने व वहां से निकाल दिए जाने की पीड़ा से त्रस्त  हैं और शायद इसीलिए इस भाषण को ऐतिहासिक कह गए हैं । हाँ , यह भाषण इस रूप में जरूर ऐतिहासिक हो सकता है कि  किस प्रकार एक छात्र पहले देश द्रोही नारों के आरोप में पकड़ा जाता हैं और फिर जब कोर्ट द्वारा छह माह के लिए बेल पर आता है तो किस तरह खुद को नेता बनाने की हशरत में फिर से कुछ भी बोल देने के लिए आतुर रहता है । वह न केवल कोर्ट की उस शिक्षा की अवमानना करता है जिसमे कोर्ट ने उसे कहा था कि  वह अपने व्यवहार को सही करने का प्रयास करेगा और दूसरे  लोगों को भी सही व्यवहार के लिए प्रेरित करेगा । मगर वह ऐसा नहीं करते क्योंकि उसे नेता बनना है , फिर से चर्चा में रहना है । और इसके लिए उसे पी एम को गालियां देनी हैं और उन पार्टियों के लिए रास्ता बनाना है जिनके रास्ते बंद होने के कगार पर हैं । पार्टियां उसे उस मजदूर के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं और उसके हाथ में गालियों और अभद्र टिप्पणियों का कुदाल और फावड़ा पकड़कर अपने लिए रास्ता तलाश रही हैं । कन्हैया को भी पता है कि  बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा । ये वही लोग हैं जिनमे एक वे केजरीवाल आते हैं जिनके नेता कभी कश्मीर में जनमत संग्रह कराये जाने की बात  करते हैं तो कभी कहते हैं कि  हाँ वे अराजक हैं । कभी न्यायालय पर टिप्पणी करते हैं तो कभी राष्ट्रपति को सीख देते हैं । लेकिन फिलहाल वे चुपचाप हैं । केजरीवाल भी खुले मन से इसके साथ हैं लेकिन वे दिखा नहीं रहे हैं।  लेकिन मैं अब अपनी उस बात पर आता हूँ जिसलिए मैंने यह लिखना शुरू किया है ।
सोच रहा हूँ , जिस विश्वविद्यालय में पी एच डी का छात्र इस छिछले अंदाज में अपना भाषण देता है उस विश्वविद्यालय का क्या स्तर  होगा ? जहां उसके भाषण को सुनकर ये तथाकथित बुद्धिजीवी सरीखा खुद को दिखाने  वाले बाकी  छात्र तालियां पीटते नज़र आते हैं । सोच रहा हूँ कि  यदि यह बौद्धिक चिंतन का नतीजा है तो फिर वह क्या है जिसे मैं कई बार अपने मोहल्ले में काम काज से दूर युवकों में देखता हूँ जहां वे इकठ्ठा होकर किसी के द्वारा मजाकिया अंदाज में दिए जा रहे भाषण पर तालियां पीटते हैं और हल्ला मचाते हैं । उनके पास कोई काम नहीं होता । कोई उन्नत शिक्षित भी वे नहीं होते मगर अंदाज वही  होता है जो मैंने जे एन  यू में देखा है । मगर एक फर्क है , जे एन  यू  वाले दिल्ली में हैं , हाई प्रोफाइल हैं , उनकी बात का अलग महत्व हैं , भले ही वह मेरे गली मोहल्ले के लड़कों के तौर तरीकों सरीखे अंदाज में पेश की गयी हो । भले ही इनमे से कोई जेल नहीं गया हो , किसी पर देश द्रोह का आरोप न लगा हो पर हैं तो मेरे मोहल्ले की ही । पर मैं सोचता हूँ , शिक्षा से क्या हमारा बात कहने का तरीका नहीं बदलना चाहिए , हमारी प्रतिक्रियायें  देने का तरीका नहीं बदलना चाहिए । यदि नहीं तो क्या मैं अपने गली मोहल्ले के लड़कों को बेहतर मान लूँ  जिनके पास भले ही ज्ञान न हो पर तरीका तो उनका भी वही  हैं । उसमे कोई फर्क नहीं है । हाँ , वे बौद्धिक अकाल से ग्रस्त माने जाते हैं क्योंकि वे जे एन  यू  या किसी इसी तरह के विश्वविद्यालय  के छात्र नहीं हैं ।
एक बात और , देश के अन्य विश्वविद्यालयों का क्या दोष है जिन्हें छब्बीस छात्रों पर एक प्रोफ़ेसर मिले हैं और सब्सिडी  भी उस तरह नहीं मिलती जिस तरह जे एन  यू  को।  क्या इसलिए कि  यहां पर वैचारिक स्वतंत्रता इस हद तक नहीं सिखाई गई कि  देशद्रोह के नारे भी लगाए जा सकें । क्या ऐसी स्वतंत्रता पाने के बाद या इतना बुद्धिजीवी होने के बाद ऐसी सुविधाएं मिल जाती हैं ? क्या कहेंगे आप ?
हाँ , सुना था कि  नक्सलियों द्वारा सी आर पी ऍफ़ के जवान मारे जाने के बाद यहां के बुद्धिजीवियों ने छात्रों ने जश्न मनाया था । आज भी तीन सी आर पी ऍफ़ के जवान मारे गए हैं ? डर लगने लगा हैं ऐसी बौद्धिकता से ।
नमस्कार ,
मैं -
डॉ द्विजेन्द्र वल्लभ शर्मा
मोतीचूर हरिपुर कलां , रायवाला देहरादून - २४९२०५
सहायक अध्यापक , म्युनिसिपल इंटर  कॉलेज , ज्वालापुर हरिद्वार 

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