गुरुवार, 26 जनवरी 2012


26.1.12


विदेशी और हम
अमेरिकी टी वी होस्ट जे लेनो के द्वारा पंजाब के स्वर्ण मंदिर परिसर के बारे में दिए गए बयान पर आजकल हल्ला मचा हुआ है जिसमे उन्होंने इस परिसर को छुट्टियां बिताने  का स्थान यानि ऐशगाह माना है . उनकी  इस बात ने हमें और विशेष रूप से सिख समाज को झिंझोड़ कर रख दिया है और अचानक हमें हमारे आत्मसम्मान की और देखने का अवसर दिया है .  ज्यादा हैरानी की बात नहीं कि यह बयान तब दिया गया है जब अमेरिका कि ही एक टाक शो होस्ट ओपरा विनफ्रे भारत दौरे पर हैं और भारत का मीडिया जगत उसके किये पलक पांवड़े बिछाए उसी तरह खडा है जिस तरह किसी भी विदेशी यात्री को देखकर हमारे देश में ऑटो रिक्शे उसके पीछे उम्मीद से ज्यादा पाने की उम्मीद में चल देते हैं . यह ऐसा भी है जैसे हमारे देश के बहुत से पढ़े लिखे युवा भारत में अपनी पढ़ाई या प्रशिक्षण पूरा कर  के बाद में विदेश में नौकरी करना अपना सौभाग्य समझते हैं या विदेश में पढ़ाई  करना बेहतर समझते हैं.भले ही हमें वहाँ पर दोयम दर्जे का ही नागरिक समझा जाए , रेड इंडियन या स्लम डॉग कहा जाए या आस्ट्रेलिया जैसे देशों में हमारे नागरिकों की हत्याएं नस्लवादी संस्कृति के कारण कर दी जाए . अक्सर ऐसा होता है जब कभी न्यूजीलैंड का कोई टी वी एंकर तो कभी अमेरिका का कोई टी वी होस्ट या अन्य कोई भी हमारे बारे में  टिप्पणी   करता है और हम आग बबूला हो जाते और बाद में हमारा यह गुस्सा भी चाय की प्याली में तूफ़ान की मानिंद गायब भी हो जाता है . अमेरिका तो अपने नागरिकों का बचाव करेगा ही . हमारे नेता यहाँ तक कि राष्ट्रपति तक अमेरिका जैसे देशों के क़ानून के आगे जब तक अपमानित होते रहते हैं लेकिन हमें फिर भी यह समझ नहीं आता कि क्यों कोई भी विदेशी आने पर हमें अपनी हीनता का अहसास होने लगता है . सच माने , क्योंकि जब हम स्वयं अपने स्व को भूल चुके हैं और जो कुछ बचा है उसे भूलते जा रहे हैं तो ऐसा होगा ही . हिंदी बोलना गुनाह और अंग्रेजी बोलना लिखना जिंदगी मान चुके हम लोगों के बारे में विदेशियों का क्या सोचना है यह सब इन घटनाओं से पता चलता है .ग्लोबलाइजेशन के नाम पर हिंदी से किनारा कर चुके हम लोगों को कदाचित ही सुध आये . यह स्वर्ण मंदिर देश के उस पंजाब प्रांत में स्थित है देश में जिस राज्य के कदाचित सबसे ज्यादा युवा विदेश जाने के लिए तत्पर रहते हैं और जाते भी हैं. दो वर्ष पूर्व इंग्लैंड में भारतीय डाक्टरों की जो दुर्गति हुई थी और जिस प्रकार से वे कई दिनों तक वहाँ के मंदिरों और गुरुद्वारों में पड़े रहे थे उसे हम भूले नहीं हैं लेकिन दुखद यह है की किसी भी डाक्टर को तत्कालीन परिस्थितियों में अपने आत्मसम्मान की याद नहीं आई और कोई लौट के भी नहीं आये था . सभी वहाँ पड़े रहे जब तक ब्रिटिश सरकार उन पर नहीं पसीजी .
अपना मूल भूलते जा रहे और सब कुछ पराया अपनाने की होड़ में लगे हम भारतीयों को या तो इन शूलों को सहने की क्षमता विकसित कर लेनी चाहिए या अपनी तरफ देखना शुरू कर देना चाहिए . उनके आगे पीछे नाचेंगे तो यह दुर्गति तो होगी ही और जब तब अपमानजनक टिप्पणी भी सहनी ही पड़ेगी.

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