सोमवार, 20 मार्च 2017

कल एन  डी  टी वी  पर एक बहस देखी  है जिसमें कई अन्य महानुभावों के साथ आम आदमी पार्टी के योगेंद्र यादव को भी देखा जिन्होंने योगी आदित्य नाथ  के चयन को रूह कंपा देने वाला बताया है । उनके अनुसार उत्तर प्रदेश में हुई यह नियुक्ति समाज के एक वर्ग की रूह कंपा देगी । उनका यह बयान इतना अनावश्यक लगा कि  कल  चाहता था कि  लिखूँ पर कुछ दिक्कत थी सो आज यह बता देना चाहता हूँ कि  जनता के इतने बड़े फैसले के बाद भी आज भी कई लोग इस बात को समझने को  नहीं हैं कि  समय बदल रहा है और पूर्वाग्रह से ग्रसित लोग अभी भी समझ नहीं पा रहे हैं कि  उनके वे तथ्य निरंतर गलत साबित होते जा रहे हैं जो वे मन में भ्रम की जगह पाले हुए हैं । वर्षों तक नरेंद्र मोदी जी के खिलाफ २००२ का प्रचार करते करते व देश में सेक्युलर राज में दर्जनों दंगों के होने के बावजूद २००२ को ही निशाना बना कर जो कुप्रचार किया गया वह जब तक पी एम् मोदी प्रधान सेवक नहीं बन गए तब तक चलता रहा है और थक हार कर अब इस समाज ने २००२ को गाना बंद कर दिया है क्योंकि इन्हें भी पता चल गया है कि  जनता ने अब उनकी सुनना बंद कर दिया है । पिछले तीन साल में बहुत से हथकंडे अपनाये गए हैं और पनपाये भी गए हैं मगर ये सारी  दुकानें अब बंद हो गयी हैं । कुछ लोग अब अपनी बेचारगी इस स्तर  पर दिखा रहे हैं कि  न्यू  इंडिया का क्या मतलब है । क्या मनुस्मृति की समीक्षा की जायेगी मानो इस देश में मनुस्मृति की भी समीक्षा की जायेगी । खैर , बात योगेंद्र यादव से शुरू हुई जिन्हें उनकी सेक्युलर पार्टी ने धक्के मारकर बाहर निकाल दिया था और अब भी वे उससे ही जुड़े हुए हैं , यह उनकी मजबूरी है या महानता , यह तो वे ही जाने मगर वे अरविन्द केजरीवाल के इस कट्टरपन  को क्या कहेंगे । क्योंकि योगेंद्र यादव एक बेहतर विश्लेषक रहे हैं इसलिए जब उन्होंने रूह कंपा देने वाली बात कही तो समझना जरूरी था कि  देश में तमाम दंगे क्या रूह कंपा देने वाले नहीं थे ? जो सपा पांच साल रही उसमें उन्हें कुछ रूह कंपा देने वाला नजर नहीं आया । मुजफ्फर नगर के दंगे हों या उत्तराखंडियों पर १९९४ में  मुलायम सरकार द्वारा किया गया अत्याचार , क्या वह रूह कांप देने वाला नहीं था ? १९८४ के दंगे क्या थे?  दुःख के साथ यह कह रहा हूँ कि  योगेंद्र यादव सहित तमाम लोगों के तमाम आकलन गलत साबित होने जा रहे हैं । प्रतीक्षा कीजिये । कुछ और वैचारिक दुकानों पर ताला  पड़  जायेगा फिर ये लोग क्या करेंगे । नेगेटिविटी क्या होती है यह आपकी आजकल  चैनलों पर होने वाली बहस में दिख जायेगा । 

