मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012


एक थी कलावती
एक थी कलावती . थी इसलिए क्योंकि उसका वर्तमान में होना भी थी के ही बराबर है . नाम पर जाया जाय तो वह कलावती थी . कलाओं वाली थी . कला की धनी थी . लेकिन नाम से वो कलावती थी काम से किसान . यह कृषि प्रधान देश है इसकिये किसान होना सम्मान का प्रतीक हो सकता है . वह भी कृषक ही थी . लेकिन उसका अथक परिश्रम भी उसके नाम को सार्थक नहीं कर सका था . गरीबी उसके भाग्य की परछाही थी जो हमेशा उसे साथ ही रहा करती थी . सर पर बमुश्किल एक छत घासफूस की . तन पर कपडे के नाम पर कुछ चीथड़े और रसोई में खाने के नाम पर मोटा अनाज और बमुश्किल दो समय का खाना . रात को गुदड़ियों में सो जाती और सुबह गुदड़ियों से ही उठ जाती . वैसे तो हमारे देश में कई गुदड़ी के लाल हैं जिनका गुदड़ी से कोई सम्बन्ध नहीं है. वे दीखते गुदड़ी के लाल हैं लेकिन उनका जीवन गुदड़ी वाला  नहीं. वे जब किसी राज्यके मुखिया  रहे तब जरूर बाकी प्रदेशवासियों को उन्होंने गुदड़ी वाला बना दिया था लेकिन वे खुद गुदड़ी वाले नहीं हैं . बल्कि हर ऐशो आराम से ओत प्रोत हैं . वे कहने को गुदड़ी के लाल हैं और हकीक़त में मैनेजमेंट गुरु भी रह चुके हैं .
लेकिन हम बात कर रहे थे कलावती की . वह गुदड़ी पर आश्रित थी . उसने कोई सपना कदाचित ही कभी देखा हो . या देख भी होगा तो टूटते सपनों के बाद कदाचित ही कभी दोबारा सपने देखने की कोशिश की होगी. उसने कभी नहीं सोचा होगा की कभी कोई राजा या युवराज उसके घर या जीवन में आएगा और उसके दिन बहुरने की उम्मीदों पर पानी डाले जाने की चर्चा होगी.
लेकिन एक दिन अचानक . एक युवराज . एक लम्बी गाडी में . अपनी गाडी से उतरा . वह युवराज था . उसे चेहरे पर युवराजों की मुस्कान थी . ऐसा उसके मातहत कहते थे या कह सकते हैं कि उसके आसपास घूमने वालों को उसमे उनका युवराज नज़र आता था . वह कलावती की झोपडी में आया . बैठा . उसके हालचाल पूछे उसके चूल्हे कि बनी रोटी खाई  . उससे पूछा कि वह कैसे अपना जीवन यापन करती है ? युवराज को बड़ी चिंता हुई कि देश में ऐसे भी लोग हैं  जो दो  समय का भोजन भी नहीं पा पाते . लेकिन मुझे इस बात की ख़ुशी है कि उस युवराज ने फ्रांस की कभी उस एक राजकुमारी की तरह यह नहीं कहा कि यदि कलावती के पास रोटी नहीं है तो वह केक पिज्जा बर्गर आदि से काम क्यों नहीं चला लेती ? युवराज परेशान था कलावती की हालत पर और वह कलावती को उम्मीदों का पिटारा थमाकर चला गया.
कलावती हक्का बक्का थी . कोई आया था उसके दिन फेरने . उसके पीछे लाव लश्कर था . कैमरे थे . फ्लैश थी . वह घबरा गई थी . इतनी उम्मीद तो उसने कभी नहीं की थी . वह बेसुध सी थी . ऐसा भी होता है क्या ? ऐसा तो सपनों में हुआ करता है . वह भी उन तरुण युवतियों के सपनों में जो अपने अपने राजकुमारों की प्रतीक्षा में दिन काटती हैं कि कोई आएगा उनके दिन फेरने . यहाँ पर स्थिति थोड़ी भिन्न थी . युवराज आया था . एक पुत्र की तरह अपनी माँ के दिन फेरने . उसे तो ऐसा ही लगा होगा . उसे आँखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था . दिन फिरने की ऐसी उम्मीद तो उसने कभी नहीं लगाईं थी . वह थोडा सा होश में तब आई जब युवराज चला गया . कैमरे चले गए . लाव लश्कर चला गया . और रह गया वही टूटा फूटा सा झोपडी नुमा घर . झोपड़ पट्टी . शरीर पर कतरे . वही सूखी रोटी और पुनर्जीवित होने की उम्मीद में उम्मीदें जिनके पूरा होने की हैरत भरी उम्मीद अब कलावती को भी

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