बुधवार, 8 मार्च 2017

इस वक्त रात के नौ बजकर पैंतीस मिनट हुए हैं और  एन  डी  टी वी पर दिव्या कंदुकरी लेडी श्रीराम कॉलेज दिल्ली  , देवांगना पिंजरा तोड़ो आंदोलन की सदस्य ,  सबा महाराज जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी  और स्वाति प्रिया मुम्बई यूनिवर्सिटी रवीश  की मेहमान हैं और आज महिला दिवस पर चर्चा है कि  स्त्री की स्वतंत्रता पर आघात क्यों ? हॉस्टल में पुरुषों और स्त्रियों के लिए अलग अलग नियम क्यों हैं ? क्यों नहीं लड़कियां पुरुषों की तरह असीमित अधिकार प्राप्त कर सकती ? क्यों नहीं उन्हें हर पल खुले रहने वाली लाइब्रेरी में पढ़ने की सुविधा दे दी जाती ? क्यों नहीं उन्हें फिल्म देखने की स्वतंत्रता है ? ये सब विषय दिलचस्प हैं । हक़ माँगना और माँगना क्यों ? लेना सबका अधिकार है । इसी वक्त मुझे १६ दिसंबर की वह निर्भया याद आ रही है जो अपने दोस्त के संरक्षण में मुनिरका देल्ही  के उस बस स्टॉप से एक बस में चढ़ी थी और हादसे का शिकार हो गयी । एक उबाल सा आ गया था देश में । वह तो आजाद भी थी पढ़ी लिखी भी और संरक्षित भी । समानता सबका अधिकार है । उसी समानता के अधिकार के तहत वह बाहर थी फिर भी हादसे का शिकार हो गयी थी । गौतम थोड़ी देर के लिए अपनी कुटीर से बाहर निकले थे और इंद्र रूप बदल कर कुटिया में प्रवेश कर गए और व्यभिचार कर गए । अहिल्या नहीं पहचान पायी । गौतम लौटे । इंद्र भाग गए । नियमानुसार इंद्र को मुख्य पूजा से बाहर कर दिया गया । कालांतर में इंद्र फिर से स्वस्तिवाचन के प्रथम देव बन गए । स्वस्ति न इन्द्रो ---- । अहिल्या तो कुटिया के अंदर थी । वन में । फिर भी ठगी गयी । न इंद्र का कुछ खास बिगड़ा और न गौतम का । बल्कि अहिल्या ही पत्थर हो गयी और राम की प्रतीक्षा करती रही । आज भी निर्भया  के रूप में अहिल्या पत्थर हो जाती है । सब कुछ छिनने  के बाद । और कोर्ट में वकीलों के वो अजीब से सवाल उसे पत्थर ही बना देते हैं । स्त्री आंदोलन को चलाने वाले जो भी हैं उनका समर्थन किया जाना चाहिए मगर क्या जब ये सब महिलायें माँ बनेंगी तो क्या अपने इस आंदोलन का समर्थन कर पाएंगी ? अपनी बेटी जब घर से बाहर निकलती है तो चिंता होना स्वाभाविक है । स्वाभाविक है हॉस्टल वार्डन  का चिंतित होना कि  यदि किसी लड़की के साथ कुछ हो गया तो उसकी नौकरी जायेगी । माँ बाप को क्या जवाब दिया जाएगा । क्योंकि पुरुष का डर  है । स्त्री से डर  नहीं । स्त्री पर शक नहीं मगर पुरुष पर भरोसा नहीं है । वह सक्षम है । राजा अश्वघोष के महल में जब ऋषि आये और प्रजा का हाल पूछा । अश्वघोष ने कहा - न में स्तेनो  जनपदे न कदर्यो न मद्यपः । नानाहुताग्निर्नाविद्वान न स्वैर स्वैरिणी कुतः ॥ यानि मेरे राज्य में चोर नहीं , शराबी नहीं , अवैदिक नहीं , मूर्ख नहीं , और चरित्रहीन पुरुष नहीं तो स्त्री का चरित्रहीन होने का तो मतलब ही नहीं बनता । उन्होंने कुल मिलकर बड़ा कद बड़ी जिम्मेदारी कहकर पुरुष पर ही यह जिम्मेदारी डाल  दी थी कि  पुरुष यदि ठीक रहेगा तो स्त्री ठीक रहेगी क्योंकि स्त्री शारीरिक रूप से कमजोर और पुरुष मजबूत होता है । मुझे इस वक्त भी डेल्ही की उस सड़क पर चलती उस बस में वह निर्भया और वे दरिंदे याद आ रहे हैं । यह वही वक्त था जब वह बस डेल्ही की सड़कों पर घूम रही थी । स्त्री को आजादी चाहिए और वह उसे मिलनी चाहिए । पर क्या एक माँ अपनी बच्ची को वह आजादी देने की एकदम वकालत या कोशिश कर सकती है जो वह टीवी पर देखती सुनती है । वह एंकर  भी शायद ही यह आजादी अपनी बच्ची को दे पाए जो सिर्फ भारतीय संस्कृति का मजाक बनाने के लिए बार बार यत्र  नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तंत्र देवता , का मजाक उडाता दिखता है । वजह सिर्फ यही है कि  एक भाई अपनी बहन को सड़क पर जाते देखता है तो सड़क पर खुले में पेशाब करते लड़के को गाली देता है क्योंकि उसको अपनी बेटी  का ध्यान है मगर आगे जाकर वह खुद कहीं सड़क पर खड़ा हो जाता है । यह हमारे समाज के दोहरेपन  का प्रतीक है । हम दोहरा जीवन जी रहे हैं । हम चिंतित हैं पश्चिम से आयातित स्वतंत्रता से भी जिस पर हम कभी घर पर तो कभी सोसाइटी में चर्चा करते हैं तो हम बात आधुनिकता की भी करते हैं समस्याओं का समाधान ढूंढें बिना । हम स्वतंत्रता की बात भी करते हैं और स्वतंत्रता पर चिंता भी जताते हैं । आजादी क्यों न मिले ? पर दोनों को ही बराबर । मगर एक बात तय है  - बच्चे को गर्भ में स्त्री  धारण करती है पुरुष नहीं । उसकी गैर जिम्मेदारियां इंद्र गौतम से लेकर निर्भया  तक दिखती हैं । मुझ तलक  अब निर्भया की चीखें आ रही हैं । मैं सोने जा रहा हूँ एक गैर जिम्मेदार पुरुष की तरह क्योंकि जिस पुरुष से मुझे लड़ना चाहिए वह मुझ सा है या मुझसे ताकतवर । वह सुनने को तैयार नहीं । मेरे इन प्रवचनों से कुछ नहीं होने वाला है क्योंकि प्रवचन चाहिए पर केंद्रित होते हैं और यथार्थ है पर केंद्रित होता है और ज्यादा ताकतवर होता है । नैतिकता एक गरीब की जोरू की तरह हो जाती है जिसको सम्मान के लिए तिल  तिल  लड़ना पड़ता हैं । व्यभिचार और अनाचार का अट्टहास इतना तीव्र होता है कि  नैतिकता को कंपा  देता है । आज महिला दिवस है । नैतिकता और महिला दोनों स्त्रीलिंगी हैं । सभी महिलाओं को महिला दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं , उन सास बहुओं को भी जो अपने अपने हिस्से के बेटे और पति के चक्कर में एक दूसरे का साथ भी नहीं दे पाती और  यह अंतहीन सिलसिला चलता रहता है क्योंकि सास भी कभी बहू  थी की तरह ।